Book Title: Dharmratna Prakaranam
Author(s): Punyavijay
Publisher: Sarabhai Manilal Nawab Ahmedabad
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विभ्राणः कूटनिद्रां कपट इति जने विश्रुतो विश्वरूपः, संजातः सङ्गमोऽयं तदनु च गणभृत् पादलिप्तस्ततोऽहम् ॥१५॥ इय जिणपवयणनयलससिणो वरवाइणो महाकइणो । कहिय नियपुव्वपुरिसे, भणियं पालित्तएणेयं ॥१६॥ अयसाभिघायअभिदुम्मियस्स पुरिसस्स सुद्धहिययस्स । होइ वहंतस्स पुणो, चंदणरससीयलो अग्गी ॥१७॥ इय निजिणिया वाए, अपच्चवाएवि वाइणो गुरुणा । नवरसतरंगलोला, तरंगलोला कहा य कया ॥१८॥ समिया य सिरोवियणा, अदृस्स मुरुंडराइणो तह य । विहिय तं पउमं जं, अज्जवि कइणो न पावंति ॥१९॥
तथा हि"दीहरफणिंदनाले, महिहरकेसरदिसामुहदलिल्ले । उअ पियइ कालभमरो, जणमयरंदं पुहइपउमे ॥२०॥ जे लद्धलखभावेण, सूरिणा गूढसुत्तमाईया । नाया बहुया भावा, वित्थरगंथाउ ते नेया ॥२१॥ अट्ठमिमाईपव्वे, पालित्तो लेविऊण नियचलणे । रेवयविमलगिरीसु, वंदद देवे नहपहेणं ॥२२॥ इत्तो सुरविसए, अज्जुणरससिद्धिलद्धमाहप्पो । सव्वस्थ लद्धलबखो, जोगी नागज्जुणो अस्थि ॥२३॥ सो दटु भणइ सूरिं, वियरसु नियपायलेवसिद्धिं मे । गिण्हेसु मज्झ कंचणसिद्धिं तो भणइ मुणिपवरो ॥२४॥ भो कंचणसिद्ध ! अकिंचणस्स मह कंचणस्स सिद्धीए । किं कज्जमवज्जाए, कंचणसिद्धी वि किंवऽथि ? ॥२५॥ तुह पायलेवसिद्धिं, सावज्जत्तेण न हु पयच्छेमि । जं सावज्जुबएसो, मुणीण नो कप्पए भद्द ! ॥२६॥ तत्तो इमो विलक्खो, सुलद्धलक्खो लहुंपि सिक्खेइ । समणोवासगकिरियं, चिइवंदणदणाईयं ॥२७॥
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