Book Title: Dharmbindu
Author(s): Haribhadrasuri, Hirachand Jain
Publisher: Hindi Jain Sahitya Pracharak Mandal

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Page 11
________________ उन्होंने ऐसे जवाबकी आशा भी रखी न थी। उनके मनमे हुआ कि, न तो इस गाथाका मर्म समझमें आया और जो प्रत्युत्तर मिला वह भी मेरे ज्ञानको चुनौती दे रहा है । वास्तवमे इसमे कुछ गांभीर्य है। उनकी जिज्ञासावृत्तिने उनको नम्र बना दिया। वे उपाश्रयमें जाकर साध्वीजीके सामने विवेकपुरस्सर बैठ कर पूछने लगे. " आर्याजी ! मुझे इस गाथामें शृंखलाबद्धता और कृतिपटुव तो स्पष्ट जान पडता है लेकिन उसका रहस्य सुननेकी बडी उत्कंठा है, कृपया समझाईए।" ____ आर्या याकिनी महत्तरा उसका अर्थ समझा सकती थी पर उन्होने हरिभद्रको ज्यादह धर्मलाभ होनेकी दृष्टिसे कहाः 'महानु भाव ! इस गाथाका अर्थ समझना हो तो हमारे गुरुमहाराज जो बडे ज्ञानी है, उनके पास जाकर आप पूछ सकते हैं। हमारा यह आचार है, इसलिये आप श्रीजिनभट्टसूरिजीके पास जाईए ।' हरिमद्र पंडित पर आर्याजीकी नम्र, आचारपूत और विवेकशील वाणीने असर किया। आर्याजीकी तप प्रभा और स्वाध्यायत्रील चर्या उनकी आंखोसे अछूनी नहीं रही। उस तेजोमृर्तिने हरिभद्रके हृदय पट पर पावनकारी आसन जमाया। तपस्तेजके थोडे ही तापसे मानों मोम पिघलने लगा। उनके स्मरणमे वह प्रत्युत्तर चित्रवत् बना रहा और विचारशील दिमागमें उस निखालस और जिज्ञासावृत्तिने उनको ऐसा प्रभावित कर दिया कि वे दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही गुरुमहाराजके पास चल पडे। उपाश्रयमें जाते समय जिनमंदिर वीच पडता था। उसमें उन्होंने वही मनोहर जिनमूर्ति के दर्शन किये।

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