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गुटोवाक
“न धर्मो धार्मिकैबिना" इस सूक्ति में एक मार्मिक तथ्य निहित है। धर्म क्या है ? इस प्रश्न के साथ ही एक विशेष आधार शिला की ओर अनायास ही दृष्टि घूम जाती है। क्या धर्म कोई वस्तु है, जिसे स्थिर रखने को आधार की आवश्यकता है ? इसके समाधान के पूर्व धर्म कोई न पदार्थ है और न ही वह बाह्य जगत में उपलब्ध ही होता है। फिर क्या है ? यह तो प्राणी मात्र का स्वभाव है जो त्रैकालिक उसके साथ हर क्षण रहता है। इस तथ्य से स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि धर्म स्वभाव है और स्वभावी है उसका
आधार है। इस स्पष्टीकरण से विदित होता है मानव धर्म का आधार है और उसका स्वभाव-आचरण धर्म है।आगम के परिपेक्षण में “चारित्तंखलु धम्मो" यह गंभीर परिभाषाप्राप्त है। यह आचरण या चारित्र कब और किस प्रकार प्राप्त
और विकासोन्मुख हो विचारने पर ज्ञात होता है सम्यग्दर्शन पूर्वक संयम के साथ इसका विकास होता है।
यद्यपि सम्यग्दर्शन तो चारों ही गतियों में होना संभव है किन्तु संयम सर्वत्र नहीं होता। नरक और स्वर्गगति में तो संयम की प्राप्ति सर्वथा असंभव है। तिर्यंचगति में होता है परन्तु यह एकदेश ही हो सकता है। पूर्ण संयम
असंभव है। अब रह गई मानव पर्याय । इसमें पूर्ण संयम का फल अवश्य __ संभव है, तथाऽपि हर एक मनुष्य को नहीं होता और न बिना पुरुषार्थ के
ही । यही उद्देश्य आचार्य परमेष्ठियों का रहा है कि येन-केन प्रकार से पूर्ण धर्म-संयम की उपलब्धि हो । इसी अपेक्षा से धर्म एक होने पर भी उसे पाने