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ओरालं वा मिस्से " हि वेभंगो सरागदेसजमं । मणपज्जवसमभावा साणे थीसंढ वेदछि दी ।।8।।
औदारिक वत् मिश्रे न हि विभंगं सरागदेशयम ।
मनःपर्ययशमभावाः साने स्त्रीषंढ वेदच्छित्तिः ।। अन्वयार्थ :- (मिश्रे) औदारिक मिश्रकाययोग में (ओराल वा) औदारिक काययोग के समान भाव जानना चाहिए। विशेषता यह है कि (हि) निश्चय से (विभंग) विभंगज्ञान (सरागदेशयम) सरागसंयम और देश संयम (मणपज्जवसमभावा) मनः पर्ययज्ञान, औपशमिक सम्यकत्व और औपशमिक चारित्र, प्रथम गुणस्थान में नहीं पाया जाता है। (साणे) सासादन गुणस्थान में (थीसंठवेदछि दी स्त्रीवेद, नपुसंकवेद की व्युच्छिति हो जाती है।
भावार्थ -औदारिकमिश्र योग में देवगति, नरकगति, विभंगावधिज्ञान, सराग चारित्र, देशचारित्र, मनःपर्ययज्ञान, उपशम सम्यक्त्व और उपशमचारित्र ये आठ भाव नहीं होते हैं। अतः पैतालीस भाव होते हैं | औदारिक मिश्रकाय योग में प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और तेरहवां ये चार गुणस्थान होते हैं । इसमें सासादन गुणस्थान में स्त्रीवेद और नपुसंकवेद की व्युच्छित्तिहोजाती है। अतः औदारिक मिश्र काययोग में चतुर्थगुणस्थान में एक पुंवेद ही पाया जाता है।
मिच्छाइट्टि द्वाणे सासणठाणे असंजदट्टाणे । दुग चदु पणवीसंपुण सजोगठाणम्मिणवयछिदी ।।2।। मिथ्यादृष्टि स्थाने सासादनस्थाने असंयतस्थाने ।
द्वौ चत्वार: पंचविंशतिः पुनः सयोगस्थाने नवकच्छित्तिः || अन्वयार्थ :- (मिच्छाइट्टिहाणे औदारिक मिश्रकाययोग में मिथ्यात्व गुणस्थान में दो, (सासणठाणे) सासादन गुणस्थान में चार (असंजद ठाणे) असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में (पणवीसं) पच्चीस की (पुण) पुनः (सजोगठाणम्मि) सयोग केवली गुणस्थान में (णवय छि दी) नौ भावों की व्युच्छित्ति होती है।
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