Book Title: Bhav Tribhangi
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur

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Page 18
________________ कारणणिरवेक्खभवो सहावियो पारिणामिओ भावो ॥ कम्मुदयजकम्मुगुणो ओदयियो होदि भावो हु ॥ 23 ॥ कारणनिरपेक्षभवः स्वाभाविकः पारिणामिको भावः । कर्मोदयजक मैं गुणः औदयिको भवति भावो हि ॥ अन्वयार्थ (कम्मक्खए) कर्मों के क्षय से ( खइओ भावो) क्षायिक भाव (कम्मुवसमम्मि ) कर्मों का उपशम होने पर ( उवसमियो) औपशमिक भाव (जीवस्य गुणो उदयो) जीव के गुणों का उदय अथवा क्षयोपशम रूप भाव से (खओवसमिओ) क्षायोपशमिक (भावो हवे ) भाव होता है। (कारणणिरवेक्खभवो) कारणों की अपेक्षा से रहित होने वाला अर्थात् कर्मों के उदय, उपशम आदि की अपेक्षा से रहित (सहावियो ) स्वभाविक (पारिणामिओ) पारिणामिक (भावो) भाव होता है । (कम्मुदयजकम्मुगुणो) कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले कर्म के गुणभाव (ओदयियो) औदयिक (भावो) भाव (होदि) कहलाते हैं । भावार्थ- कर्मों के क्षय से क्षायिक, उपशम से औपशमिक भाव होते हैं तथा क्षायोपशमिक भाव की परिभाषा करते हुये आचार्य महाराज कहते हैं कि जीव के गुणों का ३३५ क्षायोपशमिका है अर्थात् यहाँ इस पान में TI जीव के कुछ गुण प्रकट रहते हैं इस प्रकार जानना चाहिये । कारणों से निरपेक्ष अर्थात् कर्मों के उदय, उपशम आदि की अपेक्षा रहित पारिणामिक भाव कहलाते हैं तथा कर्मों के उदय से उत्पन्न होने वाले कर्म भाव औदयिक भाव कहे जाते हैं, अर्थात् कर्मों के उदय में होने वाले भाव औदयिक भाव जानना चाहिए 1 केवलणार्ण दंसण सम्मं चरियं च दाण लाहं च । भोगुवभोगवीरियमेदे णव खाइया भावा ॥24 ॥ केवलज्ञानं दर्शनं सम्यक्त्वं चारित्रं च दानं लाभश्च । भोगोपभोगवीर्यं एते नव क्षायिका भावाः अन्वयार्थ (केवलणाणं) केवलज्ञान (दंसण) केवलदर्शन (सम्म) सम्यक्त्व (वरियं) चारित्र (दाणे) दान (लाई) लाभ (भोगुदभोगवीरियमेदे च ) भोग, उपभोग और वीर्य ये (णव) नव (खाइया भाव) ( 11 ) -

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