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गुणस्थान में जानना चाहिए तथा सयोग केवली गुणस्थान में शुक्ल लेश्या मात्र की व्युच्छित्ति जानना चाहिये।
दाणादिचऊ भव्वमसिद्धत्तं मणुयगदि जहक्खादं । चारित्तमजोशिजिणे वुच्छेदो होति भावे दो ||40|| दानादिचतुः भव्यत्वमसिद्धत्वं मनुष्यगतिः यथाख्यातं । चारित्रमयोगिजिने व्युच्छेदः भवतः भावौ द्वौ ॥ अन्वयार्थ (अजोगिजिणे) अयोग केवली गुणस्थान में (दाणादिचऊ) दानादि चार अर्थात् दान, लाभ, भोग, उपभोग (भव्वमसिद्धत्तं) भव्यत्व, असिद्धत्व (मणुयगदि) मनुष्यगति (जह क्खादं चारित) यथाख्यात चारित्र इन आठ भावों की (वुच्छे दो) व्युच्छित्ति (होति ) होती है। (भावे दो) मात्र दो भाव पाये जाते हैं । यहाँ दो भाव से क्षायिक और पारिणामिक भाव ग्रहण करना चाहिये। ऐसा यहाँ आचार्य महाराज का अभिप्राय ज्ञात होता है।
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भावार्थ - अयोगकेवली गुणस्थान में क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग ये चार भाव एवं भव्यत्व, असिद्धत्व, मनुष्यगति और यथाख्यात चारित्र इन आठ भावों की व्युच्छि त्ति हो जाती है। अयोगकेवली के क्षायिक दानादि की व्युच्छित्ति कैसे घटित होती है तो इसका समाधान इस प्रकार है कि अमयदान आदि के लिए शरीर नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म के उदय की अपेक्षा रहती है। जबकि सिद्ध परमेष्ठियों में शरीर नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म का अभाव है। किन्तु सिद्ध परमेष्ठी के क्षायिक दानादि लब्धियों का सद्भाव आगम में कहा गया है। इस विषय में सर्वार्थ सिद्धि में आगत शंका समाधान दृष्टव्य है ।
शंका- यदि क्षायिक दान आदि भावों के निमित्त से अभयदान आदि कार्य होते हैं तो सिद्धों में भी उनका प्रसंग प्राप्त होता है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि इन अभयदान आदि के होने में शरीर नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म के उदय की अपेक्षा रहती है । परन्तु सिद्धों के शरीर नामकर्म और तीर्थकर नामकर्म नहीं होते, अतः उनके अभयदान आदि प्राप्त नहीं होते ।
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