Book Title: Dharmbindu Author(s): Haribhadrasuri, Hirachand Jain Publisher: Hindi Jain Sahitya Pracharak Mandal View full book textPage 9
________________ गया। मामला तंग था। ऐसे अवसर पर हरिभद्र पंडित पालखीमसे कूद कर अपने शिष्यों के साथ पासके किसी मकानमें घुस पडे । वह मकान एक जैनमंदिर था। उसमें विराजमान देवाधिदेव वीतराग परमात्माकी भव्य और प्रशांतमूर्ति पर उनकी दृष्टि पड़ी। अपने जन्मगत संस्कारमे ब्राह्मण और श्रमण जैन संस्कृतिके बीच परापूर्व से चला आता दृष्टिविष घुलने लगा। वीतराग परमात्माकी प्रशमरसनिमग्न मूर्तिको देख कर हंसते हुए वे कटाक्षमें बोल पडे : " वपुरेव तवाचष्टे, स्पष्टं मिष्टान्नभोजनम् । नहि कोटरसंस्थेऽनौ, तरुर्भवति शाड्वलः ॥" -तेरा शरीर अपने आप मिष्टान्न भोजनको अवश्य कह रहा है, क्योकि वृक्षकी बखौलमें अग्नि हो तो वृक्ष हराभरा नहीं रह सकता। इस श्लोकमें उनकी विकृत दृष्टि स्पष्ट थी। सर्वज्ञताके गर्वमें भला, वह प्रकाश उस वख्त उनको कहांसे मिल सकता जिसके द्वारा वे बोले हुए वचन दूसरे समय उनको सुधारने पडेंगे!। सचमुच, ऐसा कहनेमें हरकत नहीं है कि मानो हस्तिघटना उनके गर्वखंडनका एक सूचक प्रसंग थी जो उनकी प्रतिज्ञाका बीडा ऊठानेकी भूमिका स्वरूप जान पडता है; वह प्रसंग दूर न था। जैनधर्म प्रति अनुरागकी भूमिका ____एक दफेकी बात है-पंडित हरिभद्र राजमहेलसे नीकल कर अपने घर जा रहे थे कि रास्तेमें अचानक किसी बूढी स्त्रीका मधुरPage Navigation
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