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आचार्य श्री श्रुतमुनि विरचित भाव त्रिभङ्गी
अनुवाद/संपादन
ब्र. विनोद कुमार जैन, शास्त्री ब्र.अनिल कुमार जैन, शास्त्री श्रीवर्णी दिग. जैन गुरुकुल श्री वर्णी दिग. जैन गुरुकुल पिसनहारीमढ़ियाजी
पिसनहारीमदिया जी जबलपुर
जबलपुर
प्रकाशक गंगवाल धार्मिक ट्रस्ट नयापारा, रायपुर (म.प्र.)
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सम्पादकीय पपौरा जी सरस्वती भवन के अवलोकन के दौरान "भाव संग्रहादि" नामक ग्रन्थ प्राप्त हुआ था । भाव त्रिभङ्गी आचार्य श्री श्रुतमुनि द्वारा विरचित उसी के पृष्ठ भाग में प्रकाशित हुई है । ग्रंथ का पूर्ण अवलोकन करने के उपरान्त ऐसा अहसास हुआ कि यह ग्रंथ मोक्ष साधकों के लिए अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है। संयोग से आर्यिका दृढ़मती माताजी का वर्षाकाल मदिया जी में हो रहा था । सानी नोनहराचा विज्ञासा माताजी को यह ग्रंथ अत्यधिक उपयोगी प्रतीत हुआ हम लोगों ने ग्रन्थ की उपयोगिता जानकर ग्रंथ का अनुवाद करना प्रारम्भ कर दिया। अनुवाद पूर्ण होने पर पूज्य आर्यिका श्री दृढ़मतिमाताजी से मूलानुगामी अन्वयार्थ के साथ संदृष्टियों को स्पष्टीकरणार्य हम लोगों ने समय चाहा । माताजी से प्रातःकाल का समय मिल गया । माताजी द्वारा अन्वयार्थ, संदृष्टियाँ तथा आवश्यक भावार्थ एक बार सरसरी दृष्टि से अवलोकन कर लिये गये। हम लोगों को आन्तरिक संतुष्टि हुई। ग्रंथ पूर्ण होने उपरान्त व्यवस्थित कम्प्यूटर कम्पोजिंग के लिए दे दिया गया कुछ दिनों के पश्चात् यह ज्ञात हुआ कि आर्यिका रत्न श्री ज्ञानमति माताजी द्वारा इस ग्रन्थ का अनुवाद, पूर्व में किया जा चुका है तथा वह दि. जैन त्रिलोक शोधसंस्थान, मेरठ से प्रकाशित भी हुआ है। प्रयास करने पर माताजी द्वारा अनुवादित प्रति भी उपलब्ध हो गई । माताजी की प्रति मुख्यता से प्रबुद्ध साधकों के लिए उपयोगी जान पड़ी किन्तु संदृष्टियों का विशेष खुलासा होने की दृष्टि से हम लोगोंने जो कार्य किया था वह उपयोगी जान पड़ा। अतः इसके प्रकाशन का विचार किया फलतः यह कृति आपके सम्मुख है । इस प्रकार ग्रंथ का प्रकाशन संभव हो रहा है। फिर भी कुछ त्रुटियाँ संभव है - आशा है कि विवक्षित -विषयज्ञ त्रुटियों की जानकारी अवश्य ही प्रेषित करेंगे।
ग्रन्थ में प्रतिपाद्य विषय - आचार्य श्री श्रुतमुनि ने पंचपरमेष्ठी को नमस्कार कर, स्वरूप की सिद्धि के लिए मध्यजीवों को सूत्रकथित मूलोत्तर भावों का स्वरूप प्रतिपादन करूँगा ऐसी, प्रतिज्ञा कर, भावों के भेद-प्रभेदों
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का उल्लेख कर, गुणस्थानों और मार्गणाओं में संभव मावों का क्रमश: निरूपण किया है। ग्रन्थ के अन्त में संदृष्टियाँ प्रस्तुत की है। उन संदृष्टियों में प्रथम विवक्षित गुणस्थान अथवा मार्गणा में होने वाली भाव व्युच्छित्ति, पश्चात् भाव सद्भाव और अंत मेजभाष स्वरुपमाषों का काम किया है।
ग्रन्थ में विशेषताएँ - प्रायः ग्रंथकार ग्रंथ के आदि में मंगलाचरण करते हैं अथवा आदि और अंत में करते हैं किन्तु श्री श्रुतमुनिने ग्रंथ में तीन बार आदि. मध्य और अंत में मंगलाचरण प्रस्तुत किया है। भावों का स्वरूप बतलाते हुए गाथा 22 में क्षयोपशम भाव की परिभाषा करते हुये कहा है कि - "उदयोजीवस्स गुणो रखओवसमिओ ले भावो ।।22||
अर्थात् जीव के गुणों का उदय क्षयोपशम भाव है। क्षयोपशम भाव की यह परिभाषा शब्दसंजोयना की अपेक्षासे नवीनता प्रकट करती हैठीक इसीप्रकार औदयिक भाव की परिभाषा कायम करते हुये कहा है - "कम्मुदयजकम्मुगुणो ओदयियो होदि भावो हु' ||2|| अर्थात् - कर्मों के उदयसेउत्पन्न होने वाले कर्मगुण - औदयिक कहलाते हैं। यह परिभाषा शब्द-संयोजना अपेक्षा विशिष्टता रखती है।
श्री श्रुतमुनि ने औपशमिक चारित्र का सद्भाव 11 वें गुणस्थान में, क्षायिक चारित्र का अस्तित्व 12वें गुणस्थानसे 14वें गुणस्थान तक तथा सरागचास्त्रि को 6-10 तकस्वीकार किया है। कर्मकाण्ड ग्रंथराज में भावों का कथन गुणस्थानों में विवेचित किया गया किन्तुमार्गणाओंमें 3भावोंकीसंयोजना करनेवाला यह एक मात्र अनुपम ग्रंथ है। ग्रन्थ में विचारणीय बिन्दु -
मिश्रगुणस्थान में आचार्य श्रीने अवधिदर्शन कासद्भाव स्वीकार किया है।जबकि धवलाकार ने मिश्र गुणस्थान मेंचक्षु, अचक्षु दर्शन का ही उल्लेख किया है।तथा अन्य कर्म ग्रन्थों में भी दो दर्शनों कासदभाव देखने को मिलता है।
वैक्रियिक मिश्रकाययोगमेचतुर्यगुणस्थानमेस्त्रीलिंगकोस्वीकार किया गया क्योंकि यहाँ 32 भावों का सद्भाव कहा गया है। वैक्रियिकमिश्नकाय योग चतुर्यगुणस्थान मेंलीलिंग का समाव यह विचारणीय विषय है।
.आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग की सदृष्टि में 6
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भावों की व्युच्छित्ति दर्शायी गयी है। 6 भावों की व्युच्छित्ति किस प्रकार संभव है यह विचारणीय है।
.माथा 64 में भावस्त्री में सरागचारित्र और क्षायिक सम्यक्त्व का निषेध आपत्तिजनक है। ..क्रोध, मान, माया की संदृष्टि में सद्भाव स्वरूप 40 भाव वर्णित किये गये हैं जबकि वहाँ पर 41 भावों का सद्भाव पाया जाता है।
भव्य मार्गणा में सभी भावो का सद्भाव गाथा 107 में बतलाया है। जबकि वहाँ पर अभव्य भाव कैसे संभव यह विचारणीय है ? तथा ठीक उसी प्रकार अभव्य में मिथ्यादर्शन गुणस्थान में 34 भावों का सद्भाव स्वीकार किया है जबकि यहाँ भव्यत्व भावको कम करके 33 भाव ही संभव
हैं।
C . मार्ग के उनकारक दृष्टि में 1, 2, :, : चार गुणस्थान स्वीकार किये हैं जबकि वहाँ 1, 2, 4, 13, 14, इन पाँच गुणस्थानों का सद्भाव पाया जाता है। ___ इस ग्रन्थ पर कार्य करना गुरुओं की कृपासेसंभव होसका है । पूजनीया
आर्यिका श्री दृढ़मती जी सिद्धान्तज्ञ, सरल, उदार होने के साथ-साथ अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी है। आपके जीवन का प्रत्येक क्षण श्रुताराधना में व्यतीत होता है। आपके आशीष से हमलोग भी यही कामना करते हैं कि हम लोगों का समय भी श्रुताराधना में व्यतीत हो।
इस ग्रन्थ के संपादन कार्य में वर्णी गुरुकुल के संचालक श्री ब्र. जिनेश जी का अत्यधिक सहयोग रहा है। जब जिससामग्री की आवश्यकता पड़ी वह समय पर प्राप्त हो गई। हम दोनों आपका अत्यधिक आभार व्यक्त करते हैं। __ आशा है कि विद्वत्जन के साथ-साथ सामान्य जन लोग इस कृति से लाभ प्राप्त कर सकेंगे। विजय दशमी
ब्र. विनोद जैन 20.10.99
ब्र. अनिल जैन
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विषयानुक्रमणिका
क्र.
विषय
1. मंगलाचरण एवं प्रतिज्ञा वचन
2. मतिज्ञानादि भावों की उत्पत्ति व्यवस्था
3. भावों के मूल व उत्तर भेद
4. चौदह गुणस्थानों में मूलभाव 5. मिथ्यात्व गुणस्थान में चौंतीस भाव 6. चौदह गुणस्थानों में भाव व्युच्छिति 7. गुणस्थानों में सद्भाव रूप भाव 8. गुणस्थानों में अभाव भावों का कथन
9. चौदह गुणस्थानों में भाव त्रिभङ्गी एवं संदृष्टि (1)
गाथा स. पृष्ठ सं.
1-2
I
3-20
2-10
21-28
10-12
29-33
13-15
34
[5
35-41
16-20
42
20-21
43
21
10. मध्य मङ्गलाचरण व प्रतिज्ञा वचन 11. तीन सम्यक्त्वों का सद्भाव 12. नरकगति में भाव त्रिभङ्गी व्यवस्था एवं संदृष्टियाँ (2-11 )
13. तियंचगति में भाव त्रिभङ्गी व्यवस्था एवं संदृष्टि याँ (12-18)
14. मनुष्यगति में भाव त्रिभङ्गी व्यवस्था एवं संदृष्टि याँ (19-27)
15. देवगति में भाव त्रिभङ्गी व्यवस्था एवं संदृष्टि याँ ( 28-42)
16. इन्द्रिय एवं काय मार्गणा में भाव त्रिभङ्गी व्यवस्था एवं संदृष्टि याँ (43-47)
17. योग मार्गणा में भाव त्रिभङ्गी व्यवस्था एवं संदृष्टि याँ (48-55 )
18. वेद मार्गणा में भाव त्रिभङ्गी व्यवस्था
एवं संदृष्टि याँ (56-58)
19. कषाय मार्गणां एवं अज्ञानत्रय में भाव त्रिभङ्गी 92-93 व्यवस्था एवं संदृष्टि याँ (59-61)
44
45-48
49-52
53-60
61-70
71-77
78-80
80-89
90-91
22-29
29
30-32
32-35
35-45
45-57
46-58
58-74
59-74
74-86
76-86
87-88
87-90
88-102
91 - 203
104
104-107
107-108
108-111
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94-97
111-115
112-116
98-102
116-120
103-104
105-106
20. ज्ञान मार्गणा में भाव त्रिभनी व्यवस्था
एवं संदृष्टियाँ (62-64) 21. संयम मार्गणा में भाव विभङ्गी व्यवस्था
एवं संदृष्टियाँ (65-70) 22. दर्शन मार्गणा में भाव त्रिभङ्गी व्यवस्था _____एवं संदृष्टियाँ (71-73) 23. लेश्या मार्गणा में भा त्रिभनी व्यवस्था
एवं संदृष्टियों (74-76) 24. भव्य एवं सम्यक्त्व मार्गणा में भाव विभङ्गी
व्यवस्था एवं संदृष्टियाँ (11-84) 25. संज्ञी मार्गणा में माव त्रिभनी व्यवस्था
एवं संदृष्टियाँ (85-86) 26. आहारक मार्गणा में भाव त्रिभनी व्यवस्था
एवं संदृष्टियाँ (87-88) 27. अंतिम मङ्गलाचरण एवं लघुता प्रदर्शन
117-121 122 122-125 125-127 126-129 129-132 131-137
107-109
110-111
112-114
139-141 140. 141-142 143-144
115-116
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11
भाव "भावोणाम दव्व परिणामो' द्रव्य के परिणाम को भाव कहते हैं। जीव द्रव्य में पांच मुख्य भाव पाये जाते हैं । औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदायक और पारिणामिकाये पाँचोभाव जीब के स्वतत्त्व और असाधारणभाव कहे गये हैं। कारण . है कि ये भाव जीव के अलावा अन्य द्रव्यों में नहीं देखे जाते हैं। इन भावों के भेद-प्रभेद तथा गुणस्थानों में इनका सवभाव निम्न प्रकार से है - क्र.भाव सगरमानमा
गुणस्थान 1. औपशमिक भाव 2 भेद 27. क्षायो. सम्यक्त्व . 4-12 1. ओपशमिक सम्यक्त्व 4-11 28. क्षायो. चारित्र (स.चा.) 6-10 2. औपशमिक चारित्र
29. संयमासयम 2. शायिक भाव भेद
4. औदयिक भाव 21 भेद 3. क्षायिक ज्ञान 13-14 30. नरकगति
1-4 4. क्षायिक दर्शन
13-14 31. तिथंचगति 5. झायिक दान 13-14 32. मनुष्यगति
1-14 6. क्षायिक लाभ
13-14 33. देवमति 1. क्षायिक भोग
13-14 3. क्रोध कषाय १. क्षायिक उपभोग 13-1435. मानकषाय
1-9 9. शायिक वीर्य
13-14 36. माया कषाय 10. क्षायिक सम्यक्त्व 4-14 37. लोभ कषाय
1-10 II. क्षायिक चारित्र 12-14 38. स्वीवेद
1-9 3. क्षायोपशमिक भाव 18 भेद 39. पुरुषवेद
1-9 12. मतिज्ञान 4-12 40. नपुंसक वेद
1-9 13. श्रुत ज्ञान
4-12 4. मिथ्यात्य 14. अवधिज्ञान 4-12 42. अज्ञान
1-12 15. मनःपर्यय ज्ञान
4-1243 असंयम 16. कुमति ज्ञान 1.2 44. असिद्धत्व
1-14 17, कुश्रुतज्ञान 1-2 45. कृष्ण लेश्या
1-4 18. कुअवधि ज्ञान
I-2 46. नील लेश्या 19. चक्षुदर्शन
1-12 47. कापोतलेश्या 20. अचक्षु दर्शन 1-12 48. पीत लेश्या
1-7 21. अवधि वर्शन
4-1249. पदम लेश्या 22 झायो. दान 1-12 50. शुक्ल लेश्या
1-13 23. झायो.लाम
1-12 5. मारिणामिक भावभेव 24, क्षायो, भोग 1-125. जीवत्व
1-14 25. क्षायो, उपभोग 1-1252. भव्यत्व
1-14 26. क्षायो, वीर्य
1-12 53. अमन्यत्व
1-4
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श्री-श्रुतमुनि-विरचिता
भाव-त्रिभङ्गी भावसंग्रहापरनामा।
(संद्दष्टि -सहिता) खविदघणघाइकम्मे अरहते सुविदिदत्थणिवहे य । सिद्धट्ठगुणे सिद्धे रयणत्तयसाहगे धुवे साहू ||1||
क्षपितधनघातिकर्मणोऽर्हतः सुविदितार्थनिवहांश्च ।
सिद्धाष्टगुणान् सिद्धान् रत्नवयसाधकान् स्तौमि साधुन् । अन्वयार्थ :- (खविदधणधाइकम्मे) घातियाकर्मो के समूह को जिन्होने नष्ट कर दिया है (य) और (सुविदिदत्यणिवहे) पदार्थों के समूह को अच्छी तरह जान लिया है ऐसे (अरहते) अरहंतों की (सिद्धवगुणे) प्राप्त किया हैआठ गुणों को जिन्होंने ऐसे सिद्रे) सिद्धों की (रयणत्तयसाहंगे) रत्नत्रय के साधक (साहू) साधुओं की (थुवे) मैं स्तुति करता हूँ अर्थात् उनकी वंदना करता हूँ।
इदि वंदिय पंचगुरु सरुवसिद्धत्थ भक्यिबोहत्थ। सुत्तुत मूलुत्तरभावसरूवं पवक्खामि ॥2॥
इति वन्दित्वा पंचगुरुन् स्वरूपसिद्धार्थ भविकबोधार्थ ।
सूत्रोक्तं मूलोत्तरभावस्वरूपं प्रवक्ष्यामि ॥ अन्वयार्थ :- (इदि) इस प्रकार (पंचगुरू) पंच परमेष्ठियों को(वैदिय) नमस्कार करके (सरूवसिद्धत्थ) स्वरूप की सिद्धि के लिए और (मवियबोहत्य) भव्य जीवों के ज्ञान के लिए (सुत्तुत्तं) सूत्र में कहे गये (मूलुत्तरभावसरूव) मूल उत्तर भावों के स्वरूप को (पवक्खामि) कहूँगा!
भावार्थ :- इस गाथा का प्रथम पद "इदि पंचगुरू वंदिय" पूर्व की मङ्गलाचरण रूप गाथा सूत्र से सम्बन्ध रखता है पश्चात् आचार्य महाराज ने ग्रंथ करने के हेतुका प्रतिपादन किया है कहा है कि मैं जो भावों के स्वरूप का कथन करूंगा । वह निज शुद्धात्मा के स्वरूप सिद्धि में तथा जो भव्य मोक्षेच्छुक है- उन्हें भावों के यथार्थ स्वरूप के बोध में कारण होगा तथा
(1)
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गाथा में आये "सुत्तुत्तं" पद से दो अर्थ ग्रहण करना चाहिये । सूत्रात्मक ग्रंथों में कथित अथवा तत्त्वार्थ सूत्र में निरूपित मूल और उत्तर भावों के स्वरूप का निरूपण करूंगा। मूल भावों से मुख्य तथा उत्तर भावों से मूल के प्रभेदों का ग्रहण करना चाहिये। विशेष :- भाव किन्हें कहते है ?
पदार्थों के परिणाम को भाव कहते हैं। भावनाम जीव के परिणाम का है, जो कि तीब्र मंद, निर्जरा भाव आदि के रूप से अनेक प्रकार का है। ___ द्रव्य के परिणाम को अथवा पूर्वापर कोटि के व्यतिरिक्ति वर्तमान पर्याय से उपलक्षित द्रव्य को भाव कहते है।
आचार्य महाराज नेजो यह कहा है कि भावों की प्ररूपणा स्वरूप सिद्धि में सहायक है इस सन्दर्भ में पण्डित टोडरमल जी ने करणानुयोग की उपयोगिता तथा करणानुयोग कैसे कर्म निर्जरा में कारण है इस में विषय कहा है कि- जो जीव धर्म विर्षे उपयोग लगाय चाहैं-..- ऐसे विचार विर्षे (अर्थात् करणानुपयोग विषय उनका) उपयोग रमि जाय, तब पाप प्रवृत्ति छूट स्वयमेव तत्काल धर्म उपजै है । तिस अभ्यास करि तत्त्वज्ञान की प्राप्ति शीघ्र ही है। बहुरेि ऐसा सूक्ष्म कथन जिनमत विष ही है, अन्यत्र नाहीं ऐसै महिमा जान जिनमत का श्रद्धानी हो है। बहुरि जे जीव तत्त्वज्ञानी होय इस करणानुयोग को अभ्यासै हैं तिनको यहु तिसका (तत्त्वनिका) विशेषरूप भास है। सूत्र किसे कहते हैं ? जो थोड़े अक्षरों से संयुक्त हो, सन्देह से रहित हो, परमार्थ सहित हो, गूढ पदार्थो का निर्णय करने वाला हो, निर्दोष हो, युक्तियुक्त हो और यथार्थ हो उसे पण्डित जन सूत्र कहते हैं।
णाणावरणचउण्हं. खओवसमदो हवंति चउणाणा। पणणाणावरणीएखयदो दुहवेइ केवलं गाणं॥3॥
ज्ञानावरणचतुर्णा क्षयोपशमतो भवन्ति चतुर्सानानि । पंचज्ञानावरणीयक्षयतस्तु भवति के वलं ज्ञानं ॥
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अन्वयार्थ :: (णाणावरणचउण्ह) चार ज्ञानावरणीय कर्मों के (खओवसमदो) क्षयोपशम से (चउणाणा) चार ज्ञान (हवति) होते है (पणणाणावरणीएखयदो दु) पांच ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षय से (केवल) केवल (णाणं) ज्ञान (हवेइ) होता है।
भावार्थ:- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान क्रमश: मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण अवधिज्ञानावरण और मनः पर्ययज्ञानाबरण के क्षयोपशम से होते है तथा पांचों ज्ञानावरणीय कर्मों की प्रकृतियों के क्षय से केवलज्ञान प्रकट होताहै।
मिच्छत्तणउदयादो जीवाणं होदि कुमति कुसुदं च । वेभंगो अण्णाणति सण्णाणतियेव णियमेण ||4|| मिथ्यात्वानोदयाज्जीवानां भवति कुमतिः कुश्रुतं च |
विभंगः अज्ञानत्रिक सज्ज्ञानन्त्रिकमेव नियमेन ।। अन्वयार्थ :- (मिच्छत्तणउदयादो) मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से (जीवाण) जीवों के (सण्णाणतियेव) मति, श्रुत अवधि रूप तीनों ही सम्यम्ज्ञान (णियमेण) नियम से (कुमतिकुसुद) कुमति कुश्रुत (च) और (वेभंगो) विभंगावधि नाम से (अण्णाणति) तीन अज्ञान रूप (होदि) हो जाते है।
भावार्थ :- ज्ञान में विपरीताभिनिवेश के दो कारण है, मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषाय । इन दोनों के कारण ही सम्यग्ज्ञान मिथ्याज्ञान संज्ञा को प्राप्त होते है, अतः मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी के उदय से जीव के कुमति, कुश्रुत और कुअवधि ये तीन अज्ञान होते है तथा मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषाय के अभाव में तीनों ज्ञान सम्यक् संज्ञा को प्राप्त होते हैं - अर्थात् मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान कहलाते हैं। पूर्व गाथा में सम्यग्ज्ञान की चर्चा की गई है मिथ्यात्व के निमित्त से तीनों (मति, श्रुत अवधि) को अज्ञानरूपसंज्ञा दी गई है।
विशेष - जैनागम में अज्ञान शब्द का प्रयोग दो अर्थों में होता है - एक तो ज्ञान का अभाव या न्यूनता के अर्थ में और दूसरा मिथ्याज्ञान के अर्थ में । पहले वाले को औदयिक अज्ञान और दूसरे वाले को क्षायोपशमिक
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अज्ञान कहते हैं ।
दंसणवरणक्खयदो केवलदंसण सुणामभावो हु । चक्खुदंसणपमुहावरणीयखओवसमदो य ॥ 5 ॥ दर्शनावरणक्षयतः के वलदर्शनं सुनामभावो हि । चक्षुर्दर्शनप्रमुखावरणीयक्षयोपशमतश्च
||
चक्खु अचक्खू ओहीदंसणभावा हवति नियमेण । पणविग्धक्खयजादा खाइयदाणादिपणभावा ||6|| चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनभावा भवन्ति नियमेन । पंचविघ्न क्षयजाताः क्षायिक दानादिपंचभावाः अन्वयार्थ 5-6 (दसणवरणक्खयदो) दर्शनावरणीय के क्षय से (सुणामभावो) सार्थक नामवाला (केवलदंसण) केवल दर्शन होता है (य) और (चक्खुहंसणपमुहावरणीय) चक्षु दर्शन है प्रथम जिसमें अर्थात् चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और अवधिदर्शनावरण के (खओवसमदो) क्षयोपशम से (जियमेण) नियम से (चक्खुअचक्खूओहीदंसणभावा) चक्षु, अचक्षु और अवधि दर्शन ये तीन भाव होते हैं । (पणविग्घक्खयजादा ) पाँच विघ्न अर्थात् अन्तराय कर्म के क्षय से (खाइयदाणादिपणभावा) क्षायिक दान आदि क्षायिक पाँच भाव प्रगट होते हैं।
विशेष क्षायिक भाव किसे कहते हैं ?
कर्मों के क्षय होने पर उत्पन्न होने वाला भाव क्षायिक है, तथा कर्मों के क्षय के लिए उत्पन्न हुआ भाव क्षायिक है, ऐसी दो प्रकार की शब्द व्युत्पत्ति ग्रहण करना चाहिए।
खाओवसमियभावो दाणं लाहं च भोगमुवभोगं । वीरियमेदे णेया पणविग्धखओवसमजादा || 7 || क्षायोपशमिकभावो दार्न लाभश्व भोग उपभोगः । वीर्यमेते ज्ञेया पंचविघ्नक्षयोपशमजाताः ar अन्वयार्थ 7 (पणविग्घखओवसम) पाँचों अन्तराय कर्मों के क्षयोपशम से ( खाओवसमियभावो) क्षायोपशमिक भाव रूप (दार्ण)
(4)
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दान (लाई) लाम (मोग) भोग (उवभोग) उपभोग (च) और (वीरियं) वीर्य (एदे) ये पाँच क्षायोपशमिक भाव (जादा) होते है। ऐसा (णेया) जानना चाहिये।
दसणमोहति हवे मिच्छ मिस्सत्त सम्मपडित्ती। अणकोहादी एदा णिद्दिट्ठा सत्तपयडीओ ॥४॥ दर्शनमोहमिति भवेत् मिथ्यात्वं मिश्रत्वं सम्यक्त्वप्रकृतिरिति। अनक्रोधादय एता निर्दिष्टाः सप्तकृतप्रकृतयः ।। सतण्ह उवसमदो उवसमसम्मो खयादु खझ्यो य । छ कु वसमदो सम्मत्तुदयादो वेदगं सम्मं ॥9॥
सप्तानामुपशमत उपशमसम्यक्त्व क्षयात्क्षायिकं च ।
षद्कोपशमतः सम्यक्त्वोदयात् वेदकं सम्यक्त्वं ॥ अन्वयार्थ 8-मेच्छा नियात्म मिस्तस, सन्यमिथ्यात्व (सम्मपडित्ती)सम्यक्त्व प्रकृति ये तीन(दसणमोहति) दर्शन मोहनीय की और (अणकोहादी) अनन्तानुबन्धी क्रोधादि चार (एदा) ये (सत्तपयडीओ)सात प्रकृतियां (णिट्टिा )कही गई है। इन (सतण्ह) सात के (उवसमदो) उवसम से (उवसमसम्मो) उपशम सम्यक्त्व (खयादु) क्षय से रखझ्यो) क्षायिक सम्यक्त्व(य) और (छक्कुवसमदो) छह के उपशम एवं(सम्मत्तुदयादो) सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से (वेदगं) वेदक (सम्म) सम्यक्त्व (हवे) होता है।
भावार्थ - मिथ्यात्व, सम्यग्मिध्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियों के उपशम से उपशमसम्यक्त्व होता है इनहीसातप्रकृतियों के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व तथा क्षयोपशम से क्षयोपशम सम्यग्दर्शन होता है।
चारित्तमोहणीए उवसमदो होदि उवसमं चरणं । खयदो खइयं चरणं खओवसमदो सरागचारित्तं ॥10॥
चरित्रमोहनीयस्य उपशमतः भवत्युपशमं चरणं ।
क्षयतः क्षायिकं चरण क्षयोपशमतः सरागचारित्रे ।। अन्वयार्थ 10- (चारित्तमोहणीए) चारित्र मोहनीय के (उवसमदो)
(5)
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उपशम से (उवसम चरण) उपशम चारित्र (खयदो खड्य) क्षय से क्षायिक चारित्र (खओवसमदो) क्षयोमशम से (सरागचारित्त) सराग चारित्र अर्थात् क्षायोपशमिक चारित्र (होदि) होता है।
भावार्थ - मोहनीय कर्म की 28 प्रकृतियों होती हैं। जिनमें से चारित्र मोहनीय की 24 प्रकृतियों अर्थात् अप्रत्याख्यान-क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यान · क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन- क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद तथा नपुंसक वेद इन प्रकृतियों के उपशम से उपशम चारित्र प्रगट होता है। यह चारित्रग्यारहवें गुणस्थान अर्थात् शान्त मोह नामक गुणस्थान में पाया जाता है तथा चारित्र मोहनीय की 21 प्रकृतियों के क्षय से जो चारित्र प्रगट होता है उसे क्षायिक चारित्र कहते हैं यह चारित्र क्षीण मोह अर्थात् वारहवें गुणस्थान से प्रारंभ होकर अयोग केवली तथा सिद्धों के भी पाया जाता है। चारित्र मोहनीय की 21 प्रकृतियों के अयोपशम से सराग चारित्र अर्थात् क्षायोपशमिक चारित्र होता है यह चारित्रछटवेंगुणस्थान से दसवेंगुणस्थान तक पाया जाता है ऐसा आचार्य महाराज का अभिमत है।
आदिमकसायबारसखओवसम संजलणणोकसायाणं। उदयेण (य) जं चरण सरागचारित्त तं जाण ||1||
आदिमकषायद्वादशक्षयोपशमेन संज्वलननोकषायाणां ।
उदयेन 'च' यच्चरणं सरागचारित्रं तज्जानीहि || अन्वयार्थ - (आदिमकसायबारसखओवसम) आदि की बारह कषाय के क्षयोपशम से और (संजलणणोकसायाण) संज्वलन कषाय
और नव नोकषाय के उदय से (जं चरणं) जोचारित्र होता है (तं) उसको (सरागचारित्त) सरागचारित्र अर्थात् दायोपशमिक चारित्र (जाण) जानना चाहिए।
भावार्थ - अनंतानुबंधी अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, क्रोध, मान, माया और लोभ इन बारह कषायों के क्षयोपशम तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ और नव नोकषाय के उदय सेतो चारित्र होता है उसको सराग चारित्र कहते हैं।
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मज्झिमकसायअडउवसमे हु संजलणणोकसायाणं। खइउवसमदो होदि हुतं चेव सरागचारित्तं ।। 12 ॥ मध्यमक षायाष्टोपशमे हि संज्वलननोकषायाणां ।
क्षयोपशमतो भवति हि तचैव सरागचारित्र ।। अन्वयार्थ - (मज्झिमकसाय अउपसम) मध्यपी माठ अर्थात् अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों काउपशम होने पर (च) तथा (संजलणणोकसायाण)संज्वलन कषाय और नोनव कषायों के (खइउवसमदो) क्षयोपशम से जो चारित्र ( होदि) होता है, (तं एव) वही (सरागचारित्र) सरागचारित्र है।
जीवदि जीविस्सदि जो हि जीविदो बाहिरेहिं पाणेहिं । अन्भतरेहिं णियमा सो जीवोतस्स परिणामो।।13।। जीवति जीविष्यति यो हि जीवितः बाघैः प्राणैः ।
अभ्यन्तरैः नियमात् स जीवस्तस्य परिणामः ।। अन्वयार्थ - (जो) जो (बाहिरे हिं) इन्द्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छवास रूप बाम तथा(अब्मतरेहि) ज्ञान दर्शन रूप अभ्यन्तर (पाणेहिं) प्राणों से (जीवदि) जीता है, (जीविस्सदि) जीवेगा और (जीविदो) जीता था (सोणियमा) वह नियम से (जीवो) जीव है (तस्स) उस जीव का (परिणामो) परिणाम जीवत्व भाव है।
भावार्य - जो पाँच इन्द्रिय- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र तीन बल- मनबल, वचन बल और काय बल, आयु और श्वासोच्छवास इन दस बाध्य प्राणों से तथा ज्ञान, दर्शन रूप अभ्यन्तर प्राणों से जीता है, जीता था तथा जीवेगा वह जीव है। अभ्यन्तर प्राणसे तात्पर्य जीव का ज्ञान दर्शन रूप उपयोगात्मक परिणामहै। यहाँ पर "तस्स परिणामों" शब्द से जीव के पारिणामिक भावों में से जीव के जीवत्व भाव का ग्रहण किया गया है क्योंकि आगामी गाथा में मव्यत्व और अभव्यत्व के स्वरूप का कथन करते हुए दो पारिणामिक भाव कहे गये है अतः उपर्युक्त गाथा में तीसरे जीवत्व रूप पारिणामिक भाव को ग्रहण करना चाहिए।
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रयणत्तयसिद्धीएणतचउ? यसरुवगो भविदुं । जुम्गो जीवो भब्बो तबिवरीओ अभब्बो दु॥14॥ रत्नत्रयसिद्धयाऽनन्तचतुष्ट यस्वरूपको भवितुं ।
योग्यो जीवों मब्यः तद्विपरीतोऽभव्यस्तु ॥ अन्वयार्थ 14- (रयणत्तय सिद्धीए) रत्नत्रय की सिद्धि से (अणतचउट्ठ यसरूवगो)अनन्त चतुष्टय स्वरूप(भविर्दु जुम्गो) होने के योग्य (भल्वो) भव्य है (तविवरीओ) इसके विपरीत (जीवो) जीव (अमव्वो दु) अभव्य है।
भावार्थ - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यञ्चारित्ररूपरत्नत्रय की सिद्धि और अनन्त दर्शन, ज्ञान सुख तथा अनन्ततीर्य का अनन्त चतुष्टय को प्राप्त करने की क्षमता वालाजीव भव्य है। जो सम्यग्दर्शन आदि गुणों की प्रगट करने की योग्यता से रहित है वह अभव्य है।
जीवाणं मिच्छु दया अणउदयादो अतच्चसद्भाणं । हवदि हुतं मिच्छत्तै अर्णतसंसारकारणं जाणे || 15॥ जीवानां मिथ्यात्वोदयावनोदयतोऽत्त्वश्रद्धानं ।
भवति हि तन्मिथ्यात्वं अनंतसंसारकारणं जानीहि ॥ अन्वयार्थ - (जीवाण) जीवों के (मिच्छु दया) मिथ्यात्व के उदय से और (अणउवयादो) अनन्तानुबंधी के उदय से जो (अतच्चसद्धाण) अतत्त्व श्रद्धान (हवदि) होता है (तं) उस (मिच्छत्त) मिथ्यात्व कहते हैं। (हु) निश्चय से (अणंतसंसारकारण) उसको अनन्त संसार का कारण (जाणे) जानो।
अपचक्खाणुदयादो असंजमो पढमचऊगुणट्ठाणे । पच्चक्खाणुदयादो देसजमो होदि देसगुणे | 16 ।।
अपत्याख्यानोदयात् असंयमः प्रथमचतुर्गुणस्थाने ।
प्रत्याख्यानोदयाद्देशयमो भवति देशगुणे ॥ अन्वयार्थ - (पढ़ मचऊगुणट्ठाणे) प्रथम चार गुणस्थानों में (अपचक्खाणुदयादो) अप्रत्याख्यान के उदय से (असंजमो) असंयम होता है एवं (देसगुणे) देशविरत गुणस्थान में (पच्चखाणुदयादो)
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प्रत्याख्यान के उदय से (देसजमो) देश संयम (होदि) होता है।
गदिणामुदयादो (चउ) गदिणामा वेदतिदयउदयादो। हिमाम्यगार मो मागप्रविरिहो लेस्सा ||17॥
गतिनामोदयात् गतिनामा वेदत्रिकोदयात् ।
लिंगत्रयभाषः पुनः कषाययोगप्रवृत्तितो लेश्याः ।। अन्वयार्थ -(गदिणामुदयादो) गतिनाम कर्म के उदयसे(गदिणामा) नरक गति आदि चार गति होती है । (वेवतिदयउदयादो) तीन वेदों अर्थात् स्त्रीवेद, पुरुषवेद एवं नपुंसकवेद के उदय से (लिंगत्तयभाव) तीन लिंग रूप भाव होते हैं (पुण) तथा (कसाय जोगप्पवित्तिदो) कषाय से युक्त योग की प्रवृत्ति को (लेस्सा) लेश्या कहते हैं।
जाव दु केवलणाणस्सुक्ओ ण हवेदि ताव अण्णाणं । कम्माण विष्पमुक्को जाव ण ताव दु असिद्भत ।।18 ।। यावत्तु के बलज्ञानस्योदयो न भवति तावदज्ञानं ।
कर्मणां विप्रमोक्षो यावन्न तावत्तु असिदत्वं ।। अन्वयार्थ 18- (जाव दु ) जब तक (केवलणाणस्सुदमो) केवल शान का उदय (ण हवेदि) नहीं होता है (ताव दु) तब तक (अण्णाण) अज्ञान है (जाव) जबतक (कम्माण विप्पमुकोण) कर्मों से रहित नहीं होता है (ताब) तब तक (असिद्धत्व) असिद्धत्व रूप औवयिक भाव (हवेदि) होता है।
कोहादीणुदयादो जीवाणं होति चउकसाया हु। इदि सब्युत्तरभावुप्पत्तिसरूवं वियाणाहि ॥ 19 ॥ क्रोधादीनामुदयात् जीवानां भवन्ति चतुष्कषाया हि।
इति सर्वोत्तरभावोत्पत्तिस्वरूपं विजानीहि ।। अन्वयार्थ - (कोहादीणुदयादो) क्रोधादि के उदय से (जीवाण) जीवों के (हु) निश्चय से (चउकसाया) चार कषाये (होति) होती है। (इदि) इसी प्रकार (सब्बुत्तरभाबुप्पत्तिसरूव) सभी उत्तर भावों की उत्पत्ति के स्वरूप को(वियाणाहि) जानना चाहिए।
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उवसमसरागचरियं खझ्या भावाय णव यमणपज । रयणत्तयसंपत्तेसुत्तममणुवेसु होति खलु || 20 ।। उपशमसरागचारित्रं क्षायिका भावाच नव च मनःपर्ययः ।
रत्नत्रयसम्प्राप्तेषु मनुष्येषु भवन्ति खलु । अन्वयार्थ - (खलु) निश्चय से (उवसमसरागचरिय) उपशम चारित्र, सरागचारित्र (य) और (णव) नौ (भावा) भाव (खझ्या) क्षायिक (य) और (मणपज्ज) मनःपर्ययज्ञान ये सभी भाव (रयणत्तयसंपत्तेसुत्तममणुवेसु) रत्नत्रय से सहित उत्तम मनुष्यों (मुनिगणों) में (होति) होते हैं।
इति पीठिका - विचारणं । मावा खझ्यो उवसम मिस्सो पुण पारिणामिओदइओ। एदेर्स (सिं) भेदा णव दुग अडदस तिणि इगिवीसं ॥21 ।। भावाः क्षायिक औपशमिको मिश्रः पुनः पारिणामिक औदायिकः। एतेषां भेदा नव द्वौ अष्टादश त्रय एकविंशतिः ॥
अन्वयार्थ - (खइयो) क्षायिक (उवसम) औपशामिक (मिस्सो) मिश्र अर्थात् क्षायोपशमिक (पारिणामिओदइओ) पारिणामिक और
औदयिक ये पाँच (मावा) भाव है (एदेस भेदा) इन भावों के भेद क्रमशः . (णव) नौ (दुग) दो (अड दस) अठारह (तिण्णि) तीन और (इगिवीस) इक्कीस है।
भावार्थ - क्षायिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक औदयिक और पारिणामिक ये पाँच भाव हैं। क्षायिक भाव के नो भेद, औपशमिक भाव के दो भेद, क्षायोपशमिक भाव के अठारह भेद औदयिक भावके इक्कीस भेद तथा पारिणामिक भाव के तीन भेद होते हैं। इन भेदों के नाम आगे की गाथाओं से जानना चाहिए।
कम्मक्खए हुखझ्मो भावो कम्मुक्समम्मि उवसमियो। उदयो जीवस्स गुणो खओक्समिओ हवे भावो ।। 22 ||
कर्मक्षये हि क्षयों भावः कर्मोपशमे उपशमकः । उदयो जीवस्य गुणः क्षयोपशमको भवेत् भावः ।।
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कारणणिरवेक्खभवो सहावियो पारिणामिओ भावो ॥ कम्मुदयजकम्मुगुणो ओदयियो होदि भावो हु ॥ 23 ॥ कारणनिरपेक्षभवः स्वाभाविकः पारिणामिको भावः । कर्मोदयजक मैं गुणः औदयिको भवति भावो हि ॥ अन्वयार्थ (कम्मक्खए) कर्मों के क्षय से ( खइओ भावो) क्षायिक भाव (कम्मुवसमम्मि ) कर्मों का उपशम होने पर ( उवसमियो) औपशमिक भाव (जीवस्य गुणो उदयो) जीव के गुणों का उदय अथवा क्षयोपशम रूप भाव से (खओवसमिओ) क्षायोपशमिक (भावो हवे ) भाव होता है। (कारणणिरवेक्खभवो) कारणों की अपेक्षा से रहित होने वाला अर्थात् कर्मों के उदय, उपशम आदि की अपेक्षा से रहित (सहावियो ) स्वभाविक (पारिणामिओ) पारिणामिक (भावो) भाव होता है । (कम्मुदयजकम्मुगुणो) कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले कर्म के गुणभाव (ओदयियो) औदयिक (भावो) भाव (होदि) कहलाते हैं ।
भावार्थ- कर्मों के क्षय से क्षायिक, उपशम से औपशमिक भाव होते हैं तथा क्षायोपशमिक भाव की परिभाषा करते हुये आचार्य महाराज कहते हैं कि जीव के गुणों का ३३५ क्षायोपशमिका है अर्थात् यहाँ इस पान में TI जीव के कुछ गुण प्रकट रहते हैं इस प्रकार जानना चाहिये । कारणों से निरपेक्ष अर्थात् कर्मों के उदय, उपशम आदि की अपेक्षा रहित पारिणामिक भाव कहलाते हैं तथा कर्मों के उदय से उत्पन्न होने वाले कर्म भाव औदयिक भाव कहे जाते हैं, अर्थात् कर्मों के उदय में होने वाले भाव औदयिक भाव जानना चाहिए 1
केवलणार्ण दंसण सम्मं चरियं च दाण लाहं च । भोगुवभोगवीरियमेदे णव खाइया भावा ॥24 ॥ केवलज्ञानं दर्शनं सम्यक्त्वं चारित्रं च दानं लाभश्च । भोगोपभोगवीर्यं एते नव क्षायिका भावाः
अन्वयार्थ (केवलणाणं) केवलज्ञान (दंसण) केवलदर्शन (सम्म) सम्यक्त्व (वरियं) चारित्र (दाणे) दान (लाई) लाभ (भोगुदभोगवीरियमेदे च ) भोग, उपभोग और वीर्य ये (णव) नव
(खाइया भाव)
( 11 )
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क्षायिक भाव है।
उपसमसम्म उवसमचरण दुण्णेव उवसमा भावा । चउणाणं तियदसणमतियं जहागानी 31 उपशमसम्यक्त्वमुपशमचरणे दावेव उपशमी भावौ | चतुर्ज्ञानं त्रिदर्शनं अज्ञानत्रिक च दानादयः ।। वेदग सरागचरियं देसजम विणवमिस्समावा हु । जीवत्त भव्यत्तमभव्वत्तं तिणि परिणामो (मा) ।। 26 || वेदकं सरागचरितं देशयम द्विनवमिश्रभावा हि ।
जीवत्वं भव्यत्वमभव्यत्वं त्रयः पारिणामिकाः ।। अन्वयार्थ - (उवसमसम्म) उपशमसम्यक्त्व (उवसमचरण) और उपशम चारित्र ये (दुण्णेव) दोनों ही (उपसमा भावा) औपशमिक भाव है। (चउणाणं) चार ज्ञान (तियदसणे) तीन दर्शन (अण्णाणतिय) तीन अज्ञान (दाणादी) दानादि पाँचलब्धियां (वेदग) वेदक सम्यक्त्व (सरागचरिय) सराग चारित्र अर्थात् क्षायोपशमिक चारित्र (च) और (देसजम) देशसंयमये (हु) निश्चय से (मिस्सभावा) मिनभाव अर्थात् क्षायोपशमिक भाव के (विणव) अठारह भेद है । (जीवत) जीवत्व (मव्वत्तममत्वत्तं) भव्यत्व और अभव्यत्व ये (परिणामो) पारिणामिक भाव के (तिष्णि) तीन भेद हैं।
ओदइओ खलु मावो गदिलेस्सकसायलिंगमिच्छत्तं। अण्णाणमसिद्धतं असंजम चेदि इगिवीसं || 27 ।।
औदयिकः खलु भावो गतिलेश्याकषायलिंगमिथ्यात्वं ।
अज्ञानमसिद्धत्वं असंयमश्चेति एक विशतिः ॥ अन्वयार्थ - (खलु) निश्चय से (गदि लेस्सकसायलिंगमिच्छत) चारगति, छह लेश्या, चार कषाय, तीन लिंग मिथ्यात्व, (अण्णाणमसिद्धत्त) अज्ञान, असिद्धत्व (असंजम) असंयम (इदि) इस प्रकार ये औदयिक भाव के (इगिवीस) इक्कीस भेद हैं।
पंचेव मूलभावा उत्तरभावा हवंति तेवण्णा । एदे सब्वे भावा जीवसरूवा मुणेयव्वा ।। 28 ||
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पंचैव मूलभावा उसरभावा भवन्ति त्रिपंचाशत् ।
एते सर्वे मावा जीवस्वरूपा मन्तव्याः ।। अन्वयार्थ - (मूलमावा) मूल भाव (पंचेव) पाँच ही है (उत्तरभावा) उत्तरभाव (तेवण्णा) त्रेपन (हवैति) होते हैं। (एदे) ये (सब्वे) सभी (भावा) भाव (जीवसरूवा) जीव के स्वरूप (मुणेयव्वा) मानना चाहिए।
उक्त च - मोक्षं कुर्वन्ति मिश्रीपशमिकक्षायिकाभिधाः ।
बन्धमौदयिको भावो निष्क्रियाः पारिणामिकाः ||11] गाथार्थ - सायोपशमिक औपशमिक और क्षायिक भाव मोक्ष को करने वाले है। औदयिक भाव बंध करता है तथा पारिणामिक भाव निष्क्रिय है अर्थात् बन्ध मोक्ष नहीं करता है।
मिच्छतिगऽयदचउक्के उखसमचउगम्हि खवगचउगम्हि। वेसु जिणेसु विसुद्धे णायब्बा मूलभावा हु ।। 29 ॥ मिथ्यात्वत्रिकायतचतुष्के उपशमचतुष्के क्षपकचतुष्के। वयोर्जिनयोः विशुद्धा ज्ञातव्या मूलभावा हि || खविगुवसमगेम विणा सेरतिभाला हु ऐन पंचेन । उवसमहीणाचउरो मिस्सुवसमहीणतियभावा ।। 30 ।।
क्षपकोपशकाभ्यां बिना शेषत्रिभावा हि पंच पंचैव ।
उपशमहीनाश्चत्वारः मित्रोपशमहीनत्रिक मावाः ।। अन्वयार्थ -(हु) निश्चयसे (मिच्छतिग) मिथ्यात्वादित्तीन गुणस्थानों में (खविगुवसमगेण) क्षायिक और उपशम भाव के (विणा) बिना (सेसतिभावा) शेष तीन भाव (अयदचउक्के) असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानों में (पंच) पाँच भाव तथा (उवसमचउगम्हि) उपशम श्रेणी के चार गुणस्थानों में (पंचेव) पाँचों भाव तथा (खवगचउगम्हि) क्षपकश्रेणी के चार गुणस्थानों में (उवसमहीणाचउरो) उपशम भाव से रहित चार भाव, (वेसु जिणेस) दो जिनों में अर्थात् सयोग केवली और अयोगकेवली में (मिस्सवसमहीण) क्षायोपशमिक और उपशम से रहित शेष (तियभावा) तीन भाव होते हैं । ये (पंचेव भूलभावा) पाँच ही
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मूलभाव (विसुद्धे) विशुद्धि की अपेक्षा रणायव्वा) जानना चाहिए।
भावार्थ - मिथ्यात्व, सासावन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में औदयिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक ये तीन भाव, असंयत, देशसंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत इन चार गुणस्थानों में पाँचों भाव, उपशम श्रेणी के चार गुणस्थानों में पाँचों भाव, क्षपक श्रेणी में औदयिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक ये चार भाव तथा सयोग, अयोग केवली के क्षायिक, औदयिक और पारिणामिक तीन भाव । इस प्रकार गुणस्थानों में मुल भावों की संयोजना जानना चाहिए।
खयिगो हु पारिणामियभावो सिद्धे हवति णियमेण | इत्तो उत्तरभावो कहियं जाणं गुणट्ठाणे || 31 ।।
क्षायिको हि पारिणामिकभावः सिद्धे भवतः नियमेन । ___ इत उत्सरभावं कथित जानीहि गुणस्थाने || अन्वयार्थ -(सिद्धे) सिद्धों में (णियमेण) नियम से (खयिगो) क्षायिक और (पारिणामियभावो) पारिणामिक भाव (हर्वति) होते है (इत्तो) इसके आगे गुणदंठाणे)गुणस्थानों में (उत्तरभादो) उत्तर भावों को (कहियं) कहते हैं सो (जाणं) जानो।
अयदादिसु सम्मत्तति-सण्णाणतिगोहिदसणं देसे। देसजमो छट्ठादिसु सरागचरियं चमणपज्नो।। 32 ।।
अयदादिषु सम्यक्त्वत्रिसज्ज्ञानत्रिकावधिदर्शन देशे ।
देशयमः षष्ठादिषु सरागचारित्रं च मनःपर्ययः || अन्वयार्थ - (अयदादिसु) चतुर्थ आदि गुणस्यानों में (सम्मत्तति) तीन सम्यक्त्व (सण्णाणतिग) तीन सम्यग्ज्ञान (ओहिदसण) अवधि दर्शन (देसे) देशव्रत अर्थात् पंचम गुणस्थान में (देसजमो) देशसंयम (छट्ठादिसु)छठवे आदिगुणस्थानों में सरागचरिय) सरामचारित्र (च) और (मणपज्जो) मनःपर्ययज्ञान होता है।
भावार्य - चौथे गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक उपशमसम्यक्त्व, चौयेसेसातवे गुणस्थान तक वेदकसम्यक्त्व एवंचौधेसे चौदहवे गुणस्थान तक क्षायिक सम्यक्त्वा इस प्रकार चतुर्थ गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान
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तक तीनों सम्यक्त्वों काउपरोक्त प्रकार से कथन जानना चाहिये। चौथे से बारहवें तक मति, श्रुत, अवधि ये तीन सम्यम्ज्ञान और अवधिदर्शन पाये जाते हैं। पंचम गुणस्थान में देशसंयम, छठे से दसवें तक सरागचारित्र और छठे से लेकर बारहवें तक मनः पर्ययज्ञान होता है।
संते उवसमचरियं खीणे खाइयचरित्त जिण सिद्धे। खाइयमावा भणिया सेसं जाणेहि गुणठाणे ।। 33 || शान्ते उपशमचरितं क्षीणे क्षायिकचरितं जिने सिद्धे।
क्षायिक भावा पणिताः शेष जानीहि गुणस्थाने || अन्वयार्थ - (सते) उपशान्त मोह गुणस्थान में रउवसमचरिय) उपशम चारित्र (खीणे) क्षीणमोह गुणस्थान में (खाझ्यचरित्त) क्षायिक चारित्र एवं (जिण) जिन अर्थात् तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में तथा (सिद्धे) सिद्धों में (खाइयभावा) क्षायिक भाव (भणिया) कहे गये। (सेस) तथा शेष भावों को (गुणठाणे) गुणस्थानों में (जाणेहि) जानना चाहिये।
ओदझ्या चक्खुदुगंडण्णाणति दाणादिपंच परिणामा । तिण्णेव सव्व मिलिदा मिच्छ चउतीसभावा हु ।। 34 |
औदयिकाः चक्षुकिं अज्ञानत्रिकं दानादिपंच परिणामाः ।
त्रय एव सर्वे मिलिता मिथ्यात्वे चतुस्त्रिंशदावाः स्फुटं ॥ अन्वयार्थ -(ओदइया) इक्कीस औदयिक भाव (चक्खुदुर्ग) चक्षु, अचक्षु दर्शन (अण्णाणति) अज्ञान तीन (दाणादिपंच) दानादि पाँच लब्धियाँ (परिणामा तिण्णेव) तीनों पारिणामिक भाव ये (सव्व) सभी (मिलिदा) मिलकर (चउतीसभावा) चौतीस भाव (मिच्छ) मिथ्यात्व गुणस्थान में होते हैं।
भावार्थ - गति 4, कषाय 4, लिंग 3, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम, लेश्या 6, असिद्धत्वये औदयिक भाव के 21 भेद, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान, दान, लाभ भोग, उपभोग, वीर्य, जीवत्व, मव्यत्व और अभव्यत्व इस प्रकार सभी संयुक्त करने पर चौतीस भाव मिथ्यात्व गुणस्थान में जानना चाहिए।
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दुग तिगणभ छ दुगणभ तिणम विम-त्ति दुग दुणितेरै च।
इगि अडछे दो भावस्सऽजोगिअंतेसु ठाणेसु || 35 ।। द्विक-त्रिक -नभः-षद् -द्विक-नमः-त्रि-नमः द्वित्रिक-विका-दौ-त्रयोदश च | एकः अष्टौ छेदः भावस्यायोग्यन्तेषु स्थानेषु ॥
अन्वयार्थ - (दुग) दो (तिग) तीन (णम) शून्य (छ) छह (दुग) दो (णम) शून्य (ति) तीन (णम) शून्य (विग त्ति) दो गुणस्थानों में तीन-तीन (दुग) दो (दुण्णि) दो (तेर) तेरह (इगि) एक (च) और (अड) आठ (भावस्स) भाव की (अजोगितेसु ठाणेसु) अयोग केवली गुणस्थान पर्यन्त क्रमशः (छे दो) व्युच्छित्ति होती है |
भावार्य - इस गाथा में प्रथम गुणस्थान से अयोग केवली गुणस्थान सक भावों की व्युच्छित्ति काक्रम का निरूपण किया गया है। प्रथम गुणस्थान में दो भावों की, दूसरे सासादन में तीन भावों की, तीसरे गुणस्थान में किसी भी भाव की व्युच्छित्ति नहीं होती है । चौथे गुणस्थान में छह भावों की, पाँचवे गुणस्थान में दो भावों की, छठवें प्रमत्त संयत गुणस्थान में किसी भी भाव कीव्युच्छित्ति नहीं होती है। सातवें में तीन मावों की, आठवें में किसी भी भाव की व्युच्छित्ति नहीं, नवमें में छह अर्थात् सवेद भाग के अन्त में तीनों वेदों की एवं अवेद भाग के अन्त में क्रोध, मान, माया की व्युच्छित्ति होती है। दसवें में दो, म्यारहवें में दो, बारहवें में तेरह, तेरहवे में एक और चौदहवे में आठ भावों की व्युच्छित्ति होती है। विशेष - जो भाव जिस गुणस्थान तक पाया जाता है आगे के गुणस्थान में उसका अभाव हो जाता है उस भाव की उसी गुणस्थान के अन्त में व्युच्छित्ति समझना चाहिये। यथा - मिथ्यात्व भाव मिथ्यात्व गुणस्थान तक ही रहता है आगे दूसरे सासादन में इसका अभाव है, अतः प्रथम गुणस्थान में मिथ्यात्व की व्युच्छित्ति हो जाती है। मिच्छे मिच्छ मभव्वं साणे अण्णाणतिदयमयदम्हि । किण्हादितिण्णि लेस्सा असंजमसुरणिरयगदिच्छेदो || 36 ||
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मिथ्यात्वे मिथ्यात्वमभव्यत्वं साणेऽजातियमयते । कृष्णादितिस्रो लेश्याः असंयमसुरनरकगतिच्छेदः ॥ अन्वयार्थ (मिच्छे ) मिथ्यात्व गुणस्थान में (मिच्छ मभव्वं ) मिथ्यात्व, अभव्यत्व (साणे) सासादन गुणस्थान में (अण्णाणतिदयं ) तीन अज्ञान (अयदम्हि ) असंयत गुणस्थान में (किण्हादितिण्णि) कृष्णादि तीन (लेस्सा) लेश्यायों की (असजं) असंयम, (असुरणिरयगदि) देवगति और नरक गति की (छे दौ) व्युच्छित्ति होती है।
भावार्थ - मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यात्व और अभव्यत्व इन दो भावों का व्युच्छेद होता है । सासादन गुणस्थान में तीन अज्ञान कुमति, कुश्रुत और विभङ्गावधि इन तीन क्षायोपशमिक भावों का व्युच्छेद हो जाता है । तीसरे गुणस्थान में किसी भी भाव की व्युच्छित्ति नहीं होती है, तथा अविरत गुणस्थान में कृष्णादि तीन अशुभ लेश्या, असंयम, देवगति और नरकगति इन छह औदयिक भावों का विच्छेद हो जाता है ।
देसगुणे देसजमो तिरियगदी अप्पमत्तगुणठाणे । तेऊपम्मालेस्सा वेदगसम्मत्तमिदि जाणे ॥37॥ देशगुणे देशयमस्तिर्यग्गतिः अप्रमत्तगुणस्थाने । तेजः पद्मलेश्ये वेदक सम्यक्त्वमिति जानीहि ॥ अन्वयार्थ 37- (देशगुणे) देशव्रत गुणस्थान में (देसजमो ) देशसंयम और (तिरियगदी) तिर्यच गति (अप्पमत्तगुणठाणे) अप्रमत्तगुणस्थान में (तेक पम्मालेस्सा) पीत, पद्म लेश्या तथा (वेदगसम्मत्तमिदि) वेदक सम्यक्त्व की व्युच्छित्ति होती है। इस प्रकार (जाणे) जानना चाहिए।
भावार्थ- पाँचवें गुणस्थान में संयमासंयम और तिर्यंचगति इन दो की व्युच्छित्तिः प्रमत्त. संयत गुणस्थान में किसी भी भाव की व्युच्छित्ति नहीं एवं सातवें गुणस्थान में पीत लेश्या, पद्म लेश्या और वेदक सम्यक्त्व इन तीन भावों की व्युच्छित्ति हो जाती है ।
अणियट्टिदुगदुभागे वेदतियं कोह माण मायं च । सुहमे सरागचरिये लोहो संते दु उवसमा भावा ॥38॥
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अनिवृत्तिद्विकद्विभागे वेदत्रिक क्रोधो मानो माया च ।
सूक्ष्मे सरागचारित्र लोभः शान्ते तु उपशम भावौ || अन्वयार्थ (अणियट्टि दुगदुभागे) अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के दो भागों में अर्थात् सवेद भाग और अवेद भाग में क्रमशः (वेदतियं) तीन वेद (च) और (कोह माण मार्य) क्रोध, मान, माया (सुहमे) एवं सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में (सरागचरियं) सरागचारित्र (लोहो) और लोभ (संते) तथा उपशति मोह गुणस्थान में (उवसमा भावा) औपशमिक भावों की व्युच्छित्ति होती है।
भावार्थ आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में किसी भी भाव की व्युच्छित्ति नहीं होती है नौवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के दो भाग हैं - वेद सहित और वेदरहित । वेदसहित - सवेद भाग में पुवेद, स्त्रीवेद और नपुंसक इन तीन वेदों की तथा वेदरहित भाग के अन्त में क्रोध, मान, माया इन कषायों की, अझ प्रकार हा गुणस्थान में कह भागों की व्युच्छित्ति होती है। दसवें गुणस्थान में सरागचारित्र और लोभ कषाय इन दो भावों की व्युच्छित्ति होती है एवं उपशान्त मोह गुणस्थान में औपशमिक सम्यक्त्व (द्वितीयोपशम सम्यकत्व) और औपशमिक चारित्र इन भावों की व्युच्छिति हो जाती है ।
खीणकसाए णाणचउक्कं दंसणतियं च अण्णाणं । पण दाणादि सजोगे सुक्कलेसे गवो छे दो ||39|| क्षीणकषाए ज्ञानचतुष्कं दर्शनत्रिक चाज्ञानं । पंच दानावयः सयोगे शुक्ललेश्याया गतः छेदः ॥ अन्वयार्थ (खीणकसाए) क्षीणकषाय गुणस्थान में (णाणचउक्क) चारज्ञान (दंसणतियं) तीन दर्शन (अण्णा) अज्ञान (च) और (दाणादि) क्षायोपशमिक दानादि (पण) पाँच की लब्धियों और (सजोगे) सयोग केवली गुणस्थान में (सुक्कलेसे) शुक्ललेश्या का ( गवो छे दो ) अभाव अर्थात् व्युच्छित्ति हो जाती है।
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भावार्थ- बारहवें गुणस्थान में मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ज्ञान, चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शन, अज्ञान, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य पाँच क्षायोपशमिक लब्धियाँ। इस प्रकार कुल 13 भावों की व्युच्छित्ति ! 2 वें
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गुणस्थान में जानना चाहिए तथा सयोग केवली गुणस्थान में शुक्ल लेश्या मात्र की व्युच्छित्ति जानना चाहिये।
दाणादिचऊ भव्वमसिद्धत्तं मणुयगदि जहक्खादं । चारित्तमजोशिजिणे वुच्छेदो होति भावे दो ||40|| दानादिचतुः भव्यत्वमसिद्धत्वं मनुष्यगतिः यथाख्यातं । चारित्रमयोगिजिने व्युच्छेदः भवतः भावौ द्वौ ॥ अन्वयार्थ (अजोगिजिणे) अयोग केवली गुणस्थान में (दाणादिचऊ) दानादि चार अर्थात् दान, लाभ, भोग, उपभोग (भव्वमसिद्धत्तं) भव्यत्व, असिद्धत्व (मणुयगदि) मनुष्यगति (जह क्खादं चारित) यथाख्यात चारित्र इन आठ भावों की (वुच्छे दो) व्युच्छित्ति (होति ) होती है। (भावे दो) मात्र दो भाव पाये जाते हैं । यहाँ दो भाव से क्षायिक और पारिणामिक भाव ग्रहण करना चाहिये। ऐसा यहाँ आचार्य महाराज का अभिप्राय ज्ञात होता है।
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भावार्थ - अयोगकेवली गुणस्थान में क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग ये चार भाव एवं भव्यत्व, असिद्धत्व, मनुष्यगति और यथाख्यात चारित्र इन आठ भावों की व्युच्छि त्ति हो जाती है। अयोगकेवली के क्षायिक दानादि की व्युच्छित्ति कैसे घटित होती है तो इसका समाधान इस प्रकार है कि अमयदान आदि के लिए शरीर नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म के उदय की अपेक्षा रहती है। जबकि सिद्ध परमेष्ठियों में शरीर नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म का अभाव है। किन्तु सिद्ध परमेष्ठी के क्षायिक दानादि लब्धियों का सद्भाव आगम में कहा गया है। इस विषय में सर्वार्थ सिद्धि में आगत शंका समाधान दृष्टव्य है ।
शंका- यदि क्षायिक दान आदि भावों के निमित्त से अभयदान आदि कार्य होते हैं तो सिद्धों में भी उनका प्रसंग प्राप्त होता है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि इन अभयदान आदि के होने में शरीर नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म के उदय की अपेक्षा रहती है । परन्तु सिद्धों के शरीर नामकर्म और तीर्थकर नामकर्म नहीं होते, अतः उनके अभयदान आदि प्राप्त नहीं होते ।
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शंका - तोसिद्धों के क्षायिकदान आदिभावोंकासद्भाव कैसे माना जाय? समाधान-जिस प्रकार सिद्धों के केवलज्ञानरूपसे अनन्तवीर्य का सद्भाव माना गया है उसी प्रकार परमानन्द और अव्याबाध रूप से ही उनका सिद्धों के सद्भाव है।
(स.सि. 2/4) केवलणाणं दसणमणतविरियं च खइयसम्मं च । जावत चैदे पण भावा सिद्ध हवंति फुड ॥41|| केवलज्ञाने दर्शनमनन्तवीर्य च झायिकसम्यक्त्वं च ।
जीवत्वं चैते पंच मावा सिद्धे भवन्ति स्फुट ।। अन्वयार्थ - (सिद्धे) सिद्धों में (फुड) निश्चय से (केवलणाणं) केवलज्ञान (दसणमणतविरियं) केवलदर्शन अनन्तवीर्य रखइयसम्म) क्षायिक सम्यक्त्व (च) और (जीवत्त) जीवत्व (एदे) ये (पण) पाँच (भावा) भाव (हवंति) होते हैं।
चदुतिगदुगछत्तीसं तिसु इगितीसं च अडड पणवीसं । दुगइगिवीसं वीसं चउद्दस तेरस भावा हु ॥42।। चतुस्त्रिकविकषत्रिंशत् त्रिषु एकत्रिंशच्च अष्टाष्टपंचविशति द्विकैकविंशतिः विंशतिः चतुर्दश त्रयोदश भावा हि || अन्वयार्थ - मिथ्यात्व आदि गुणस्थानों में क्रमशः (चदुदुगतिशछत्तीस) चौतीस भाव, बत्तीस भाव, तेतीस भाव, छत्तीस भाव (तिसु)
और तीन गुणस्थानों में ५, ६३७वेंगुणस्थान में (इगितीसं) इकतीसइकतीस भाव, (अडड पणवीस) अट्ठाइस-अट्टाइस, पच्चीस भाव (दुगइगिवीसं) वाईस भाव, इक्कीस भाव (बीसं) बीस भाव (चउद्दस) चौदह भाव (च) और (तेरस भावा छु) तेरह भाव होते हैं।
भावार्थ - प्रथम गुणस्थान में चौतीस भाव होते हैं, दूसरे सासादन गुणस्थान में बत्तीस, तीसरे में तेतीस. चौथे गुणस्थान में छत्तीस, पाँचवें, छठवें, सातवें गुणस्थानों में इकतीस इकतीस, अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में अठाईस नवमें के सवेदभाग में अट्ठाईस, अवेदभाग में पच्चीस, दसवें में बाबीस, ग्यारहवें में इक्कीस, बारहवें में बीस, तेरहवें में चौदह और चौदहवें गुणस्थान में तेरह भाव होते हैं।
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विशेष - गाथा में प्रथम चरण 'चदुतिगदुगछत्तीसं तिसु' इसमें तिग के स्थान पर दुग और दुग के स्थान तिग पाठ कर दिया है - कर्मकाण्ड ग्रन्थ के आधार पर। उणइगिवीसं वीस सत्तरसं तिसु य होति वावीसं | पणपण अठ्ठावीसं इगदुगतिगणवयतीसतालसमभावा ।143॥ एकान्नैकविंशतिः विंशतिः सप्तदश त्रिषु च भवन्ति द्वा विंशतिः । पंचपंचाष्टाविंशतिः एकद्विकत्रिकनवकत्रिंशच्चत्वारिंशद्भावाः ॥
अन्वयार्थ - मिथ्यात्वादि चार गुणस्थानों में क्रमशः (उणइगिवीसं) उन्नीस भाव इक्कीस भाव (वीस) वीस भाव (सत्तरसं) सत्तरह भाव (तिसु) तथा तीन गुणस्थानों में अर्थात् ५३, ६वें और ७वें गुणस्थान में (वाबीस) वाईस वाईस , (पणपणअठ्ठावीस) पच्चीस भाव, पच्चीस, अट्ठाईस (इग दुगतिगनणवयतीस) इकतीस , उनतालीस और (तालसमभावा) चालीस भाव क्रमशः अभाव रूप होते हैं।
भावार्थ - प्रथम गुणस्थान में उन्नीस भावों का अभाव, दूसरे गुणस्थान में इकतीस नीसरे में बीस नौशे में सपना, पाँचवें, छलने सातवें में बाईसबाईस, आठवें गुणस्थान में एवं नवमें गुणस्थान के सवेदभाग में पच्चीस. पच्चम, नवमें गुणस्थान के अवेदभाग में अट्ठाईस, दसवें में इकतीस, म्यारहवें में बत्तीस, बारहवें में तेतीस, तेरहवें में उनतालीस और चौदहवें गुणस्थान में चालीस भाव अभावरूप होते हैं।
गुणस्थानत्रिभङ्गीसमासा
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अभाव
संदृष्टि नं. 1 गुणस्थान भाव न्युच्छित्ति भाव मिथ्यात्य 2 (मिथ्यात्व | 34 [चक्षु दर्शन, 19 [औपशमिक, अभव्यत्व) अच दर्शन, कुमति, सम्यक्त्व, औपशमिक,
कुश्रुत,कुअवधि ज्ञान चारित्र, क्षायिक पांच क्षाग्योपशामक पांच लब्धि - क्षान, लाभ, लब्धि, (दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, भोग, उपभोग, वीर्य) | केवलज्ञान, चार गति ,मनुष्यगति,
केवलवर्शन,क्षायिक तिर्यच गति, देव गति, सम्यक्त्व, क्षायिक नरक गति) (कृष्ण, चारित्र, मतिज्ञान, श्रुत नील, कापोत, पीत, . ज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पन, शुक्ल लेश्या, पर्यय ज्ञान,अवधिदर्शन, स्वी लिंग, पुल्लिंग, । | 'झायोपशमिक नपुंसक लिंग) धार सम्यक्त्य, सराग कषाय (क्रोध, मान, चारित्र, संयमासंयम] माया, लोभ) अज्ञान असिद्धत्व,असंयम, मिथ्यात्व, पारिणामिक भाव 3 (जीवत्व,
भध्यत्व, अभव्यत्व)] सासादन (कुमति, |32 ( चक्षुदर्शन, [औपशमिक,
कुश्रुत, अचक्षुदर्शन, कुमति, सम्यकत्व, औपशमिक कुअवधि, | कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान | चारित्र, क्षायिक पांच ज्ञान) क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, केवलज्ञान, केवल
लम्धि, चार गति , दर्शन, शायिक सम्यक्त्व, लेश्या 6, तीन लिंग, सायिक चारिख, मति, चार कषाय, अज्ञान श्रुत, अवधि, मनः पर्यय असिद्धत्व, असंयम, ज्ञान, अवधि-दर्शन, जीवत्व, भव्यत्व शायोपशमिक
सम्यक्त्व,सराग चारित्र, संयमासयम,मिथ्यात्व, अमव्यत्व]
(22)
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गुणस्थान भाव व्युच्छिांत भाव
अभाव 3. मित्र
(33) [चक्षुदर्शन, औपशमिक अचादर्शन,
सम्यक्स्य, औपशमिक अवधिदर्शन, चारित्र, क्षायिक पाँच क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, केवल ज्ञान,केवल लब्धि, चार गति, | दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, लेश्या 6, तीन लिम, क्षायिक चारित्र, मति श्रुत चार कषाय, अज्ञान अवधि मनः पर्यय ज्ञान, असिद्धत्व असंयम झायोपशमिक सम्यक्त्व जीवत्व, भव्यत्व, मति-|सराम चारित्र, कुमति श्रुत -कुश्रुत, |संयमसियम मिथ्यात्व अवधि कुअवधि मिश्र अभव्यत्व + कुज्ञान - तीन ज्ञान] मिश्रज्ञान 3]
4. अविरत
[मरक गति, 360 औपशमिक [औपशमिक चारित्र, देवगति,
सम्यक्त्व, क्षायिक क्षायिक पांच लब्धि, कृष्ण, नील | सम्यक्त्व,मति श्रुत, के वलज्ञान, केवलदर्शन, कापोत अवधिज्ञान चक्षुदर्शन, क्षायिक चारित्र लेश्यायें, अचक्षुदर्शन, मनः पर्यय ज्ञान, कुमति असंयम अवधिदर्शन, शायोप कु श्रुत,कुअवधि ज्ञान
शमिक पाँच लब्धि, |सराग चारित्र, क्षायोपशमिक संयमासंयम, मिथ्यात्व, सम्यक्त्य, चार गति, अभव्यत्व] लेश्या 6, तीन लिंग, चार कषाय,अज्ञान, असिदत्व असंयम जीवत्व, भव्यत्व]
(23)
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5.
गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव । अभाव
[औपशमिक 22 [औपशमिक चारित्र देशविरत संयमासयम, |सम्यक्त्व, क्षायिक |क्षायिक पाँच लब्धि, तिर्यञ्च गति] सम्यक्त्व, मति, श्रुत, | केवलज्ञान, केवलदर्शन,
अवधि ज्ञान, चक्षुदर्शन झायिक चारित्र, मनः अचक्षुदर्शन, अवधि पर्यय ज्ञान, कुमति, दर्शन, क्षायोपशमिक कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान, पाँच लब्धि,
सराग चारित्र, नरक गति, |क्षायोपशमिक देव गति, कृष्ण, नील सम्यक्त्व, संयमासंयम | कापोत लेश्या, असंयम, मनुष्य मति,तिर्यञ्च | मिथ्यात्व, अभव्यत्व] गा। पासपद शुक्ल लेश्या,तीन लिंग, चार कषाय, अज्ञान, असिवत्व, जीवत्व, मव्यत्व]
6. प्रमत्त संयत
or
(31) [औपशमिक 22 [औपशमिक चारित्र सम्यक्त्व, क्षायिक क्षायिक पाँच लन्धि सम्यक्त्व, मति श्रुत, | केवलज्ञान, केवल दर्शन, अवधि, मनः पर्यय क्षायिक चारिष कुमति, शान, चक्षु दर्शन, कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान, अचक्षुदर्शन, अवधि संयमासंयम, तिर्यश्रगति दर्शन, क्षायोपशमिक नरकगति, देवगति, पाँच लन्धि,
कृष्ण, नील, कापोत क्षायोपशमिक लेश्या, असंयम, सम्यक्त्व, सराग | मिथ्यात्व, अभव्यत्व] चारित्र मनुष्यगति, पीत, पद्म, शुक्ल लेश्या, तीन लिंग, चार कषाय, अज्ञान, असिन्दत्व जीवत्व भव्यत्व
(24)
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गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति
( 3 ) [ पीत पद्म
7.
अप्रमत्त लेश्या,
संयत
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ]
1. अपूर्व- (0)
करण
भाव
( 31 ) [ औपशमिक सम्यक्त्व क्षायिकसम्यक्त्व मति,
श्रुत, अवधि, मन:पर्यय जार, क्षुदर्शन अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन,
क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, क्षायोपशमिक,
सम्यक्त्व, सराम चारित्र, मनुष्यगति, पीत, पद्म शुक्ल लेश्या, 3 लिंग, चार
कषाय, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व]
(28) औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय
ज्ञान, चक्षु, अचक्षु, अवधि दर्शन, क्षायोपशमिक पाँच
लब्धि, सराग चारित्र,
मनुष्य गति, शुक्ल
लेश्या, तीन लिंग,
चार कषाय, अज्ञान, असिद्धत्व जीवत्व,
भव्यत्व]
(25)
अभाव
(22)
(औपशमिक
चारित्र, क्षायिक पाँच लब्धि के वलज्ञान,
केवलदर्शन क्षायिक चरित्र, कुकुश्रुत कुअवधि ज्ञान
संयमासंयम, तिर्यञ्च गति नरक गति, देव गति, कृ
ष्ण, नील, कापोत लेश्या, असंयम मिथ्यात्व, अभव्यत्व ]
(25) (औपशमिक चारित्र क्षायिक पाँच लब्धि, केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक चारित्र, कुमति, कुश्रुत, कु अवधिज्ञान, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व संयमासंयम, तिर्यश्च, नरक, देवगति, कृष्ण नील, कापोत पीत, पद्म लेश्या, असंयम मिध्यात्व, (अभव्यत्व)
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मुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव
अभाव १. | (७) [पुल्लिंग, | (28)[औपशमिक (25) (औपशमिक चारित्र, अनिवृत्ति-सीलिंग, सम्यक्त्व, क्षायिक पाँच क्षायिक लब्धि करण नपुंसकलिंग] शाका, मति माता केपलदान सवेद
अवधि, मनःपर्यय ज्ञान |सायिक चारित्र, कुमति चा, अचा, अवधि कुश्रुत, कुअवधि लान, दर्शन, क्षायोपशमिक मायोपशभिक सम्यक्त्व पाँच लब्धि, सराग संयमासंयम, तिर्यम्च, चारित्र, मनुष्यगति, नरक, देव गति, कृष्ण, शुक्ल लेश्या, तीन नील, कापोत, पीत, पद्म लिंग, चार कवाय, लेश्या असंयम, मिथ्यात्व अज्ञान असिद्धत्व, अभव्यत्व) जीवत्व, भव्यत्व
9. 3) अनिवृत्ति-(कोष, मान, करण माया कषाय) अवेद
125) [औपशमिक |(1) [ौपशमिक चारित्र सम्यक्त्व, क्षायिक
| पाँच शायिक लन्थि, सम्यक्त्व, मति, श्रुत,
| केवल ज्ञान, केवलदर्शन, अवधि, मनःपर्यय ज्ञान
सायिक चारित्र, कुमति चल, अचा, अवधि
| कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान दर्शन झायोपशमिक
सायोपशमिक सम्यक्त्व, पांच लब्धि, सराग
संघमासंयम, तियश्च, | चारित्र, मनुष्यगति
नरक, देव गति कृष्ण, | शुक्ल लेश्या, चार
नील, कापोत, पीत, पद्म कवाय, अज्ञान,
लेश्या, तीन लिंग, असियत्व, जीवत्व,
असंयम मिथ्यात्व, भव्यत्व)
अभव्यत्व
(26)
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गुणस्थान भाव व्युच्छिति
10 सूक्ष्म (2) [ सराग सांपराय चारित्र, लोभ कषाय ]
1.
उपशांत
मोह
(2) औपशमिक
सम्यक्त्व, औपशमिक
चारित्र)
भाव
(22) (औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक
सम्यक्त्व, मति, श्रुत अवधि, मनःपर्यय ज्ञान
चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शन, क्षायोपशमिक पाँच
लब्धि, सराग चारित्र मनुष्यगति, शुक्ल
लेश्या, लोभ कषाय, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व]
(21) (औपशमिक सम्यक्त्व, औपशमिक चारित्र, क्षायिक
सम्यक्त्व, मति, श्रुत
अवधि, मनः पर्यय
ज्ञान, चक्षु, अचक्षु
अवधि दर्शन,
क्षायोपशमिक पाँच
लब्धि, मनुष्य गति, शुक्ल लेश्या, अज्ञान असिद्धत्व, जीवत्व भव्यत्व)
(27)
अभाव
|(31) [ औपशमिक janika, unita, v लब्धि, केवलज्ञान के बल दर्शन, क्षायिक चारित्र, कुमति, कुश्रुत, बु अवधि ज्ञान, क्षायोपशमिक सम्यकत्व, संयमासंयम, तिर्यञ्च, नरक, देव गति कृष्ण, नील कापोत, पीत, पद्म लेश्या तीन लिंग, क्रोध, मान, माया कषाय, असंयम
मिथ्यात्व, अभव्यत्व]
(32) { क्षायिक पांच लब्धि, केवलज्ञान के वल दर्शन, क्षायिक चारित्र, कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, सराग चारित्र, संयमासंयम, तिर्यच,
नरक, देव गति, कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म लेश्या, तीन लिंग चार
कषाय, असंयम मिध्यात्व, अभव्यत्व }
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भाव
मुणस्थान भाव व्युच्छिति
अभाव 12. क्षीण (1) [चार (20) {क्षायिक | (33) (औपशमिक मोह ज्ञान, तीन सम्यक्त्व, सायिक | सम्यक्त्व, औपशमिक
दर्शन, चारिख, मति, श्रुत, |चारित्र, क्षायिक पाँच झायोपशमिक, अवधि, मनः पर्यय ज्ञान लब्धि, केवलज्ञान, पांच लब्धि, चक्षु, अचक्षु, अवधि । | केवलदर्शन, कुमति, अज्ञान] दर्शन, क्षायोपशमिक |कुशुत, कुअवधि ज्ञान,
पाँच लन्धि, |क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, मनुष्यगति, |सराग चारित्र, संयमाशुक्ललेश्या, अज्ञान संयम, तिर्यञ्च, नरक, असिद्धत्व, जीवत्व, | देव गति, कृष्ण, नील, भव्यत्व
कापोत, पीत, पद्म लेश्या, तीन लिंग, चार | कपाय, असंयम मिथ्यात्व, अभव्यत्व)
13. सयोम (1) |(14) {क्षायिक | (39) {औपशमिक केवली शुक्ल लेश्या सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, औपशमिक
चारित्र, शायिक पाँच चारित्र, मति आदि चार लब्धि, केवलज्ञान, | शान, तीन दर्शन,
। केवलदर्शन, मनुष्य ]क्षायोपशमिक पाँच मति, असिद्धत्व, शुक्ल | लब्धि, तीनकुजान, लेश्या,लीवत्व, मध्यत्व झायोपशमिक सम्यक्त्व,
सराग चारित्र, संयमासंयम, तिर्यम्च, नरक, देव गति कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म लेश्या, तीन लिम, चार कषाय, अज्ञान, मिथ्यात्व, | असंयम, अभव्यत्व
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गुणस्थान भाव न्युच्छिति प्राव 14.अयोग (8) (13) रक्षायिक के बली शायिक पाँच लन्धि,
दानादि, चार सायिक सम्यक्त्व, लब्धि, क्षायिक केवलज्ञान, चारित्र, मनुष्य के वलदर्शन,मनुष्य
महि, गसिदत्व, असिद्धत्व, जीवत्व, मव्यत्व) भव्यत्य)
। अभाव (40) {औपशमिक सम्यक्त्व औपशमिक चारित्र, मति आदि चार ज्ञान, कुजान, तीन दर्शन क्षायोपशमिक पांच लब्धि, झायोपशमिक सम्यक्त्व, सराम चारित्र, संयमासंयम, लेश्या 6, तीन लिंग, चार कपाय, गति, मिथ्यात्व, असयम अज्ञान, अमव्यत्व)
सुयमुणिविणमियचलणं अर्णतसंसारजलहिमुत्तिण्है । णमिऊण बड्डमाणं भावे वोच्छामि वित्थारे ||44|| श्रुतमुनिविनतचरणं अनन्तसंसारजलधिमुत्तीर्ण ।
नत्वा वर्धमान भावान् वक्ष्यामि विस्तारे ।। अन्वयार्थ - (अणंतसंसारजलहिंमुत्तिण्ह) अनन्त संसार रूपी समुद्र को पार कर लिया है ऐसे (वहुमाण) वर्धमान स्वामी के (चलण) चरणों को (सुयमुणिविणमिय) मैं श्रुतमुनि नम्रतापूर्वक (णमिऊण) नमस्कार करके (वित्यारे) विस्तार से (भावो) भावों को (वोच्छामि) कहूँगा।
भावार्थ - श्री श्रुतमुनि ने ग्रन्थ के मध्य में मङ्गलाचरण करके वर्धमान स्वामी को नमस्कार करके आगे गति आदि 14 मार्गणाओं में भावों को कहूँगा इस प्रकार प्रतिज्ञावचन इस गाथा में प्रस्तुत किया है। विशेष -पूर्व कालीन आचार्यों ने जो शास्त्रों के आदि में मङ्गलाचरण का उल्लेख किया है। उस मङ्गलाचरण को नियम से शास्त्रों के आदि, मध्य
और अन्त में करना चाहिए। शास्त्र के आदि में मङ्गल के पढ़ने पर शिष्य लोगशास्त्र के पारगामी होते हैं, मध्य में मङ्गल के करने पर निर्विघ्न विद्या की प्राप्ति होती है और अन्त में मङ्गल के करने पर विद्या का फल प्राप्त होता है।
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आदिमणिरए भोगजतिरिए मणुवेसु सग्गदेवेसु | वेदगखाइयसम्म पज्जत्तापज्जत्तगाणमेव हवे ||45|| आदिमनरके भोगजतिरश्चि मनुजेषु स्वर्गदेवेषु । वेदकक्षायिकसम्यक्त्वं पर्याप्तापर्यासकानामेव भवेत् || अन्वयार्थ (आदिमणिरए) प्रथम नरक में (भोगजतिरिए मणुवेसु) भोगभूमि के तिर्यञ्च व मनुष्यों के (सग्गदेवेसु) स्वर्ग के देवों के अर्थात् सौधर्मादि स्वर्ग के देवों में (पज्जत्तापज्जत्तगाणमेव ) पर्याप्त, अपर्याप्त अवस्था में (वेदगखाइयसम्मं ) वेदक और क्षायिक सम्यक्त्व (हवे ) होता है ।
भावार्थ- मोहनीय कर्म की 28 प्रकृतियों में से मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक् प्रकृति एवं अनन्तानुबन्धी क्रोधादि चार इन सात प्रकृतियों के क्षय से जो सम्यग्दर्शन होता है उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं तथा इन्हीं सात प्रकृतियों के क्षायोपशम से जो सम्यग्दर्शन होता है उसे क्षायोपशम सम्यग्दर्शन कहते हैं। ये दोनों सम्यग्दर्शन प्रथम नरक के नारकियों के भोग
भूमिज तिर्यंच, मनुष्यों के तथा सौधर्मादि स्वर्ग के देवों के पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों अवस्थाओं में पाये जाते हैं विशेषता यह है कि प्रथम नरक में
-
भोग भूमिज तिर्यंच एवं मनुष्यों के जो वेदक सम्यग्दर्शन कहा गया है उससे कृतकृत्य वेदक सम्यग्दर्शन समझना चाहिए। यह कृतकृत्यवेदक सम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक पाया है ।
पढ मुदमसम्मत्तं पज्जते होदि चादुगदिगाणं । विदिउवसभसम्मत्तं णरपज्जते सुरअपज्जत्ते |1461
प्रथमोपशमसम्यक्त्त्वं पर्याप्ते भवति चातुर्गतिकानां । द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं नरपर्याप्ते सुरापर्याप्ते ||
अन्वयार्थ ( पढ मुवसमसम्मत्तं ) प्रथमोपशम सम्यक्त्व (चादुर्गादिगाणं) चारों गतियों के जीवों की (पज्जते) पर्याप्त अवस्था में ही होता है । (विदिउवसमसम्मत्तं) द्वितीयोपशम सम्यक्त्व ( णरपज्जते) मनुष्यों के पर्याप्त अवस्था में (सुरअपज्जते ) एवं देवों की अपर्याप्त अवस्था में (होदि) होता है ।
·
(30)
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भावार्थ -अनन्तानुबन्धीचार और दर्शनमोहनीय कर्म की तीन प्रकृतियों के उपशमसे जो सम्यग्दर्शन होता है वह औपशमिक सम्यग्दर्शन कहलाता है। इस सम्यग्दर्शन के दो भेदों का कयन अर्थात् प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन और द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन का प्राप्त होता है | उसमें प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने वाला जीव पञ्चेन्द्रिय. संजी, मिथ्यादृष्टि, गर्भज, पर्याप्त और सर्व विशुद्ध जानना चाहिए।
यह सम्यग्दर्शन चारों गतियों के जीवों के पर्याप्त अवस्था में होता है तथा चतुर्थ गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक पाया जाता है। तथा उपशम श्रेणी चढ़ते समय क्षयोपशम सम्यग्दर्शन से जो उपशम सम्यक्त्व होता है उसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं । द्वितीयोपशम सम्यक्त्व पर्याप्त मनुष्यव निर्वृत्यपर्याप्त वैमानिक देवों में ही होता है। द्वितीयोपशमसम्यक्त्व असयतादि से उपशान्तकषाय गुणस्थान पर्यन्त पाया जाता है । अप्रमत्त गुणस्थान में उत्पन्न करके, ऊपर उपशान्तकषाय गुणस्थान तक जाकर फिर नीचे उतरते हुए असंयत गुणस्थान तक भी सम्भव है। जिनजीवों के श्रेणी के उतरते समय मरण हो जाता है ऐसे जीवों के ही देव गति की निर्वत्यपर्याप्त अवस्था में द्वितीयोपशम सम्यक्त्व सम्भव है। तथा निर्वृत्य पर्याप्त अवस्था के पूर्ण होते ही द्वितीयोपशम का सदभाव पर्याप्त अवस्या में नहीं पाया जाता है।
सक्करपहुदीणरये बणजोइसमवणदेवदेवीणं । सेसत्थीण पज्जत्तेसुवसम्म वेदगं होइ ॥4711
शर्कराप्रभृतिनरके वाणज्योतिष्क भवनदेवदेवीना।
शेषस्त्रीणां पर्याप्तेषु उपशमं वेदकं भवति । अन्वयार्थ - (सक्करपहुदीणरये) शर्करा आदि पृथ्वी के नारकियों में अर्थात् दूसरी पृथ्वी से सातवीं पृथ्वी के नरक के नारकियों के तथा (वणजोइसभवणदेवदेवीण) व्यंतर, ज्योतिष्क वासी और भवनवासी देव देवियों के और (सेसत्यीण) शेष सभी स्त्रियों के (पज्जत्तेसुवसम्म) पर्याप्त अवस्था में ही उपशम सम्यक्त्व तया (वेदर्ग) वेदक सम्यक्त्व (होह) होता है।
(31)
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भावार्थ - दूसरी पृथ्वी से सातवीं पृथ्वी तक भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्कवासी वेव देवियों तथा शेष स्त्रियों के अर्थात् कल्पवासी देवियों, मनुष्यनियों तिर्यचनियों के पर्याप्त अवस्था में ही उपशम तथा वेदक सम्यक्त्व होता है । अपर्याप्त अवस्था में नहीं, क्योंकि इन स्थानों में कोई भी जीव सम्यक्त्व सहित उत्पन्न नहीं होता है तथा भवनत्रिक, देवदेवी, कल्पवासी देवियों में उत्पन्न होने वाला जीव पूर्व पर्याय में सम्यक्त्व के साथ मरण नहीं करता है।
कम्मभूमिजतिरिक्खे वेदगसम्मत्तमुवसमं च हवे | सब्वेसि सपणीणं अपजते णत्थि वेभंगो ||48।। कर्मभूमिजतिरश्चि वेदकसम्यक्त्यमुपशमं च भवेत् ।
सर्वेषां संज्ञिना अपर्यासे नास्ति विमंगः ।। अन्वयार्थ - (कम्मभूमिजतिरिक्खे) कर्म भूमिज तिर्यञ्चों के (वेदगसम्मत्तमुवसमंच) वेदक सम्यक्त्व और उपशम सम्यक्त्व(हये) होताहै! (सन्वेसिपी सणालीम) माली जीलोहे (जत्ते) अपर्याप्त अवस्था में (वेभंगो) विभंगावधि ज्ञान (णत्यि) नहीं होता है।
भावार्य - कर्मभूमिज तिर्यचों के पर्याप्त अवस्था में ही सम्यक्त्व होता है अपर्याप्त अवस्था में कोई भी सम्यक्त्व नहीं होता है पर्याप्त अवस्था में वेदक तथा प्रथमोपशम सम्यक्त्व ही होता है अन्य नहीं। संज्ञी जीवों के अपर्याप्त अवस्था में विभंगावधि ज्ञान नहीं होता है क्योंकि विभंगावधि. ज्ञान पर्याप्त अवस्था में ही होता है।
णिरये इयरगदी सुहलेसतिथीपुंसरागदेसजम । मणपज्जवसमचरियखाइयसम्मूणखाइयाणहवे ||49|| नरके इतरगतयः शुभलेश्यात्रयस्त्रीपुंससरागदेशयम । मनःपर्ययशमचारित्रं क्षायिकसम्यक्त्वोनक्षायिका न भवन्ति ॥ अन्वयार्थ -(णिरये) नरक गति में (इयरगदी) नरकगति को छोड़कर अन्य तीन गति (सुहलेसति) तीन शुभ लेश्या अर्थात् पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या (थी) स्त्री वेद (पुं) पुरुष वेद (सराग) सराग चारित्र (देसजम) देशसंयम (मणपज्जवसमचरिय) मनः पर्यय ज्ञान उपशम
(32)
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चारित्र (खाइयसम्मणखाइया) क्षायिक सम्यक्त्व को छोड़कर शेष क्षायिक भाव (ण हवे) नहीं होते है।
भावार्थ - नरक गति में तिर्यञ्च गति, मनुष्यगति, देवगति. तीन शुभ लेश्या, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, सराग चारित्र, देश संयम, मनःपर्ययज्ञान, उपशम चारित्र, क्षायिक चारित्र, क्षायिक दानादिपाँच लब्धियों, केवलज्ञान और केवल दर्शन ये बीस भाव नहीं होते हैं। शेष तेतीस भाव होते हैं वे तेतीस भाव इस प्रकार हैं - उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, कुज्ञान 3, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायोपशम लब्धि 5, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, नरकगति, क्रोधादि कषाय 4, नपुंसकवेद, अशुभ लेश्या 3, मिथ्यादर्शन, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिवारिक भाः। पढ़मदुगे कावोदा तदिए कावोदनील तुरिय अइनीला। पंचमणिरये नीला किण्णा य सेसमें किण्हा ||5011
प्रथमद्रिके कापोता तृतीये कापोतनीले तुर्येऽतिनीला।
पंचमनरके नीला कृष्णा च शेषके कृष्णा || अन्वयार्थ - (पढ मदुगे)प्रथम और दूसरे नरक में (कावोदा) कापोत लेश्या (तदिए) तीसरे नरक में (कावोदनील) कापोत और नील लेश्या (तुरिय) चौथे नरक में (अइनीला) उत्कृष्ट नील लेश्या (पंचमणिरये) पाँचवें नरक में (नीला किण्णा) नील कृष्ण लेश्या (य) और (सेसगे) शेष नरकों में अर्थात् छठवें सातवें नरक में किण्हा) कृष्ण लेश्या होती
है।
भावार्थ -पहली पृथ्वी में कापोत लेश्या का जघन्य अंश, दूसरी पृथ्वी में कापोत कामध्यम अंश, तीसरी पृथ्वी में कापोत का उत्कृष्ट अंश और नीललेश्या का जघन्य अंश, चौथी में नील का मध्यम अंश, पाँचवीं में नील काउत्कृष्ट अंश एवं कृष्णलेश्या काजघन्य अंश, छठी में कृष्णलेश्या का मध्यम अंश एवं सातवीं में कृष्ण लेश्या का उत्कृष्ट अंश पाया जाता
है।
इसमें विशेषता यह है कि उत्कृष्ट नील लेश्या पंचम नरक में ही होती है चौथे नरक में मध्यम नील लेश्या होती है किन्तु चौथी पृथ्वी में जो अति
(33)
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नील शब्द का प्रयोग हुशा है। यह नियाय सास होता है कि चौथी पृथ्वी में तीसरी पृथ्वी की अपेक्षा अधिक संक्लेश रूप परिणाम होते हैं - इस अपेक्षा से आचार्य महाराज ने यहाँ पर "अति नील" शब्द प्रयोग किया है। अन्यथा अन्य आचार्यों प्रणीत ग्रन्थों से मत-भिन्न होने की संभावना उत्पन्न होती है।
विदियादिसु छसु पुढ विसु एवं णवरि असंजदट्ठाणे। खाइयसम्म पत्थि हु सेसं जाणाहि पुन्वं व ||5110 द्वितीयादिषु षट्सु पृथिवीषु एवं घावरि असंयतस्थाने ।
क्षायिकसम्यक्त्वं नास्ति हि शेष जानीहि पूर्ववत् || अन्वयार्थ - (एव) इस प्रकार (विदियादिसु) दूसरी आदि (छसु) छह पुढ विसु)पृथ्वियों में (णवरि) विशेषता यह है कि (असंजदठाणे) असंयत गुणस्थान में (खाइयसम्म) क्षायिक सम्यक्त्व (णत्थि) नहीं होता है। (सेस) शेष कथन (पुव्वं व जाणाहि) पूर्ववत् अर्थात् प्रथम नरक के समान जानना चाहिए।
भावार्थ - दूसरी पृथ्वी से सातवीं पृथ्वी तक के नारकियों के असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता क्योंकि जिसने पूर्व में नरक आयु का बंध कर लिया ऐसे बद्धायुष्यक जीव का क्षायिक सम्यक्त्व होने पर प्रथम नरक से आगे जन्म नहीं होता है अतः क्षायिक सम्यक्त्व का सद्भाव दूसरी पृथ्वी से सातवीं पृथ्वी तक संभव नहीं है। दूसरीसे सातवी पृथ्वी तक पर्याप्त अवस्था में उपशम एवं वेदक सम्यक्त्व हो सकता है।
सामण्णणारयाणमपुणार्ण घम्मणारयाण च । वेभंगुवसमसम्मण हि सेसअपुण्णगे दुपढमगुण ॥52|| सामान्यनारकाणामपूर्णानां घम्मानारकाणां च ।
वेभंगोपशमसम्यक्त्वं न हि शेषापूर्णकं तु प्रथमगुणस्थानं । अन्वयार्थ - (सामण्णणारयाणमपुणाण) सामान्य से नारकियों के अपर्याप्त अवस्था में (च) तथा (घम्मणारयाण) प्रथम नरक के नारकियों के अपर्याप्त अवस्था में (वेभंगुवसमसम्म) विभगावधि और उपशम सम्यक्त्व (ण हि) नहीं होता है (सेसअपुण्णगे) शेष अर्थात् दूसरी आदि
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पृथ्वी के नारकियों की अपर्याप्त अवस्था में ( पढ मगुण) प्रथम गुणस्थान ही होता है ।
भावार्थ- सभी नारकियों के अपर्याप्त अवस्था में विभंगावधि ज्ञान एवं उपशम सम्यक्त्व नहीं होता है । प्रथम नरक के नारकियों की अपर्याप्त अवस्था में पहला और चौथा ये दो गुणस्थान तथा शेष दूसरी आदि सभी पृथ्वियों में अपर्याप्त अवस्था में पहला मिध्यात्व गुणस्थान ही होता है। इति नरक-रचना
संदृष्टि नं. 2
सामान्य नरक रचना [33 भाव}
.
नरक गति में पर्याप्त अवस्था में 33 भाव होते हैं। जो इस प्रकार हैं उपशम सम्यक्त्व, शायिक सम्यक्त्व, कुशान 3, ज्ञान 3, दर्शन 3 क्षायोपशमिक लब्धि 5, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, नरकगति, कषाय 4, नपुंसक लिंग, अशुभ लेश्या 3, मिथ्यात्व असंयम अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 । गुणस्थान आदि के चार होते हैं गुणस्थानों में भाव आदि का कथन इस प्रकार है -
गुणस्थान भाव व्युच्छिति
भाव
अभाव
I.
(2)
मिथ्यात्व {मिध्यात्व अभव्यत्व }
[26] [ चशुदर्शन,
अचक्षु दर्शन, कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान,
क्षायोपशमिक पाँच
लब्धि, नरक गति, कृष्ण, नील, कापोत
लेश्या, नपुंसक लिंग
अज्ञान, असिद्धत्व,
मिथ्यात्व असंयम,
चार कषाय, जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व }
(35)
(7) {औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्य, मति, श्रुत अवधि ज्ञान, क्षयोपशमिक
सम्यक्त्व, अवधि दर्शन }
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कुअवधि ज्ञान क्षायोपशमिक पाँच
गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति
अभाव (24) (चक्षु, अचक्षु, औपशमिक सासादनकुमति, दर्शन, कुमति, कुश्रुत, सम्यक्त्व, शायिक कु श्रुत, कुअवधि ज्ञान,
सम्यक्त्व, मति, श्रुत
अवधि ज्ञान, क्षयोपशम लब्धि, नरकगति,
सम्यक्त्व, अवधि दर्शन, कृष्ण, नील, कापोत लेश्या, नपुंसक लिंग
| मिथ्यात्व, अभव्यत्व) अज्ञान, असिद्धत्व असंयम, चार कषाय,
जीवत्व, भव्यत्व) 3. मिन 0
(25) (चक्षु अचातु 18) {औपशमिक अवधि दर्शन, सम्यक्त्व, क्षायिक क्षायोपशमिक पांच
सम्यक्त्व, मति, श्रुत लब्धि , नरक गति,
अवधि ज्ञान, पायोपशमिक कृष्ण, नील, कापोत
सम्यक्त्त्व, मिथ्यात्व, लेश्या, नपुंसक लिंग,
पात्र कुमार । . अज्ञान, ऑसद्धत्व असंयम, चार कषाय,
|मिश्रज्ञान जीवत्व, मन्यत्व, मतिकुमति,श्रुत-कुश्रुत, अवधि-कुअवधि) तीन
मिश्र ज्ञान 4.अविरत (5} {28} {औपशमिक 15) {कुमति, कुश्रुत | इनरकगति, सम्यक्त्व, क्षायिक
कुअवधि शान, मिथ्यात्व, कृष्ण, नील, सम्यक्त्व,
अमञ्चन क्षायोपशमिक कापोत लेश्या
सम्यक्त्य, मति, श्रुत असंयम } अवधि ज्ञान, चक्ष,
अचक्षु, अवधि वर्शन, क्षायोपशमिक पॉच लब्धि, नरकगति, कृष्ण, नील, कपोत लेश्या, नपुंसक लिंग, अज्ञान, असिखत्व असंयम, चार कषाय, जीवत्व, भव्यत्व
(36)
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1.
संदृष्टि नं.3 सामान्यनरक अपर्याप्त भाव {31} मरक गति में अपर्याप्त अवस्था में 31 माव होते हैं जो इस प्रकार है . झायिक सम्यक्त्य, कुशान2, जाना, दर्शन , लब्धि 5, वेदक सम्यक्त्व, नरकगति, कषाय 4, नपुंसक लिग, अशुभ लेश्या 3, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 31 मिथ्यात्व और असंयत ये गुणस्पान दो होते हैं। भाव आदि का कथन नरक मति की पर्याप्त अवस्था बत् जानना चाहिए । विशेषता यह है कि अपर्याप्त अवस्था में विभंगावधि लान न होने से मिथ्यात्व गुणस्यान में 25 भाव होते हैं तथा मिथ्यात्व गुणस्थान में ही कृष्ण नील लेश्या की व्युच्छिति हो जाने
एवं उपशाम सर का ऊनाव जग चौथे रणस्थान में 25 भाव होते हैं। गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव । अभाव
116) इमिथ्यात्व {25{चक्षु अच 116) {क्षायिक मिथ्यात्व अभव्यत्व, दर्शन, कुमति, कुश्त | | सम्यक्त्व,मति, श्रुत
कृष्ण, नील ज्ञान, क्षायोपशमिक अवधि ज्ञान, झयोपशमिक लेश्या,कुमति पांच लन्धि, नरकगति, सम्यक्त्व, अवधिवर्शन} कुश्रुत ज्ञान] कृष्ण, नील कापोत
लेश्या, नपुंसक लिंग, चार कषाय अज्ञान, असिखत्व, मिथ्यात्व, असंयम, जीवत्व भव्यत्व
अभव्यत्व 4. अविरत {3} (नरक [25} {सायिक 6) कुमति कुश्रुत ज्ञान,
गति, कापोत सम्यक्त्व, मति, श्रुत | कृष्ण, नील लेश्या, लेश्या, | अवधि ज्ञान, चक्षु | मिथ्यात्व, अमष्यत्व) असंयम) | अचक्षु, अवधि दर्शन,
क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, क्षायोपशमिक | सम्यक्त्व, नरक गति,
कापोत लेश्या,नपुंसक लिंग, चार कषाय, अज्ञान, असिद्धत्व, असंयम, जीवत्व भव्यत्व
(37)
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संदृष्टि नं.4
घम्मा पृथ्वी {31 भाव} सामान्य नरक में कहे गये भावों में से कृष्ण, नील, लेश्या कम करने पर प्रथम नरक में 3! भाव होते हैं क्योकि यहां कृष्ण, नील, लेश्या का अभाव रहता है । धम्मा पृथ्वी में आदि के चार गुण स्थान ही होते हैं। गुणस्थान भाव व्युच्छिति भाव
जभाव
I. (मिथ्यात्व, | 24} {च कामु. 10 (औपशमिक मिथ्यात्व गमव्यत्व) दर्शन, कुमति, कुत सम्यक्त्व, क्षायिक
कुअवधि शाब, सम्यक्त्व, मति, श्रुत |क्षायोपशमिक पाँच अधिज्ञान, अवधि लन्धि ,
वर्शन,झायोपशमिक नरकगति,कापोत सम्यक्त्व लेश्या, नपुंसक लिंग, ] चार कषाय, अज्ञान
असिद्धत्व, असंयम, |मिध्यात्य, जीवत्व मव्यत्व, अभव्यत्व
2. } {कुमति, (22} {चक्षु, अचलु |19) {औपशमिक सासादन कुश्रुत, दर्शन, कुमति, कुश्रुत, सम्यक्त्व , क्षायिक कुअवधि ज्ञान)| कुअवधि ज्ञान सम्यक्त्व,मति, श्रुत
क्षायोपशमिक पाँच अवधिज्ञान, अवधि लब्धि ,
दर्शन,क्षायोपशमिक नरकगति,कापोत सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, लेश्या, नपुंसक लिंग, | अभव्यत्व) चार कषाय, अज्ञान, असिद्धत्व, असंयम, जीवत्व, भव्यत्य)
(38)
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अभाव
गुणस्थानमाव व्युच्छित्ति भाव . । 3. मित्र
(23) (चल अचक्षु औपशमिक अवधि दर्शन,
सम्यक्त्व, क्षायिक क्षायोपशमिक पाँच सम्यक्त्व, मति, श्रुत नन्धि ,
अवधि ज्ञान, नरकगति,कापोत शायोपशमिक सम्यक्त्व, लेश्या, नपुंसक लिंग, मिथ्यात्व, अभव्यत्व+ चार बाय, असान काम · असा) असिद्धत्व, असंयम, नीयत्व, भव्यत्व, मति कुमति, श्रुत कुश्रुत अवधि कुअवधि तीन मित्र ज्ञान)
4. अविरत {} [नरक 126) औपशमिक कुमति कुश्रुत
गति, कापोत सम्यक्त्व, क्षायिक कुअवधि ज्ञान, मिथ्यात्व लेश्या, सम्यक्त्व, मति, अत अपव्यत्य) असंयम] अवधिज्ञान, चा,
अवक्षु, अवधि दर्शन,शायोपशमिक सम्यक्त्व,झायोपशमिक पाँच लब्धि, नरकगति,कापोत लेश्या, नपुंसक लिंग, चार कषाय, अज्ञान असिदत्व, असंयम, जीवत्व प्रव्यत्व)
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संदृष्टि नं.5 - धम्मा अपर्याप्त (29 भाव) सामान्य नरक रचना में कहे " मावों में से उपशम सम्यक्त्व,कुअवधि ज्ञान,कृष्ण नील लेश्या के अभाव में 29 भाव ही होते हैं। गुणस्थान मिथ्यात्य और अविरत दो ही होते हैं। गुणस्थान भाव व्युछिति भाव
अभाव
[} {मिथ्यात्य |{2} {चा, अचर {क्षायिक सम्यक्त्व, मिथ्यात्व अभव्यत्व, दर्शन, कुमति, कुश्रुत मति, श्रुत अवधि शान, कुमति, कुश्रुत शान, क्षायोपशमिक अवधिदर्शन,
पांच लब्धि, झायोपशमिक सम्यक्त्व नरकगति,कापोत लेश्या, नपुंसक लिंग, चार कषाय, अज्ञान असिद्धत्व, असंयम, मिथ्यात्व, जीवत्व, मव्यत्व, अमष्यत्व
2. अविरत
) नरक गति, कापोत
लेश्या,
असंयम}
25} {क्षायिक (4) {कुमति, कुश्रुत ज्ञान, सम्यक्त्व, मति, श्रुत मिध्यात्व, अमध्यत्व) अवधि शान, चाकु, अचा, अवधि दर्शन,क्षयोपशम सम्यक्त्व, सायोपसमिक पाँच लब्धि , नरकगति,कापोत लेश्या, नपुंसक लिंग, चार कषाय, अज्ञान असिद्धत्व, असंयम, जीवत्व, भव्यत्व
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संदृष्टि नं.6
वंशा पृथ्वी भाव {30} नोट-दूसरी पृथ्वी से सातवीं पृथ्वी तक पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था में क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता है तथा अपर्याप्त अवस्था में पहला गुणस्थान ही होता। वंशा - वंशा पृथ्वी में धम्मा पृथ्वी में कहे गये 31 मावों में से झायिक सम्यक्त्य कारवर :01:ोते
. जोपसमिर सम्यक्त्व, अजान , ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायोपशमिक लब्धि 5, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, नरकगति, कषाय , नपुंसक लिंग, कापोत लेश्या, मिथ्यात्व, असयम, अज्ञान, असिस्त्व, पारिणामिक 3भाव | इस पृथ्वी में केवल झायिक सम्यक्त्व मात्र का अमाव होता है। शेष कथन धम्मा पृथ्वी के समान ही जानना चाहिए। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छिति प्राव । अभाव I. 2} {मिध्यात्व, | 24} {चर अचक्षु 116) {औपशमिक मिथ्यात्व अभव्यत्व दर्शन, कुमति, कुश्रुत, सम्यक्त्व , मति, श्रुत
कुअवधि ज्ञान, अवधि ज्ञान, अवधि क्षायोपशमिक पाच दर्शन,क्षयोपशमिक लम्धि ,
सम्यक्त्व नरकगति,कापोत लेश्या, नपुंसक लिंग, चार कपाय, अज्ञान असिखत्व, असंयम, मिथ्यात्व, जीवत्व भव्यत्व,अभव्यत्व
2. } {कुमति, I{1} {घर अचान 8) {औपशमिक सासादन कुश्रुत, |दर्शन, कुमति, कुश्रुत, सम्यक्त्व, मति, श्रुत कुअवधि लान) कुअवधि शान, अवधि ज्ञान, अवधि
झायोपशमिक पांच दर्शन,क्षयोपशम |लब्धि ,
सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, नरकमति,कापोत अमव्यत्व लेश्या, नपुंसक लिंग, चार कपाय, अज्ञान, असिबत्य, असंयम, जीवत्व, मव्यत्व)
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गुणस्थान भाव व्युटिसि
भाव
अभाव
.. मिश्र
लब्धि ,
{2} {चक्षु अचमु (1) {औषशमिक अवधि दर्शन, सम्यक्त्व , मति, श्रुत क्षायोपशमिक पाँच अवधि ज्ञान,
झायोपशमिक सम्यक्त्व, नरकगति,कापोत | मिथ्यात्व, अमव्यत्व + लेश्या, नपुंसक लिंग, कुज्ञान 3 - 3 मिश्रज्ञान} - चार कषाय, अन्जान असिखत्व, असंयम, जीवत्व, मध्यत्व, मति-कुमति, श्रुत - कुश्रुत अवधिकुअवधि तीन मिश्र ज्ञान)
4. अविरत {1} {नरक |[25(औपशमिक (5) [कुमति, कुश्रुत
गति, कापोत | सम्यक्त्व, मति, श्रुत कुअवधि ज्ञान, मिथ्यात्व लेश्या, | अवधि ज्ञान, चा, अभव्यत्व] असंयम अचक्षु, अवधिदर्शन,
क्षयोपशामिक सम्यक्त्य, क्षायोपशमिक पाँच लन्धि , नरकगति,कापोत लेश्या, नपुंसक लिंग, चार कषाय, अज्ञान असिनत्य, असंयम, जीवत्व, भव्यत्व)
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सदृष्टि नं.7
मेघा पृथ्वी भाव {31} मेघा - मेघा पृथ्वी का कथन वंशा पृथ्वी के ही समान हो जानना चाहिए केवल वंशा पृथ्वी में कथित 30 भावों में यहां नील लेश्या और जोड़ देने पर 3 भाव होते हैं। इस पृथ्वी में आदि के चार गुणस्थानों का सदभाव जानना चाहिए। इनकी संदृष्टि इस प्रकार हैगुणस्थान | भाव व्युच्छित्ति |
अभाव
मिध्यात्व
सासादन
मिश्र
अविरत
संदृष्टि नं.
अंजना पृथ्वी भाव (301 अंजना - अंजना पृथ्वी का 4544 एम्पी के शरूमान जानना चाहिए । वंशा पृथ्वी में ग्रहीत कापोत लेश्याके स्थान पर यहाँ अंजना पृथ्वी में नील लेश्या का ग्रहण करना घिहिए। शेष समस्त भाव प्रणाली वंशा सदृशजानना चाहिए। गुणस्थान आदि के चार जानना चाहिए। संदृष्टि इस प्रकार है . गुणस्थान | भाव व्युच्छित्ति
अभाव
भावं
मिथ्यात्व
सासादन
मिश्र
अविरत
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संदृष्टि नं.9
अरिष्टा भाव{31} अरिष्टा - अरिष्ट । पृथ्वी का कथन वंशा पृथ्वी के ही समान है। केवल यहां पर कापोत लेश्या के स्थान पर नील लेश्या एवं कृष्ण लेश्या ग्रहण करना चाहिए। इसमें ! भाद होते . मस पृथ्वी में आदि के चार गुणस्थानों का सद्भाव जानना चाहिए। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छिति । भाव
अभाव
2
मिथ्यात्व सासादन मित्र
अविरत
संदृष्टि नं. 10
मघवा-मघवी भाव (30) मधवी-माघवी - इन दोनों पृम्बियों का कथन भी वंशा पृथ्वी के ही समान है मात्र कापोत लेश्या के स्थान पर कृष्प्प लेश्या ग्रहण करना चाधिए । भाव ३० होते हैं। इस पृथ्वी में आदि के चार गुणस्थानों का सद्भाव जानना चाहिए। संदृष्टि इस प्रकार हैगुणस्थान | भाव व्युच्छिति | मिथ्यात्व
अभाव
सासादन
मिक्ष
अविरत
(44)
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संदृष्टि नं. 11 षण्णारकापर्याप्त (2-7 पृथ्वी की अपर्याप्त अवस्था) भाव {23} दुसरी पृथ्वी से सातवीं पृथ्वी तक अपर्याप्स अवस्था में 23 भाव होते हैं। गुणस्थान एक मिथ्यात्व होता है। 23 भाव इस प्रकार ६. कुज्ञान2, दर्शन 2, झायोपशमिक लब्धि 5, नरकगति, कषाय 4, नपुंसकलिंग, विवक्षित कोई एक लेश्या ( कृष्ण, मील कापोत में से), मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, सिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3, संदृष्टि इस प्रकार है। गुलस्यान मावति । सिम
अभाव मिथ्यात्व |
| 23 (उपर्युक्त)
सासणठिणाणदुर्ग असजदठियकिण्हनीललेसदुगा मिच्छ ममन्वं च तहा मिच्छाइद्विम्मि वुच्छे दो ।।5।। सासादनस्थिताज्ञानद्विकं असंयतस्थितकृष्णनीललेश्याद्धिक । मिथ्यात्वमभव्यत्वं च तथा मिथ्यादृष्टौ व्युच्छेदः ॥ अन्वयार्थ - निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में भोगभूमिज तिर्यच के (सासणठि अऽणाणदुर्ग) सासादन गुणस्थान में दो अज्ञान अर्थात् कुमति ज्ञान, कुश्रुत ज्ञान (असंजदठियकिण्हनीललेसदुर्ग)तथा चौथे गुणस्थान में स्थित कृष्ण नील लेश्यायों की सासादन गुणस्थान में व्युच्छित्ति हो जाती है (मिच्छाइदिम्मि) मिथ्यात्व गुणस्थान में (मिच्छ मभव्वं च) मिथ्यात्व और अभव्यत्व की (दुच्छे दो) व्युच्छित्ति होती है।
भावार्थ -निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में मोगभूमिज तिर्यंच के 31 माव होते है गुणस्थान प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ ये तीन होते हैं। इन 31 मावों में से प्रथम गुणस्थान में मिथ्यात्व और अभव्यत्व इन दो मावों की, दसरे गुणस्थान में कुमतिज्ञान, कुश्रुत ज्ञान, कृष्ण लेश्या एवं नील लेश्या इन चार भावों की व्युच्छिति हो जाती है - कारण यह है कि निवर्त्य पर्याप्तक चतुर्थगुणस्थान वर्ती भोग भूमिज तिर्यंच के कृष्ण, नील लेश्या का सद्भाव नहीं पाया जाता है - वहाँ कापोत लेश्या का जघन्य अंश पाया जाता है किन्तु पर्याप्त होते ही शुभ लेश्यायें हो जाती हैं तथा चौथे गुणस्थान में
(45)
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कापोत लेश्या, असेयम एवं तिर्यंचगति इन तीन की व्युच्छित्ति हो जाती है। टिप्पण - 1. भोगभूमिजतिर्यनिर्वृत्यपर्याप्तस्य सासादनगुणे तत्रस्थमतिश्रुताज्ञान व्यस्य असंयतस्थित कृष्णनीललेश्याद्विकस्य च व्युच्छेदः । इत्यस्याः पूर्वार्धगाथाया भावः।
कम्मभूमिजतिरिक्खे अण्णगदीतिदयखाइया भावा। मणपज्जवसमचरण सरागचरियं च णेवत्थि ।।54||
कर्मभूमिजतिरश्चि अन्यगतित्रितयशायिका भावाः |
मनःपयशेमचरण सरागचारित्रं च नवास्ति । अन्वयार्य - (कम्मभूमिजतिरिक्खे) कर्म भूमिज तिर्यञ्चों में (अण्णगदीतिदयखाइया भावा) तिर्यञ्च गति को छोड़कर अन्यतीन गतियाँ, क्षायिक भाव, (मणपज्जवसमचरणं) मनः पर्ययज्ञान, उपशमचारित्र (च) और (सरागचरियं) सरागचारित्र (णेवत्थि) नहीं होता है।
.:
संदृष्टि नं. 12
अभाव
कर्म भूमिज तिर्यञ्च पर्याप्त (38 भाव) कर्म भूमिन तिर्यचों के पर्याप्त अवस्था में 38 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं . उपशम सम्यक्त्व, कुमति, कुत, कुअवधि ज्ञान, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, क्षायोपशामिक सम्यक्स्य, क्षायोपशमिक पांच लब्धि, संयमासयम, तिर्यकच गति, क्रोध, मान, माया लोम, कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम, शुक्ल लेश्या, मिथ्यादर्शन, असंयम, मलान, असिद्धत्व, चक्षु दर्शन अचक्षु दर्शन, अवधिदर्शन, स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुंसक लिंग, भव्यत्व, अभव्यत्व, नीवत्व, गुणस्थान आदि के पाँध होते हैं संवृष्टि इस प्रकार है।। गुणस्थान भाव व्युच्छिति भाव मिथ्यात्व मिथ्यात्व |1} (चक्षु अचक्षु | औपशमिक अमव्यत्व |दर्शन, कुमति,
सम्यक्त्व, मति, श्रुत कुश्रुत, कु अवधि ज्ञान, शायोपशमिक
अवधि ज्ञान, अवधि पांच लन्धि
वर्शन,सयोपशमिक तिर्यञ्चगति, क्रोध, सम्यक्त्व, संयमासंयम) मान, माया, लोभ, कृष्ण नील कपोत, पीत, पद्म, शुक्ल | लेश्या, मिथ्यात्व,
(46)
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गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति |
भाच
अभाव
लिंग तीन,असिद्धत्व, असंयम, अज्ञान, जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व
सासादन]
13}कुमति, (29) कुमति, 19) (औपशमिक, कुश्रुत,
| कुश्रुत, कुअवधि सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक कुअवधि ज्ञान) | ज्ञान, चक्षु अचानु सम्यक्त्व, मति, श्रुत, दर्शन, क्षायोपशमिक
अवधिज्ञान, अवधिदर्शन, पाँच लब्धि,
संयमासंयम, मिथ्यात्व, सिपाति, ध,
अभव्यत्व मान, माया लोभ,3 लिंग कृष्ण,मील, कापोत, पीत, पद्म शुक्ल लेश्या, .. असिद्धत्व, असंयम, अज्ञान, जीवत्य, भव्यत्व
{30} {तीन मिश्र - Te) (औपशमिक शान, चवर्शन, सम्यक्त्व , मायोपशमिक अघगुदर्शन सिम्यक्त्व, मति, श्रुत अपधिदर्शन, · अवधि ज्ञान, झायोपशमिक पांच संयमासयम,मिथ्यात्व, अम्धि, नियंच गति, मभव्यत्व कोष, मान, माया, लोभ, लिंग, कृष्ण नील कापोत पीत पदम, शुक्ल लेश्या, असिद्धत्व, असंयम, अज्ञान, जीयत्व मध्यत्व
(47)
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गुणस्थान | भाव व्युच्छित्ति भाव । अभाव अविरत {4} {कृष्ण, | 32} {औपशमिक (6) {कुमति, कुश्रुत
नील, कापोत, सम्यक्त्व, |कुअवधि ज्ञान,लेश्या, क्षायोपशमिक
संयमासंयम, मिथ्यात्व, असंयम) सम्यक्त्व, मति,
अमव्यत्व श्रुत, अवधिज्ञान, चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शन, क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, तिर्यञ्चगति, क्रोध,मान, माया, लोभ,तीन लिंग, लेश्या 6, असंयम, अशान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व
देशविरत ) {29 औपशामिक ) कुमति, कुश्रुत, (संयमासंयम, सम्यक्त्व,
कुअवधि ज्ञान,कृष्ण, नील तिथंच गति) क्षायोपशमिक कापोत, लेश्या असंयम,
सम्यक्त्व, मति, श्रुत, मिथ्यात्व, अभव्यत्व) अवधि शान चक्षु, अचा, अवधि दर्शन, झायोपशमिक पाँच लम्धि, संयमासंयम, तिर्यच गति, कोष, मान माया लोभ, स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुंसक लिंग, पीत पदम, शुक्ल लेश्या अर्सयम, असिद्धत्व,जीवत्व, भव्यत्व
(48)
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तेसिमपज्जत्ताणं सण्णाणतिगोहिदंसणं च वेभंगं । वेदगमुवसमसम्म देसचरित्तं च णेवत्थि 1155|| तेषामपर्याप्तानां सज्ज्ञानत्रिकावधिदर्शनं विभंगः । वेदकमुपशमसम्यक्त्वं देशचारित्रं नैवास्ति ॥ अन्वयार्थ (तेसिमपज्जत्तार्ण) उन्हीं की अर्थात् कर्मभूमिज तिर्यञ्चों की अपर्याप्त अवस्था में ( सण्णाणतिगो हिदंसणं) तीन सम्यग्ज्ञान अवधिदर्शन (च) और (वेभंग) विभंगावधि ज्ञान (वेदगभुवसमसम्म) वेदक सम्यक्त्व, उपशमसम्यक्त्व (च) और (देसचरित) देश चारित्र (वत्थि) नहीं होता है ।
भावार्थ - कर्मभूमिज तिर्यंच की अपर्याप्त अवस्था में तीन सम्यग्ज्ञान, विभंगावधि ज्ञान, अवधिदर्शन, वेदक सम्यक्त्व, देश संयम, उपशम सम्यक्त्व नहीं होता क्योंकि अपर्याप्त अवस्था में सम्यग्दर्शन के साथ तिर्यंच गति में उत्पन्न होने का अभाव है।
#
-
संदृष्टि नं. 13
कर्मभूमिज अपर्याप्त तिर्यञ्च भाव ( 30 )
अपर्याप्त कर्म भूमिज तिर्यच्च के 30 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं- कुमति, कुश्रुत ज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, तिर्यंच गति, कोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुंसक लिंग, कृष्ण, नील, कापोत, पीत पद्म, शुक्ल लेश्या, मिथ्यादर्शन, असंयम अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व | गुणस्थान आदि के दो होते हैं संदृष्टि निम्न प्रकार है -
गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति
भाव
मिथ्यात्व [2] मिथ्यात्व
अभव्यत्व
[30] उपर्युक्त कहे गये (0)
समस्त भाव जानना चाहिए ।
(49)
अभाव
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अभाव
गुणस्थान | भाव व्युच्छिति भाव सासादन |{2} {कुमति, [{2} {कुमति, कुश्रुत (2)(मिथ्यात्व, अभव्यत्व)
ज्ञान, कुश्रुत ज्ञान चक्षु, अचक्षु दर्शन, ज्ञान} झायोपशमिक पाँच
लन्धि, तिर्यञ्चगति, क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुंसक लिंग, कृष्ण नील, कापोत, पीत पद्म शुक्ल लेश्या असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व भव्यत्व
एवं भोगजतिरिए पुण्णे किण्हतिलेस्सदेसजम । थीसंढ ण हि तेसि खाइयसम्मत्तमस्थित्ति ||56|| एवं भोगजतिरश्चि पूर्णे कृष्णत्रिलेश्यादेशसंयम ।
स्त्रीषण्डं न हि तेषां क्षायिक सम्यक्त्वमस्तीति ।। अन्वयार्थ - (एव) इसी प्रकार (भोगजतिरिए) भोगभूमिज तिर्यञ्चों के (पुण्णे) पर्याप्त अवस्था में (किण्हतिलेस्स) कृष्णादितीन लेश्याएँ, (देसजर्म) देशसंयम, (थीसद) स्त्रीवेद, नपुसंकीद (ण हि) नहीं होता है (तेसि) उनके (खाइयसम्मत्तमत्थित्ति) क्षायिक सम्यक्त्व होता है |
भावार्थ - भोग भूमिज पुरुषवेदी तिर्यंच के पर्याप्त अवस्था में कृष्णादि तीन लेश्याएं, देश संयम, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद नहीं होता है तथा उनके क्षायिक सम्यक्त्व होता है। इस कथन का खुलासा इस प्रकार है भोग भूमि में पर्याप्त अवस्था में तीन शुभ लेश्याएँ ही होती हैं अतः कृष्णादिलेश्याओं का अभाव कहा गया है। जिस मनुष्य ने पहले अशुभ परिणामों के निमित्त से तिर्यंच आयु का बंध कर लिया है बाद में उसने केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया तो वह जीव मरकर भोग भूमि के
(50)
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तिर्यंच में उत्पन्न होगा। अतः इस प्रकार भोग भूमि के तिर्यचों के क्षायिक सम्यग्दर्शन का सद्भाव पाया जाता है।
संदृष्टि नं. 14 पर्याप्त भोगभूमिज तिर्यञ्च भाव (33) पर्याप्त भोग भूमिज तिर्यन्च के 33 भाव होते हैं जो इस प्रकार है - क्षायिक सम्यक्त्व, झायोपशमिक सम्यक्त्व, औपशमिक सम्यक्त्व, कुमति, कुश्रुत, कुअवधि,मति, श्रुत, अवधि ज्ञान, चक्षु, अचा, अवधि दर्शन, क्षायोपशमिक पांच लब्धि, तिर्यञ्च गति, क्रोध,मान, माया लोभ, पुल्लिग, पीत, पदम, शुक्ल लेश्या, मिथ्यात्व, असयम, अज्ञान, असिद्धत्य, जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व । गुणस्थान आदि के चार होते है । संदृष्टि इस प्रकार है । गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव
अभाव गिच्यात्य मामात्न, 126 कुमति, (1)सायिक सम्यक्त्व, अमव्यत्व
कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान, औपशमिक सम्यक्त्त्व, चक्षु अचशु दर्शन,
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, कायोपशमिक पाँच लन्धि, तिर्यञ्चगति, मति, श्रुत अवधि ज्ञान, कोष, मान, माया, अवधि दर्शन लोभ कवाय, पुल्लिंग, पीत पद्म शुक्ल लेश्या मिथ्यात्व, असंथम, अज्ञान, असिदत्व,जीवत्व,
भव्यत्व,अभव्यत्व सासादन | कुमति, {24 कुमति, 11) क्षायिक सम्यक्त्व, कुश्रुत, कुश्रुत, कुअवधि
औपशमिक सम्यक्त्व, ज्ञान, चक्ष, मचक्षु कुअवधि ज्ञान
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, दर्शन, शायोपशमिक पाँच
मति, श्रुत, अवधि ज्ञान, लब्धि, तिथंच गति, अवधिदर्शन, मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, अभव्यत्व + कुज्ञान 3 - लोभ कवाय, मिश्रज्ञान} पुल्लिंग, पीत पद्म शुक्ल लेश्या, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व भव्यत्व
(51)
सासादन
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गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति
मिश्र
[[{o}
अविरत
अभाव
{25} [उपर्युक्त 24 भाव (B) [उपर्युक्त नौ भाव + अवधि दर्शन अवधि दर्शन मिश्र ज्ञान 3}
कुज्ञान 3
तीन मिश्र ज्ञान- तीन कुज्ञान)
भाव
[28} [ क्षायिक
{2} (असंयम, तिर्यञ्चगति) सम्यक्त्व, औपशमिक
सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक
सम्यक्त्व, मति, श्रुत,
अवधि ज्ञान, चक्षु,
अचक्षु, अवधि दर्शन,
क्षायोपशमिक पाँच
बिर,
तिर्यंचगति, क्रोध,
मान, माया, लोभ,
कषाय, पुल्लिंग, पीत
पद्म, शुक्ल लेश्या
असंयम, अज्ञान असिद्धत्व, नीवत्व भव्यत्व }
-
(5) {कुमति, कुश्रुत
कुअवधि ज्ञान, मिथ्यात्व, |अभव्यत्व}
पिव्वत्तिअपज्जत्ते अवणिय सुहलेस्स किण्हतिहजुत्ता । भंगुवसमसम्मं ण हि अयदे अवरकावोदा ||57|| निर्वृत्यपर्याप्त अपनीय शुभलेश्याः कृष्णात्रिकयुक्ताः । विभंगोपशसम्यक्त्वं न हि अयते अवरकापोता || अन्वयार्थ भोगभूमिज पुरुषवेदी तिर्यञ्चों की (णिव्वत्तिअपज्जते) निर्वत्यपर्याप्त अवस्था में (सुहलेस्स) तीन शुभलेश्याएँ (अवणिय) रहित अर्थात् तीन शुभ लेश्याएँ नहीं होती हैं (किण्हतिहजुत्ता) कृष्णादि तीन अशुभ लेश्याएँ पायी जाती हैं । (वेभंगुवसमसम्मं ) विभंगावधि और उपशम सम्यक्त्व (ण हि) नहीं भी होता है (अयदे) चौथे गुणस्थान में
(52)
FIN
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(अवरकावोदा) जघन्य कापोत लेश्या होती है।
भावार्थ - भोग भूमि के तिर्यंचों के पर्याप्त अवस्था में 33 भाव होते हैं। निवृत्य पर्याप्त अवस्था में तीन शुभ लेश्याओं का अभाव होता है क्योकि इनके निवृत्य पर्याप्त अवस्था में तीन अशुभलेश्याएं ही पायी जाती हैं अतः 33 भावों में से तीन शुभ लेश्याएँ कम करके तीन अशुभलेश्याएं मिला देना चाहिए। तीनों अशुभ लेश्याएँ प्रथम एवं द्वितीय गुणस्थान में ही संभव है चौथे गुणस्थान में केवल कापोत लेश्या का जघन्य अंश पाया जाता है। इनके निर्वृत्य पर्याप्त अवस्था में विभंगावधि ज्ञान एवं उपशम सम्यक्त्व का भी अभाव पाया जाता है।
संदृष्टि नं. 15 भोगभूमिज तिर्यञ्च अपर्याप्त भाव (31) अपर्याप्त भोग मिन तिर्यंच के 31 भाव होते है जो इस प्रकार है - पर्याप्त भोगभूमिज तिथंच के 33 भावों में उपशम सम्यक्त्व एवं कुअवधि ज्ञान कम करने पर 11 भाव शेष रहते हैं 1 गुणस्थान मिथ्यात्व, सासादन और असंयत ये तीन होते हैं संदृष्टि इस प्रकार है - मुणस्थान भाव व्युच्छिति मिथ्यात्व ) (मिथ्यात्व, (25} {कुज्ञान 2, 6शायिक सम्यक्त्व, अभव्यत्व)
दर्शन 2, झायोपशमिक शायोपशमिक सम्यक्त्व, लब्धि 5, तिथंच गति, जान 3, अवधिदर्शन, कपाय 4, पुल्लिंग, अशुभ लेश्या 3, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3}
भाव
अभाव
सासादन (4)(कुमति , {2} {उपर्युक्त 25 - |ts) {उपर्युक्त 6 +
कुश्रुत ज्ञान, मिथ्यात्व, अभव्यत्व मिथ्यात्व, अभव्यत्व) कृष्ण, नील लेश्या )
(53)
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संदृष्टि नं. 15 पभोगभूमिज लिञ्च अपर्याप्त भाव (31) अपर्याप्त भोग भूमिज तिर्यच के 31 भाव होते है जो इस प्रकार है - पर्याप्त भोगभूमिज तिर्यच के 33 भावों में उपशम सम्यक्त्व एवं कुअवधि ज्ञान कम करने पर 31 भाव शेष रहते है । गुणस्थान मिथ्यात्व, सासादन और असंयत ये तीन होते हैं संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव T अभाव अविरत |}(कापोत |25} {सम्यक्त्व 2, |t6) {कुमति, कुश्रुत लेश्या,
ज्ञान 3, दर्शन 3, ज्ञान, मिथ्यात्व असंयम, शायोपशमिक लब्धि 5, अभव्यत्व, कृष्णा, नील तिर्यन्च गति) [तियंचगति, कवाय, लेश्या)
पुल्लिंग ।, कम्पोत लेश्या, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, मव्यत्व)
लद्धिअपुण्णतिरिक्खे वामगुणट्ठाणभावमझम्मि । थी'सिदरगदीतिग सुहतियलेस्सा ण वेभंगो ||४||
लब्ध्यपूर्णतिरश्चि वामगुणस्थानभावमध्ये ।
स्त्रीपुंसितरगतित्रिकं शुभत्रिकलेश्या न विभंगः ॥ अन्वयार्थ - (लद्धिअपुण्णतिरिक्खे) लब्ध्यपर्याप्त तिर्यञ्चों के (वामगुण ठाणभावमज्झम्मि) मिथ्यात्व गुणस्थान रूप भाव में (धीपुंसिदरगदीतिग) स्त्रीवेद, पुरुषवेद. तिर्यञ्च गति से अन्य तीन गतियौं (सुहतियलेस्सा) तीन शुभ लेश्याएँ (वेभंगो) विभंगावधि ज्ञान (ण) नहीं होता है।
विशेषार्थ -गाथा में आगत वाम शब्द का विपरीत अर्थ ग्रहण करना चाहिए । प्रसङ्ग में मिथ्यात्व गुणस्थान ग्रहण जानना चाहिए।
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संतुष्टि नं. 16 लब्धपर्याप्तक तिर्यञ्च (25 भाव) लब्ध पर्याप्तक तिर्यठच के 25 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं - कुमति, कुश्रुत ज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, लियंचगलि, क्रोध, गान, माया, लोभ कषाय नपुंसक लिंग, कृष्ण, नील, कापोत लेश्या, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान; असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व, - इनके मात्र एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है । संदृष्टि इस प्रकार है -
गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति
भाव
अभाव
मिथ्यात्व 0
{25) उपर्युक्त 25 माय |10) ही जानना चाहिए।
भोगजतिरिइत्थीणं अवणिय पुवेदमित्थिसंजुतं । तासि वेदगसम्म उवसमसम्मं च दो चेव ।।5911 भोगजतिर्यक्स्त्रीणां अपनीय पुवेदं स्त्रीसंयुक्त ।
तासां वेदकसम्यक्त्वं उपशमसम्यक्त्वं च द्वे चैव ॥ अन्वयार्थ - (भोगजतिरिइत्थीण) स्त्रीवेदी भोग भूमिज तिर्यञ्चों के पर्याप्त अवस्था में {पुंवेदं अवणिय) पुरुषवेद को कम करके अर्थात् छोड़कर (इत्थिसंजुत्त)स्त्रीवेद मिलाकर (तासिं) उनके (वेदगसम्म) वेदकसम्यक्त्व (च) और (उबसमसम्म) उपशम सम्यक्त्व (दो) ये दो (चेव) सम्यक्त्व ही होते हैं।
भावार्थ -भोग भूमिज स्त्रियों में पर्याप्तक अवस्था में पुरुषवेद के 33 भावों में से पुरुष वेद घटाकर स्त्रीवेद मिलाकर तथा स्त्रीवेन्दियों में क्षायिक सम्यग्दर्शन का अभाव होने से केवल उपशम सम्यक्त्व एवं वेदक सम्यक्त्व ही पाया जाता है।
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संदृष्टि नं. 17 भोगभूमिज तिर्यचिनी पर्याप्त (32 भाव) भोगममिज तिर्यञ्चनी पर्याप्त के मोगभूमिज तिर्यठचनी पर्याप्त 32 भाव होते है जो इस प्रकार हैं - औपशमिक सम्यक्त्व, शायोपशमिक सम्यक्त्व, कुमति, कुश्रुत,कुअवधि, मति, श्रुत, अवधि ज्ञान, चक्षु, अचा, अवधि दर्शन, भयोपशमिक पाँच लब्धि, तिर्यञ्चगति, क्रोध, मान, माया, लोभ कवाय, स्त्रीलिंग, पीत, पद्म, शुक्ल लेश्या, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व मध्यत्व, अभव्यत्व । गुणस्थान आदि के चार पाये जाते हैं। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छिति भाव । अमाव .
मिथ्यात्व 2} {मिथ्यात्व, (26} {कुमति, 6){औपशमिक अमव्यत्व
कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान, सम्यक्त्व, कायोपशमिक चक्षु अचक्षु दर्शन, सम्यक्त्व, मति, श्रुत, क्षायोपशमिक पांच
अवधिशान, अवधिदर्शन लब्धि, तिथंच गति, कोष, मान, माया, लोभ कपाय, स्त्रीलिंग, पीत, पद्म,शुक्ल लेश्या, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान असिद्धत्व, जीवत्व,
भव्यत्व, अभव्यत्व सासादन (कुमति {4} {उपर्युक्त भावों |(8) {उपर्युक्त 6 भावों में
से मात्र मिथ्यात्व और मिथ्यात्व एवं अमन्यत्व कुअवधि ज्ञान)
का अभव्यत्व अलग करने |जोड़ने से भाव हो जाते
पर 24 भाव शेष रहते
कुश्रुत,
मित्र
10
(25) उपर्युक्त 24 +
अवधि दर्शन + मिनशान}
(7) {उपर्युक्त । - अवधिवर्शन, ३ मिश्र ज्ञान+ 3 कुज्ञान
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गुणस्थान | भाव व्युच्छिति
भावा
अभाव
अविरत
2
2 7) {औपशमिक |5) {कुमति, कुश्रुत, तिर्यञ्च गति, सम्यक्त्व,
कुअवधि, मिध्यात्व, असंयम} क्षायोपशमिक अभव्यत्व)
सम्यक्त्व, मति, श्रुत, अवधि ज्ञान, |क्षायोपशामिक पांच लब्धि, तिथंच गति, क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय, स्त्रीलिंग, पीत, पद्म, शुक्ल लेश्या, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, पव्यत्व)
तासिमपन्नत्तीणं किण्हातियलेस्स हवंति पुण | ण सण्णाणतिर्ग ओही दसणसम्मत्तजुगलवेभंग ||60|| तासामपर्याप्तीनां कृष्णत्रिक लेश्या भवन्तिः पुनः ।
न सज्ज्ञानत्रिक अवधिदर्शनसम्यक्त्वयुगलविभंग || अन्वयार्थ - (तासिमपन्नत्तीण) उनकी अर्थात् स्त्रीवेदी भोगभूमिज तिर्यञ्च के अपर्याप्त अवस्था में (किण्हातियलेस्स) कृष्णादि तीन लेश्याएं (हर्वति) होती है (सण्णाणतिग) तीन सम्यग्ज्ञान (ओहीदसण) अवधि दर्शन (सम्मत्तजुगलवेभंग) दोनों सम्यक्त्व अर्थात् उपशम, वेदक सम्यक्त्व विभंगावधि ज्ञान (ण) नहीं होता है।
भावार्थ -स्त्रीवेदी भोग भूमिज तिर्यच के निर्वृत्य पर्याप्त अवस्था में कृष्णादि तीन लेश्याएं ही होती है। तीन सम्यग्ज्ञान, अवधि दर्शन, उपशम वेदक सम्यक्त्व और विर्भगावधि ज्ञान नहीं होता है। तथा इस अवस्था में मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान ही होते हैं।
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संदृष्टि नं. 18 भोगभूमिज तिर्यञ्चनी अपर्याप्त (25 भाव) भोगभूमिज तिर्थञ्चनी निर्दत्यपर्याप्त के 25 भाव होते है जो इस प्रकार हैं - कुमति, कुश्रुत ज्ञान, दर्शन 2, क्षायोपशिमक लन्धि , लियंचगति, कषाय 4, स्त्रीलिंग, अशुभ लेश्या 3, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 गुणस्थान आदि के 2 पाये जाते हैं। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान | भाव व्युच्छिति भाव मिथ्यात्व |[2)गिथ्यात्व 25} {उपर्युक्त कथित 10)
अभव्यत्व समस्त भाव)
अभाव
सासादन (2) कुमति |(23{उपर्युक्त 25 - |(2) {मिथ्यात्व,
ज्ञान, कुश्रुत | मिथ्यात्व, अमव्यत्व) अमव्यत्व)
ज्ञान
मणुवेसिदरगदीतियहीणा भावा हवति तत्थेव । णिव्वत्तिअपज्जत्ते मणदेसुवसमणदुर्ग ण वेभंगं ||61।।
मनुष्येष्वितरगतित्रिकहीना भावा भवन्ति तत्रैव ।
निर्वृत्यपर्यास मनोदेशोपशमनद्रिकं न विभंग ।। अन्वयार्थ - (मणुवेसिदरगदीतियहीणा) मनुष्यगति में इतर तीन गतियों से रहित (भावा) शेष सम्पूर्ण ५० भाव (हवंति) होते हैं (तत्थेव) उसी मनुष्य गति में (णिव्वत्तिअपज्जते) निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में (मणदेसुवसमणदुर्ग) मनः पर्ययज्ञान, देशसंयम, उपशम सम्यक्त्व, उपशमचारित्र (वेभग) विभंगावधि ज्ञान ये आठ भाव(ण) नहीं होते हैं।
साणे थीसंदच्छिदी मिच्छे साणे असंजदपमत्ते । जोगिगुणे दुगचदुचदुरिगिवीसंणवच्छिदीकमसो।।621 सासादने स्त्रीषढच्छित्तिः मिथ्यात्वे सासादने असंयतप्रमत्ते । योगिगुणं द्रिक चतुःचतुरेकविंशतिः नवच्छि त्तिः क्रमशः || अन्वयार्थ - तथा उपर्युक्त निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में (साणे) सासादन
(58)
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गुणस्थान में (बीसंढ च्छिमाद, नसो दकी न्युमिति हो जात. है । तथा उक्त अवस्था में (मिच्छे) मिथ्यात्व गुणस्थान में (दुग) दो की (साणे) सासादन में (चदु ) चार की (असंजद) चौथे गुणस्थान में (चदु) चार की (पमत्ते) प्रमत्तगुणस्थान में (इगिवीसं) इक्कीसकी(जोगिगुणे) सयोगकेवली गुणस्थान में (णवच्छिदी) नौ भावों की व्युच्छित्ति होती
है।
भावार्थ- इस गाथा का प्रथम चरण गाथा 61 से जुड़ा हुआ है तथा आचार्य महाराज यहां यह बतलाना चाहते हैं कि निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में कर्मभूमि के मनुष्यों के मिथ्यात्व, सासादन, अर्सयत, प्रमत्त संयत और संयोग केवली ये पाँच गुणस्थान होते हैं। 1, 2, 4, 6, और 13वें गुणस्थान में क्रमशः 2, 4, 4, 21, 9 भावों की व्युच्छित्तिजानना चाहिए | प्रथम गुणस्थान, द्वितीय गुणस्थान व असंयत गुणस्थान में जन्म के समय पर्याप्तियाँ पूर्ण होने के पूर्व प्रमत्त गुणस्थान में आहारक समुद्धात के समय एवं सयोगकेवली के केवली समुद्धात के समय निर्वृत्य पर्याप्त अवस्था होती है।
संदृष्टि नं. 19 कर्म भूमिज पर्याप्त मनुष्य भाव (50) कर्मभूमिज पर्याप्तक मनुष्य के 50 माव होते हैं जो इस प्रकार से हैं - औपशमिक सम्यक्त्व, औपशमिक चारित्र, केवल ज्ञान, के क्लदर्शन, शायिक दान आदि पाँच लन्धि, क्षायिक सम्यक्त्व, पायिक चारित्र, मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय ज्ञान, कुमति,कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान, चक्षु, अचक्षु अवधि दर्शन, क्षायोपशमिक पाँच लन्धि शायोपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक चारित्र (सराग चारित्र), संयमासयम, मनुष्यगति, कोषमान, माया, लोम चार कषाय, मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम, असिद्धस्य, कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम, शुक्ल लेश्या, सीलिंग पुल्लिंग नपुंसक लिंग, जीवत्य, भव्यत्व, अभव्यत्व प्रथम गुणस्थान से लेकर सभी चौदह गुणस्थान पाये जाते है संदृष्टि निम्न प्रकार है -
(59)
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गुणस्थान भाव व्युच्छिति भाव
अभाव मिथ्यात्वा मिथ्यात्व. (31) (कुमति, कुश्रुत, I (1) (औपशमिक अभव्यत्ब)
कुअवधि ज्ञान चक्षु, सम्यक्त्व, औपशमिक अचक्षु दर्शन चारित्र, केवलज्ञान, केवल भायोपशमिक पाँच दर्शन, क्षायिक पाँच लब्धि, मनुष्यगति, | लन्धि, क्षायिक सम्यक्त्व, क्रोध, मान; माया, क्षायिक चारित्र, मति, लोभ कषाय, स्त्रीलिंग, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय पुल्लिंग, नपुंसक ज्ञान, अवधि दर्शन, लिंग, कृष्ण, नील, सायोपशमिक सम्यक्त्व, कापोत, पीत, पद्म, क्षायोपशमिक चारित्र, [शुक्ल लेश्या,
संयमासंयम) मिरहात्य, असंघम असिद्धत्व, जीवत्व,
भव्यत्व, अमव्यत्व) सासादन |(3) कुवान | 129) (उपरोक्त (21) (उपरोक्त 19 भावो
अभावों में से मिथ्यात्व में मिथ्यात्व एवं एवं अभव्यत्व को कम | अभव्यत्व को जोड़ने पर करने पर शेष 29 भाव | 21 भाव हो जाते है।) रहते हैं।
मिश्र lor
(30) (चक्षु अचक्ष अवधि दर्शन क्षयोपशमिक पांच लब्धि, मनुष्य मति, कोध, मान, माया, लोभ चार कषाय, सीलिंग, पुल्लिंग, नपुंसक लिंग, कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल लेश्या, असंयम, असिद्धत्व, अज्ञान, जीवत्व, भव्यत्व, 3 मित्र ज्ञान)
{60)
|(20)(उपशम सम्यक्त्व , | उपशम चारित्र, क्षायिक पाँच लन्धि, केवल शान, केवल दर्शन, सायिक सम्यक्त्व |क्षायिक चारिख, मति श्रुत, अवधि, मनः पर्यय मान, मायोपशमिक सम्यक्त्व, क्षायो. चारित्र, संयमासयम, मिध्यात्व - 3 मिश्र ज्ञान +3 कुज्ञान)
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गुणस्थान भाव व्युच्छिति
अविरत (4) (अशुभ
लेश्या 3, अर्गलम)
देशसंयत (1) (संयमासंयम)
प्रमत्त संयत
अप्रमत्त
संयत
0
3 ( क्षायो.
सम्यकत्व,
फीत पद्म
लेश्या )
भाव
23 ( सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, दर्शन 3,
काय मित्र नि 35 मनुष्य गति, कषाय 14, लिंग 3, लेश्या 6, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व)
30 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान, दर्शन, क्षायो लब्धि 5, मनुष्य गति, कषाय 4, लिंग 3, शुभ लेश्या३, संयमासंयम, अज्ञान असिद्धत्व, जीवत्व,
भव्यत्व)
(31) उपरोक्त 30 भावों में से
संयमासंयम कम
करके सरामचारित्र
और मनःपर्यय ज्ञान जोड़ देवें ।
छठवें गुण के समान
(61)
अभाव
17 ( औपशमिक चारित्र, शायिक 5 लब्धि, न
दर्शन,
क्षायिक चारित्र, मन:पर्यय
ज्ञान, कुज्ञान 3, सरांग चारित्र, संयमासंयम, | मिथ्यात्व, अभव्यत्व )
20 (औपशमिक चारित्र, सायिक भाव 8, कु ज्ञान3, मनः पर्ययज्ञान, सराग, चारित्र, मिथ्यात्व अशुभ लेश्याउ, असंयम अभव्यत्व)
19 (उपशम चारित्र, क्षायिक भाव कु ज्ञान, संयमासंयम, मिध्यात्व, अशुभ लेश्याउ, असंयम, अभव्यत्व)
19 (पूर्वोक्त)
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गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति
भाव
।
अभाव
अपूर्वकरण
28 (उपर्युक्त 31झायो. सम्यकत्व पीत पद्म, लेश्या),
22 (पूर्वोक्त 19+पीत, पद्म लेश्या, पायोपशामिक, सम्यक्त्व)
22(उपर्युक्त )
अनिवृत्ति | 33 लिंग) | 28 (उपर्युक्त) करण सदेव भाग
अनिवृत्ति ] ३ (क्रोध, मान 25 (उपर्युक्त 28- तीन | 25 (उपर्युक्त 25 • 3 वेद) परम माया तीन लिगा। अवेद कषाय) भाग
सूक्ष्म 12 (लोभ, 122 (उपर्युक्त 25 - सापराय |सराग चारित्र) क्रोध, मान, माया)
[8125 पूर्वोक्त + क्रोध, मान माया)
उपशात 12 (औपशमिक 21 (उपर्युक्त 22- सराग| 19 (क्षायिक भाव।, मोछ सम्यक्त्व, चारित्र, लोम कषाय + | | कुशान3, क्षायोपशिमक
औपशमिक औपशमिक चारित्र) सम्यक्त्व, सरागसयम, चारित्र)
संयमासंयम, कषाय चार, लिंग 3, मिथ्यात्व, अर्सयम, लेश्या , अभव्यत्व)
(62)
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आदि 3 दर्शन,
गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव
अभाव क्षीण मोह 13 (मति 20 (शायिक सम्यक्त्व, 1 30 (उपर्युक्त 29 - शायिक
आदि शान, [सायिकचारित्र, मति चारित्र+ औपशमिक चक्षु आदि । आदि । ज्ञान, चक्षु
सम्यक्त्व, औपशमिक दर्शन,
चारित्र) क्षायोपशमिक
क्षायोपशमिक 5 लब्धि, 5 लब्धि
मनुच्य गति, शुक्ल ,
लेश्या, अज्ञान, अज्ञान)
| असिखत्व, जीवत्व,
भव्यत्व सयोग (शुक्ल 14 (क्षायिक भाव 9, (पशकमान केवली लेश्या) मनुष्य गति, असिद्धत्व, शायोपशमिक भाव 18,
शुक्ल लेश्या, जीवत्व, कषाय 4, मिध्यात्व, भव्यत्व)
असंयम, कृष्णादि लेश्या 5
अज्ञान, अभव्यत्व, लिंग 3) अयोग
18 (क्षायिक 113 (उपर्युक्त 14 . | 37 (उपर्युक्त 36+शुक्ल केवली दानादि चार शुक्ल लेश्या) | लेश्या)
लब्धि, क्षायिक चारित्र, मनुष्यगति, असिद्धत्व, भव्यत्व)
संदृष्टि नं. 20
निर्वृत्य पर्याप्त मनुष्य भाव (45) निर्वृत्यपर्याप्त मनुष्य के 53 मावों में से नरकगति, तिर्यञ्चगति, देवगति, उपशम सम्यक्त्व, उपशम चारिव, विभंगावधिज्ञान, मनः पर्ययज्ञान, संयमासयम भावो को छोड़कर शेष 45 भाव होते है । गुणस्थान-मिच्यात्व, सासादन, असंयत प्रमत्त विरत एवं सयोग के चली ये पाँच पाये जाते हैं। सदृष्टि इस प्रकार हैगुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव
अभाव मिथ्यात्व 2(मिथ्यात्व, 30 (कुज्ञान 2, दर्शन 2, | 15 (सायिक भाव 9, मति अभव्यत्व) झायोपशमिक लब्धि, आदि शान, अवधि
मनुष्यगति, कषाय, 1 दर्शन, क्षायो. सम्यक्त्व लिंग 1, लेश्या 6, |क्षयों, चारित्र)
(63)
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भाव
गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति
अभाव मिथ्यादर्शन, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व,
पारिणामिक भाव 3) सासादन| 4 (कुज्ञान 2, | 28 (उपर्युक्त 30- 17(उपर्युक्त IS +
जी, नपुंसक |मिथ्यात्व, अभव्यत्व) मिथ्यात्व, अभव्यत्व) वेद)
अविरत 4 (असंयम, 30 (ज्ञान 3,दर्शन 3, IS (सायिक भाव 8, अशुभ लेश्या 3) झायोपशमिक लब्धि कुशान 2, अयोपशमिक
s, झयो. सम्यक्त्व चारित्र सी नपुंसक वेद, सायिक सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, अभव्यत्व) मनुप्पमति, कषाय 4, i पुल्लिंग, लेश्या 6, असंयम, अज्ञान,असिद्धत्व,
जीवत्व, भव्यत्व) प्रमत्त 21 (पीत, पदम 27 (ज्ञान 3, दर्शन 3, I (क्षायिक भाव 8, विरत लेश्या,मायो. शायोपशमिक
कुशान 2, वेद,
मिथ्यात्व, अभव्यत्व, वेव, कवाय, सम्यक्त्य, सराग
अशुभ लेश्या 3, चारित्र, शायो. सराग चारित्र,
असंयम) लब्धि, मनुष्य गति, आदिके शान 3, काय 4, पुल्लिंग, शुभ दर्शन ३, क्षायो-लेश्था 3, अज्ञान, पशभिक लन्धि असिद्धत्व, जीवत्व,
5, अज्ञान) । मव्यत्व) सयोग (शुक्ल |14 (क्षायिक भाव 9, |31 (जान 3, कुज्ञान ? केवली लेश्या, आदि मनुष्य गति, शक्ल वर्शन ३, सराग चारित्र, की क्षायिक लेश्या, असिद्धत्व,
क्षयो. लब्धि 5 अज्ञान,
वेव 3, लेश्या , कषाय, असिद्धत्व
मिथ्यात्व, अमव्यत्व, मनुष्यमति,
असंयम, झयोपशम क्षायिक चारित्र
सम्यक्त्व)
सम्यक्त्व, पुरुष सम्यक्त्व, शायिक
लन्धि, भव्यत्व, जीवत्व, भव्यत्व)
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लद्धिअपुण्णमणुस्से वामगुणद्वाणभावमज्झिम्हि । थी पुंसिदरगदीतियसुहतियलेस्सा ण वेभंगो ॥ 63 ॥ लब्ध्यपूर्णमनुष्ये
वामगुणस्थानमावमध्ये ।
स्त्रीपुंसितरगतित्रिक शुभत्रिकलेश्या न विभंग || अन्वयार्थ - (लद्धिअपुष्णमणुस्से) लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य के (वामगुणद्वाणभावमन्झिम्हि ) मिथ्यात्व गुणस्थान में होने वाले भावों के मध्य में ( थीए सिदरगदीनियस हतियले स्सा) स्त्रीवेद, पुरुषवेद मनुष्यगति से अन्य तीन गतियाँ, तीन शुभलेश्याएँ, (वेभंगो) विभंगावधि ज्ञान (ण) नहीं होता है। विषय स्पष्टीकरण के लिए देखें संदृष्टि 23 1 संदृष्टि नं. 21 लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य भाव ( 25 )
लब्ध्यपर्याप्त अवस्था में मनुष्य के 25 भाव होते है जो इस प्रकार है कुज्ञान 2, दर्शन 2, क्षायोपशमिक लब्धि 5, मनुष्यगति, कषाय 4, नपुंसक वेद, अशुभ लेश्या 3, मिथ्यात्व असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणमिक भाव 3 | गुणस्थान एक मिथ्यात्व ही होता है ।
गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति
मिथ्यात्व ०
भाव
25 (उपर्युक्त )
अभाव
मणुसुव्व दव्वभावित्थी पुंसंढ खाइया भावा । उवसमसरागचरणं मणपज्जवणाणमवि णत्थि ॥ 64
मनुष्यवद्द्द्द्रव्यभावस्त्रीषु पुंषण्ढ क्षायिका भावाः । उपशमसरामचरण मन:पर्ययज्ञानमपि नास्ति IL अन्वयार्थ ( मणुसुब्ब) मनुष्य के समान (दव्वभावित्थी) द्रव्य और भाव स्त्री वेदी में (पुंसंढ खाइया भावा) पुरुष वेद, नपुसंकवेद, नव क्षायिक भाव ( उवसमसरागचरणं) उपशम चारित्र, सराग चारित्र (मणपज्जवणाणमवि) मनः पर्यय ज्ञान ( णत्थि ) नहीं होता है ।
भावार्थ - सामान्य मनुष्य में जो 50 भावों का सद्भाव बतलाया गया है, वे सभी भाव द्रव्यस्त्री एवं भावस्त्री में जानना चाहिए किन्तु विशेषता यह है (65)
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कि द्रव्य एवं भावस्त्री में पुरुषवेद, नपुंसकवेद, क्षायिक भाव, उपशमचारित्र, सराग चारित्र और मनः पर्यय ज्ञान नहीं पाया जाता है।
इस गाथा का कपन द्रव्य स्लीनेह की दशा हामहा में माना है न्योंकि भावस्त्री वेदी के सराग चारित्र होने का निषेध नहीं है तथा मावस्त्री वेदी के क्षायिक भाव के नौ भेदों में से क्षायिक सम्यक्त्व भी हो सकता है। गाथा में आगत भावस्त्री शब्द विचारणीय है।
तासिमपज्जत्तीणं वेभंगं णत्थि मिच्छ गुणठाणे | सासादणगुणठाणे पवट्टणं होदि नियमेण ।। 65 ।। तासामपर्याप्तीनां विभंगं नास्ति मिथ्यात्वगुणस्थाने ।
सासादनगुणस्थांने प्रवर्तनं भवति नियमेन ।। अन्वयार्थ - (तासिमपज्जत्तीर्ण) मनुष्यगति में स्त्रियों के अपर्याप्त अवस्था में (वेभंग) विभंगावधि ज्ञान (णत्यि) नहीं होता है तथा (नियमेण) नियम से (मिच्छ गुणठाणे)मिथ्यात्व गुणस्थान में (सासादणगुणठाणे) एवं सासादन गुणस्थान में (पवट्टणं)प्रवर्तन (होदि) होता
है।
संदृष्टि नं. 22
। पर्याप्त स्त्री भाव (36) पर्याप्त स्ली के 16 भाव होते है जो इस प्रकार है - औपशमिक, सम्यक्त्व, ज्ञान,
कुज्ञान, 3 दर्शन, पायोपशमिक लब्धि 5, मनुष्यगति, कषाय 4, क्षयोपशम सम्यक्त्व, स्त्रीलिंग, लेश्या 6, संयमासंयम, मिध्यादर्शन, असंयम, अज्ञान, असिदत्व, पारिणामिक भाद 3 | गुणस्थान आदि के पांच होतेहै । संदृष्टि इस प्रकार हैगुणस्थान भाव व्युच्छिति
अभाव मिथ्यात्व | 2 (मिथ्यात्व, 29 (कुज्ञान 3, दर्शन 2,7(सौपशमिक सम्यक्त्व, अभव्यत्व)
क्षयोपशम लब्धि , मति आदि 3 ज्ञान, अवधि मनुष्यगति, कवाय, स्त्रीलिंग, लेश्या 6,
, दर्शन,मायोपशम मिथ्यादर्शन, असंयम | सम्यक्त्व, संयमासयम) अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव)
भाव
(66)
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गुणस्थान | पश्चिम सासादन 3 (कुज्ञान 3) 27 (पूर्वोक्त 29 -
१(पूर्वोक्त 7 +मिथ्यात्व, मिथ्यात्व, अभव्यत्व)
अभव्यत्व) मिश्र
28 (मिश्र रूप ज्ञान 3, (पूर्वोक्त - अवधि दर्शन 1, क्षयोपशमिक | दर्शन) लन्धि 5, मनुध्यगति, कषाय, स्त्रीलिंग, लेश्या-6,असंयम असिद्धत्व, अज्ञान, पारिणामिक भाव 2)
4. (अशुभ अविरत लेश्या ३,
असंयम)
30 (औपशमिक 16 (मिथ्यात्य, अभव्यत्व, सम्यक्त्व, क्षयोपशमिक| कुशान 3, संयमासंयम) सम्यक्त्व, ज्ञान 3, दर्शन 3, सायोपशमिक लब्धि 5, मनुष्य गति, कवाय स्त्रीलिंग, लेश्या 6, असंयम अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व भव्यत्व)
|27 (मीपशमिक 19(मिथ्यात्व, अमव्यत्व, देशसंयम (संयमासयम) सम्यक्त्व, क्षयोपशमिक कुज्ञान 3, असंयम,
सम्यक्त्व, ज्ञान 3, अशुभ लेश्या 3) दर्शन 3, मायोपशमिक लब्धि 5, मनुष्यगति, स्त्रीलिंग, शुभ लेश्या 3, संयमासंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व मव्यत्व)
(67)
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संदृष्टि नं. 23
निवृत्यपर्याप्त स्त्री भाव (28)
निर्वृत्यपर्याप्त स्त्री के 28 भाव होते है जो इस प्रकार है- कुज्ञान 2 चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन, क्षायोपशमिकलब्धि 5, मनुष्यगति, कषाय 4, स्त्रीवेद, लेश्या 6, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, पारिणामिक भाव 3 गुणस्थान मिथ्यात्व और सासादन दो होते है ।
गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति
मिथ्यात्य 2 ( मिथ्यात्व,
अभव्यत्व)
सासादन 2 (कुशान 2)
भाव
7
28 ( उपर्युक्त समस्त माय जानना चाहिए |}
- 26 ( उपर्युक्त 28मिथ्यात्व, अभव्यत्व)
0
अमाव
2 (मिध्यात्व, अभव्यत्व)
उवसमखाइयसम्मं तियपरिणामा खओवसमिएसु मणपज्जवदेसजमं सरागचरिया ण सेस हवे ||66|| उपशमक्षायिकसम्यक्त्वं त्रिकपरिणामाः क्षायोपशमिकेषु । मनः पर्ययदेशयमं सरागचारित्रं न शेषा भवन्ति || ओदइए थी सढं अण्णगदीतिदयमसुहृतियलेस्सं । अवणिय सेसा हुति हु भोगजमणुवेसु पुष्णेसु ॥67
औदयिके स्त्री षंढ अन्यगतित्रितयमशुभत्रिकलेश्याः । अपनीय शेषा भवन्ति हि भोगजमनुष्येषु पूर्णेषु ॥ अन्वयार्थ ( पुण्णेसु) पर्याप्त (भोगजमणुवेसु) भोग भूमि के मनुष्यों (पुरुषवेदी) में ( उवसमखाइयसम्म) उपशम और क्षायिक सम्यक्त्व होते हैं । (खओवसमिएस) क्षायोपशमिक भांवों में से (मणपज्जव) मनः पर्ययज्ञान, (देसजमं) देशसंयम और (सरागचरिया) सरागचारित्र ( तियपरिणामा ण) इन भावों को छोड़कर (सेस) शेष पन्द्रह भाव (हवे) होते हैं । (ओदइए) तथा औदयिक भावों में से (थी
(68)
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संद) स्त्रीवेद नपुंसक वेद, (अण्णगीतिदयमसुहतियलेस्स) मनुष्यगति से अन्य तीन गतियाँ, तीन अशुभ लेश्याएँ (अवणिय) कम करके (सेसा) शेष 13 औदयिक भाव (हुति हु) होते हैं।
मावार्थ -मोग भूमिज पर्याप्तक मनुष्यों के 2 औपशमिक भावों में से उपशम सम्यक्त्व तथा 9 क्षायिक भावों में से क्षायिक सम्यक्त्व मात्र होता है। 18 क्षायोपशमिक भावों में सेमनःपर्यय ज्ञान, देशसंयम और सरागचारित्र इन तीन भावों को छोड़कर शेष पन्द्रह भाव होते हैं। वे पन्द्रह भाव इस प्रकार हैं - तीन सम्यग्ज्ञान, तीन कुज्ञान, तीन दर्शन, पाँच क्षायोपशमिक लब्धि और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व । 21 औदयिक भावों में से स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, नरकगति, तिर्यंचगति, देवगति, कृष्ण, नील और कापोत लेश्या ये आठ भाव कम करने पर शेष 13 भाव होते हैं। वे तेरह भाव इस प्रकार हैं - पुरुष वेद. मनुष्यगति चार कषाय, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व तीन शुभ लेश्याएँ।
संदृष्टि नं. 24 भोगभूमिज मनुष्य पर्याप्तक भाव (33) भोगभूमिज मनुष्य के पर्याप्तक अवस्था में 33 भाव होते है । जो इस प्रकार है सम्यक्त्व, ज्ञान 3,कुज्ञान3, दर्शन, झायोपशमिक लब्धि, असंयम, मनुष्यगति, कषाय 4, पुरुषवेद, शुभ लेश्या , अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, पारिणामिक भाव
गुणस्थान मिथ्यात्वादि 4 होते है गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव . । अभाव मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्व, |26 (कुज्ञान 3, दर्शन 17 (सम्यक्त्व ३, ज्ञान 3, अभव्यत्व)
2, लायो.लब्धि 5, अवधि दर्शन) असंयम, मनुष्यगति, कषाय 4, पुरुषवेद, शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धाव, मिथ्यात्व,
पारिणामिक गाव ) सासादन ३ (कुज्ञान 3) 24 (उपर्युक्त 26- 19(उपर्युक्त T+मिथ्यात्व
मिथ्यात्व, अभव्यत्व) | अमव्यत्व)
जमाव
169)
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गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव .
अभाव मिश्र
bs (उपर्युक्त | (उपर्युक्त - अवधि 24+अवधिदर्शन +3 दर्शन)
मियान - वान असंयत । (असंयम) 12s (सम्यक्त्व 1, ज्ञान 35 (कुज्ञान 3, मिथ्यात्व,
दर्शन , क्षायोपशमिक अभव्यत्व) लन्धि , असयम, मनुष्यगति, कवाय, पुरुषवेद शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिन्दत्व जीवत्व और भव्यत्व)
तण्णिव्वत्तिअपुण्णे असुहतिलेस्सेव उवसमं सम्म। वेभंग ण हि अयदे जहण्णकावोदलेस्सा हु ॥68।।
तन्निवृत्यपूर्णे अशुभत्रिलेश्या एव, उपशमं सम्यक्त्वं ।
विमंगं न हि अयते जघन्यकापोतलेश्या हि || अन्वयार्थ - (तण्णिव्वत्तिअण्णे) भोग भूमिज मनुष्यों के निवृत्यपर्याप्त अवस्था में (असुहृतिलेस्सेव) तीन अशुभ लेश्याएं ही होती हैं। (उवसमै सम्म) उपशम सम्यक्त्व (विभंग) विभंगावधि ज्ञान (ण हि) नहीं होता है। (अयदे) तथा चतुर्थ गुणास्थान में (जहण्णकाबोदलेस्सा हु) जघन्य कापोत लेश्या होती है।
संदृष्टि नं. 25 भोगभूमिज मनुष्य निर्वृत्यपर्याप्तक (31) मोगभूमिज मनुष्य के निर्दृत्य पर्यास अवस्था में 11 भाव होते है। जो इस प्रकार है -सायिक सम्यक्त्व, कृतकृल्य वेदक, ज्ञान 3, कुशान 2, दर्शन 3, क्षायोपशमिक लब्धि 5, असंयम, मनुष्यगति, कषाय 4, पुरुषवेद, अशम लेश्या 3, अज्ञान, असिदत्व, मिथ्यात्व, पारिणामिक भाव 31 गुणस्थान मिध्यात्व, सासादन, और असंयत ये तीन ही होते है।
(70)
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गुणस्थान भाव व्युच्छिति
भाव
अभाव
मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्व 25 (कुज्ञान 2, मायो. 16 (सम्यक्त्व 2, ज्ञान 3, अभव्यत्व) लन्धि 5, असंयम, अवधिदर्शन)
मनुष्यगति, कषाय 4, पुरुषवेद, 3 अशुभ लेश्या, अज्ञान असिद्धत्व, मिथ्यात्व,
पारिणामिक भाव 3) सासादन |4(कुज्ञान 2, 23 (उपर्युक्त 25- । (उपर्युक्त 6+ मिथ्यात्व,
कृष्ण, नील मिथ्यात्व, अमन्यत्व) |अभव्यत्व) लेश्या )
असंयत 12 (असंयम, 25 (वेदक, क्षायिक |6 (कुज्ञान 2, कृष्ण, कापोत लेश्या) सम्यक्रम 2, शान 3, | नाल संश्या, मध्याय,
दर्शन 3, वायोपशमिक अभव्यत्व) लब्धि 5, असंयम मनुष्यगति, कषाय, पुरुषवेद, कापोत लेश्या, अज्ञान, | असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 2)
एवं भोगत्थीणं खाइयसम्मं च पुरिसवेदं च । ण हि थीवेदं विज्नदि सेसं जाणाहि पुन्वं व 169॥ एवं भोमस्त्रीणां क्षायिकसम्यक्त्वं च पुरुषवेदं च |
न हि, स्त्रीवेदो विद्यते शेष जानीहि पूर्वमिव ।। अन्वयार्थ - (एवं) इस प्रकार (भोगत्थीण) मोगभूमिज स्त्रियों के (खाइसम्म) क्षायिक सम्यक्त्व (च) और (पुरिसवेदं) पुरुषवेद (ण हि) नहीं होता है (थीवेद) स्त्री वेद (विज्जदि) होता है (सेस) शेष कथन (पुवं व) पूर्ववत् (जाणाहि) जानना चाहिए ।
(710
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संदृष्टि नं. 26 भोगभूमिज स्त्री पर्याप्तक भाव (32) भोगभूमिज स्त्री के पर्याप्तक अवस्था में 32 भाव होते है जो इस प्रकार है- मोग भूमिज पर्याप्त मनुष्य के 33 भावो में सेक्षायिक सम्यक्त्व कम करने पर 32 प्राव यहां जानना चाहिए । गुणस्थान आदि के चार ही होते है। गुणस्थान भाव व्युच्छिति भाव
अभाव मिथ्यात्व | 2 (मिथ्यात्व |(26) (कुज्ञान , दर्शन | 6 (उपशम, क्षयो, अभव्यत्व) 12, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, ज्ञान, अवधि
लब्धि 5, असंयम, दर्शन) मनुष्य गति, कषाय, स्लीबेड, सानेगा , अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, पारिणामिक
भाव 3) सासादन |3 (कुज्ञान3) | 24 (उपर्युक्त 26.2 8(उपर्युक्त 6+ गिथ्यात्व,
| मिथ्यात्व, अभव्यत्व) | अभब्यत्व) मित्र 10
25 (मिश्र ज्ञान 3, 17 (उपशम, वायो. दर्शन 3,
सम्यक्त्व, ज्ञान, क्षायोपशगिक लब्धि
मिथ्यात्व, अभव्यत्व) 5, असंयम, मनुष्यगति, कषाय 4, स्त्रीवेद, शुभ लेश्या, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व)
अविरत
: (असंयम)
5 (कुज्ञान 3, मिथ्यात्व, अभव्यत्व)
27 (औपशमिक सम्यक्त्व, हायोपशभिक सम्यक्च, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायोपशमिक लन्धि 5, असंयम, मनुष्यगति, कषाय, स्त्रीवेद, शुभ लेश्या 3,अज्ञान, असिद्धत्व पारिणामिक भाव 2)
(72)
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(खाइयं) क्षायिक (सम्म) सम्यक्त्व (ण हि) नहीं होता है |
भावार्थ - देवों के देव गति होती है शेष भाव पर्याप्त भोग भूमिज मनुष्य के समान है । भवनत्रिक देव देवियों में एवं कल्पवासी देवियों में क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता है क्योंकि जिन जीवों ने क्षायिक सम्यग्दर्शन होने के पूर्व देवायु का बंध कर लिया है ऐसे मनुष्य देव पर्याय में उत्पन्न होने पर भी भवनत्रिक देव देवियों एवं कल्पवासी देवियों में उत्पन्न न होकर कल्पवासी देवों में ही उत्पन्न होते हैं।
भवणतिसोहम्मदुगे तेउजहण्णं तु मज्झिमं तेऊ । साणक्कुमारजुगले तेऊवर पम्मअवरं खु 117211 भवनत्रिक सौधर्मद्धिके तेजोजघन्यं तु मध्यम तेजः ।
सनत्कुमारयुगले तेजोवरं पद्मावरं खलु ॥ अन्वयार्थः- (भवणति) भवनत्रिको के तेउजण्ण) जघन्य पीतलेश्या (सोहम्मदुगे) सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में (मज्झिमं तेऊ) मध्यम पीत लेश्या (साणक्कुमारजुगले सानत्कुमार युगल अर्थात् सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में (तेऊवर) उत्कृष्ट पीत और (पम्मअवरं खु) जघन्य पद्म लेश्या होती है।
बह्माछ के पम्मा सदरदुगे पम्मसुक्क लेस्सा हु । आणदतेरे सुक्का सुक्कुक्कसा अणुदिसादीसु 73।। ब्रह्मषट् के पद्मा सतारद्विके पद्मशुक्ललेश्ये हि ।
आनतत्रयोदशसु शुक्ला शुक्लोत्कृष्टा अनुदिशादिषु ॥ अन्वयार्थ :- (बह्माछक्के ) ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कातिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र कल्पों में (पम्मा) मध्यम पद्म लेश्या तथा (सदरदुगे) शतार औरसहस्रार कल्प में (पम्मसुक्कलेस्सा) उत्कृष्ट पद्म और जघन्य शुक्ल लेश्या (आणद तेरे) आनत स्वर्ग को आदि लेकर तेरह स्थानों में अर्थात् आनत आदि चार और नव ग्रैवेयक में (सुक्का) मध्यम शुक्ल लेश्या (अणुदिसादीसु) तथा अनुदिशऔर अनुत्तर विमानों में (सुक्कुक्कसा) परमशुक्ल लेश्या पाई जाती है। भावार्थ - भवनत्रिक में तेजोलेश्या का जघन्य अंश है, सौधर्म, ईशान
(73)
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तदपज्जतीसु हवे असुहतिलेस्सा हु मिच्छदुगठाण। वेभंगंचण विज्जदि मणुवगदिणिरूविदा एवं ||70|| तदपर्यासिकासु भवेदशुभत्रिलेश्या हि मिथ्यात्वद्विकस्थान । विमंगं च न विद्यते मनुष्यगतिनिरूपिता एवं ॥ अन्वयार्थ - (तदातासु, भांग भूमिज निर्वृत्य पर्याप्तक स्त्रियों के अपर्याप्त अवस्था में (असु हतिलेस्सा) तीन अशुभ लेश्याएं (मिच्छ दुगठाण)मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं। (च)
और (वेभंग) विभंगावधि ज्ञान (ण विनदि) नहीं होता है (एव) इस प्रकार (मणुवगतिणिरुविदा) मनुष्यगति का निरूपण किया।
संदृष्टि नं.27 भोगभूमिज स्त्री निर्वृत्यपर्याप्त (25) भोगभूमिज स्त्री के निर्वत्यपर्याप्त अवस्था में 25 भाव होते है | जो इस प्रकार हैकुशान 2, दर्शन 2, क्षायोपशमिक लब्धि , असंयम, मनुष्यगति, कषाय 4, स्त्रीवेद, अशुभ ३ लेश्या, अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, पारिणामिक भाव । गुणस्पान मिथ्यात्व और सासादन ये दो होते है। गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव मिथ्यात्व (मिथ्यात्व 25 (उपर्युक्त) | (उपर्युक्त)
अभव्यत्व) सासादन 2 (कुज्ञान 2) [23 (उपर्युक्त 25-2 12(मिथ्यात्व, अभव्यत्व)
मिथ्यात्व, अभव्यत्व)
अभाव
देवाणं देवगदी सेसं पज्जत्तभोगमणुसं वा । भवणतिगाणं कपित्थीणं ण हिखाइये सम्म ||1|| देवाना देवगतिः शेषाः पर्याप्तभोगमनुष्यवत् ।
भवनत्रिकाणां कल्पस्त्रीणां न हि क्षायिक सम्यक्त्वं ।। अन्वयार्थ :- (देवाणं) देवों के (देवगदी) देवगति होती है (सेस) शेष कथन (पज्जत्तभोगमणुस वा) पर्याप्त भोग भूमिज मनुष्यों के समान है विशेषता यह है कि रमवणतिगाणं) भवनत्रिक अर्थात् भवनवासी व्यंतर, ज्योतिषी देव देवियों के और (कपित्त्यीणं) कल्पवासिनी देवियों के
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स्वर्ग में तेजोलेश्या का मध्यम अंश, सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में तेजोलेश्या का उत्कृष्ट अंश एवं पद्मलेश्या का जघन्य अंश है | ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र इन छह स्वर्गों में पद्मलेश्या का मध्यम अंश है | सतार, सहन्द्रा में परमालेल्या का अंश इदं शुक्ल लेश्या का जघन्य अंश है। गाथा में "आणदतेरे" शब्द का प्रयोग किया गया अर्थात् आनत, प्राणत, आरण, अच्युत और नव गैवेयक इन तेरह स्थानों में मध्यम शुक्ललेश्या है इस प्रकार जानना चाहिये, एवं नव अनुदिश और पंच अनुत्तर विमानों में उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या होती है।
पुंवेदो देवाणे देवीणं होदि थीवेदं । भुवणतिगाण अपुण्णे असुहृतिलेस्सेव णियमेण ||740
पुंवेदो देवानां देवीनां भवति स्त्रीवेदः ।
भुवनत्रिकानां अपूर्णे अशुभत्रिलेश्या एव नियमेन || अन्वयार्थ :- (देवाण) देवों में {{वेदो) पुंवेद (देवीण) देवियों में (थीवेद) स्त्रीवेद (होदि) होता है। (भुवणतिगाण) भवनत्रिक की (अपुण्णे) अपर्यासक अवस्था में (णियमेण) नियमसे (असुहतिलेस्सेव) अशुभ तीन लेश्यायें ही पाई जाती हैं।
कप्पित्थीणमपुण्णे तेऊलेस्साए मज्झिमो होदि। उभयत्थ ण वेभंगो मिच्छो सासणगुणो होदि ।।5।। कल्पस्त्रीणामपूर्णे तेजोलेश्यायाः मध्यमो भवति ।
उभयत्र न विमंग मिथ्यात्वं सासादनगुणो भवति । अन्वयार्थ :- (कप्पित्थीणमपुण्णे) कल्पवासी स्त्रियों के अपर्याप्तक अवस्था में (तेऊलेस्साए) पीत लेश्या के (मज्झिमो) मध्यम अंश होते हैं। (उभयत्र) भवनत्रिकदेव, देवी और कल्पवासी देवीयों में रण वेभंगो) विभंग ज्ञान नहीं होता है | (मिच्छो) मिध्यात्व और (सासणगुणो) सासादन गुणस्थान होता है।
सोहम्मादिसु उवरिमगेविज्जतेसु जाव देवाण । णिचत्तिअपुण्णाणंण विभंग पदमविदियतुरियठाणा ||76||
सौधर्मादिषु उपरिमग्रै वेयकान्तेषु यावद्देवानां । निवृत्यपूर्णानां न विभंग प्रथमद्वितीयतुर्यस्थानानि ॥
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अन्वयार्थ :- (सोहम्मादिसु) सौधर्म स्वर्ग को आदि लेकर (उपरिमगेविजंतेसु) उपरिम | वेयक (जाव) तक के (देवाणं) देवों के (णिव्वत्ति अपुण्णाणं) निवृर्त्य पर्याप्तक अवस्था में (विमंग) विमंगावधि ज्ञान (ण) नहीं होता है और (पढमविदियतुरियठाणा)प्रथम, द्वितीय एवं चतुर्थ गुणस्थान होता है।
संदृष्टि 28
देवगति भाव (33) सामना तो देवमति में फुट 31 मार होते है जो इस प्रकार है -सम्यक्त्व 3, ज्ञान 1, कुज्ञान 3, दर्शन , शायो. लब्धि , असंयम, देवगति, कषाय 4, पुवेद, शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, पारिणामिक भाव 3 | गुणस्थान आदि के 4 होते है। गुणस्थान| भाव व्युच्छिति भाव
अभाव मिथ्यात्व | 2 (मिथ्यात्व |26 (कुज्ञान 3, दर्शन 2,17 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, अभव्यत्व)
क्षायोपशमिक लब्धि 5, | अवधिदर्शन) असंयम, देवगति, कषाय, पुल्लिंग, शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व,
पारिणामिक भाव ) सासादन] १ (कुज्ञान 3) | 24(उपर्युक्त 26-2 19(उपर्युक्त 1+2
(मिथ्यात्व, अगव्यत्व) |(मिथ्यात्व, अभव्यत्व) 25 (मिश्रज्ञान 3, दर्शन (उपर्युक्त - 3, क्षायो. लब्धि, अवधिदर्शन) असंयम, देवगति, कषाय 4, पुल्लिंग, शुभ | लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व,
भव्यत्व) अविरत | 2 (असंयम, | 28 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान | 5(कुज्ञान 3, मिथ्यात्व देवगति) | 3, दर्शन 3, क्षायो.
अभव्यत्व) लब्धि 5, असंयम, देवगति, कषाय 4, पुल्लिंग, शुभ लेश्या, अचान असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व)
मिश्र
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संदृष्टि नं.29 भवनत्रिक + कल्पवासी देवी भाव (30) पर्याप्त भवनधिक देव, देवी एवं कल्पवासी देवी इनके 30 भाव होते है। जो इस प्रकार है - सामान्य देवो के 33 भावो में से क्षायिक सम्यक्त्व, पदम और शुक्ल लेश्या इसप्रकार तीन भाव कम करने पर शेष 30 भाव जानना चाहिए । इनके आदि के बार गुणस्थान होते है। , सीट 28
गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति
भाव
अभाव
मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्व
अभव्यत्व)
6 (सम्यक्त्व 2, ज्ञान, अवधि दर्शन)
24 (कुज्ञान 3, दर्शन 12, क्षायोपशमिक लन्धि , असंयम, देवगति, कषाय, विवक्षित लिंग पीत लेश्या , अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, पारिणामिक भाव 3)
सासादन 3 (कुज्ञान 3) |22 ( उपर्युक्त 24-2 (उपर्युक्त 6+ मिथ्यात्व,
(मिथ्यात्व, अभव्यत्व) अभव्यत्व)
मिया
123 (उपर्युक्त 22 + 17(उपर्युक्त 8- अवधि
अवधि दर्शन, दर्शन, 3 मिश्रज्ञान +1 मित्रज्ञान, - कुशान 3) |कुज्ञान)
अविरत |2 (असंयम,
देवगति)
(कुज्ञान 3, मिथ्यात्व भव्यत्व)
|25 (क्षायो. सम्यक्त्व
औप. सम्यक्त्व, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, अर्सयम, देवगति, कषाय 4, विवक्षित लिंगी, पीत लेश्या, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व)
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संदृष्टि नं. 30 भवनत्रिक निर्वृत्यपर्याप्तक भाव (25) भवनत्रिक देव देवियों को निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में 25 माव होते है जो इस प्रकार है - कुमति ज्ञान, कुशुतज्ञान, चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन, क्षायोपशमिक लब्धि, असंयम, देवगति, कषाय 4, विवक्षित लिंग1, अशुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, पारिणामिक भाव 3 | गुणस्थान आदि के दो होते है। गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव । मिथ्यात्व | 2 (मिथ्यात्व, 25 (उपर्युक्त )
अगव्यत्व) सासादन | 2 (कुजान 2) |23 (उपर्युक्त 25- 2 (मिथ्यात्व, अभव्यत्व)
| मिथ्यात्व, अमव्यत्व)
अभाव
संदृष्टि नं. 31 कल्पवासी देवी निर्वृत्यपर्याप्तक भाव (23) कल्पवासी देवियों के अपर्याप्त अवस्था में 23 होते है जो इस प्रकार है - कुज्ञान 2, दर्शन2, क्षायो. लन्धि 5, असंयम, देवगति, कषाय 4, स्त्रीवेद, पीत लेश्या, अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, अभव्यत्व पारिणामिक भाव 3 | गुणस्थान आदि के दो होते है। गुणस्थान भाव ब्युच्छिति भाव । अभाव मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्व, 23 (उपर्युक्त कथित) |
अमव्यत्व)
2 (मिथ्यात्व,
सासादन | 2 (कुज्ञान 2) |21 (उपर्युक्त 23 -
| मिथ्यात्व,अभव्यत्व)
अभव्यत्व)
(78)
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संदृष्टि नं. 32
सौधर्म - ऐशान स्वर्ग भाव (31) सौधर्म-ऐशान स्वर्ग के देवों के पर्याप्त अवस्था में 31 भाव होते हैं। जो इस प्रकार है - सम्यक्त्व 3, कुज्ञान 3, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायो, लब्धि 5, देवगति कषाय 4, पुल्लिंग, मिथ्यात्व, पीत लेश्या, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व पारिणामिक भाव 31 गुणस्थान मिथ्यात्व आदि 4 होते हैं। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव ब्युच्छित्ति भाव
अभाव
(सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, अवधिदर्शन)
मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्व, 24 (कुज्ञान , चक्षु, अभव्यत्व)
अचक्षु दर्शन, क्षायो, लब्धि 5, देवगति, कषाय 4, मिथ्यात्व, पीत लेश्या, असंयम, पुल्लिंग, अज्ञान, असिद्धत्व पारिणामिक | भाव 37
सासावन 3 (कुज्ञान 3) |22 (उपर्युक्त 24 - 19(उपर्युक्त +
मिथ्यात्व, अभव्यत्व) | मिथ्यात्व, अभब्यत्व) मिश्र 10
23 (मिश्रज्ञान 3, दर्शन (उपर्युक्त 9 +कुज्ञान ३, पायो. लब्धि, I3- मित्रज्ञान, अवधि देवगति, कषाय, दर्शन) पीतलेश्या, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व, पुल्लिंग)
अविरत
2 (देवगति । 126 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान 15 (कुज्ञान 3, मिथ्यात्व, असंयम) 13, दर्शन , झायो. अभव्यत्व)
लब्धि , देवगति, कवाय, पीतलेश्या, पुल्लिंग असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व)
(79)
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संदृष्टि नं, 33 सौधर्म - ऐशान स्वर्ग अपर्याप्तक भाव (30) सौधर्भ-ऐशान स्वर्ग में अपर्याप्त अवस्था में 30 भाव होते हैं। जो इस प्रकार हैं - सम्यक्त्व 3, कुज्ञान 2, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, देवगति, कषाय , पुल्लिंग, मिथ्यात्व, पीत लेश्या, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व पारिणामिक भाव 31 गुणस्थान मिथ्यात्व, सासादन और अविरत ये तीन होते हैं। संदृष्टि इस प्रकार है
गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव
अभाव मिध्यात्व 12(मिथ्यात्व. 123 (कुज्ञान 2, चक्षु, [1 (सम्यक्त्व 3, जान 3, अभव्यरत) अचम्न दर्शन, झायो | अवधिदर्शन)
लब्धि 5, देवगति, कषाय 4, पुल्लिंग, | मिथ्यात्ब, पीत लेश्या, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व,
पारिणामिक भाव 3) सासादन 2 (कुशान 21 21 (उपर्युक्त 23 - | |9 (उपर्युक्त 1 +
मिथ्यात्व, अभव्यत्व) | मिध्यात्व, अमव्यत्व)
अविरत
2 (देवगति असंयम)
26 (उपर्युक्त 21- 4(कुज्ञान 2, मिथ्यात्व, कुज्ञान 2, + सम्यक्त्व | अभव्यत्व) 2, ज्ञान 1, अवधि दर्शन)
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भाव
संदृष्टि नं. 34 सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग भाव (32) सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग में 32 भाव होते हैं । जो इस प्रकार है - सम्यक्त्व, कुज्ञान 3, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, देवगति, कषाय, मिथ्यात्व, पीत लेश्या, पद्म लेश्या, पुल्लिग, अज्ञान, असम, असित्य, धारिणायक शान 31, गुणस्थान मिथ्यात्व, आदि चार होते हैं। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छिति भाव
अभाव मिथ्यात्व | 2 (मिथ्यात्व, 125 (कुज्ञान 3, चहा, | 1 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, अभव्यत्व)
अचक्षु दर्शन, झायो अवधिदर्शन) लब्धि 5, देवगति, कषाय, मिथ्यात्व, पीत पद्म लेश्या, पुल्लिंग, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व पारिणामिक भाव 3)
सासादन 3 (कुज्ञान 1) |23 (उपर्युक्त 25- 9 (उपर्युक्त 7 +
मिथ्यात्व, अभव्यत्व) | मिथ्यात्व, अभव्यत्व)
मिन
. |24 (मित्रज्ञान 3, दर्शन| 8 (उपर्युक्त 9- कुज्ञान 3
3, क्षायो. लब्धि 5, + मिश्रज्ञान 3, देवगति, कषाय 4, पीत, | अवधिदर्शन) पद्म लेश्या, पुल्लिंग, । अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व, जीवत्व,
भव्यत्व) अविरत |2 (देवगति, ।
|21 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान | 5 (कुज्ञान 3, मिध्यात्व, असंयमा
3, दर्शन 3, झायो. अभव्यत्व) लब्धि 5, देवगति, कषाय 4, पीत, पद्म लेश्या, पुल्लिंग, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व,जीवत्व, प्रव्यत्व)
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सदृष्टि नं. 35 सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग अपर्याप्तक भाव (31) सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग में अपर्याप्त अवस्था में 31 भाव होते हैं। जो इस प्रकार हैं - सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, कुज्ञान 2, दर्शन 3, झायो. लब्धि 5, देवगति, कषाय +, मिथ्यात्व, पीत पद्म लेश्या, पुल्लिंग, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 | गुणस्थान मिथ्यात्व, सासादन और असयत ये होते हैं। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छिति भाव
अभाव मिथ्यात्व |2(मिथ्यात्व, 124 (कुज्ञान 2, चक्ष, 1(सम्यक्त्व ३, ज्ञान ३, अभव्यत्व) अचक्षु दर्शन, सायो | अवधिदर्शन)
| लब्धि 5, देवगति कषाय, मिथ्यात्व, पीत, पदम लेश्या, अज्ञान, असंयम, पुल्लिंग, मसिद्धत्व पारिणामिक भाव 1
सासादन|2 (कुज्ञान 2) |22 (उपर्युक्त 24 - (उपर्युक्त 7 +
मिथ्यात्व, अभव्यत्व) | मिध्यात्व, अभव्यत्व)
अविरत | 2 (देवगति 27 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान | 4(कुज्ञान 2, मिथ्यात्व, असंयम) 3, दर्शन 3, झायो. अभव्यत्व)
लब्धि 5, देवगति, कषाय, पीत, पद्म लेश्या, अज्ञान, पुल्लिंग, असयम, आसिद्धत्व, जीवत्व, मव्यत्व)
(82)
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संदृष्टि नं.36
ब्रह्मादि छह स्वर्ग भाव (31) ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र और महाशुक्र स्वर्ग में पर्याप्त अवस्था में 31 भाव होते हैं। जो इस प्रकार है - इन स्वर्गों में भाव आदि का कथन सौधर्म ऐशान स्वर्ग के देवों के समान ही जानना चाहिए मात्र इन स्वर्मों में पीत लेश्या के स्थान पर पद्म लेश्या समझना चाहिए। संदृष्टि इस प्रकार है - दे. संदृष्टि (22) सौधर्म - ऐशान स्वर्ग गुणस्थान| भाव व्युच्छित्ति
अभाव मिथ्यात्व
भाव
सासादन
मित्र
अविरत
संदृष्टि नं. 37 ब्रह्मादि छह स्वर्ग अपर्याप्त भाव (30) ब्रह्मा, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र और महाशुक्र स्वर्ग में 9 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं - इन स्वर्गों में भाव आदिका समस्त कथनसौधर्मयुगल की अपर्याप्त अवस्था के समान समझना चाहिए। मात्र पीत लेश्या के स्थान पर इन स्वगों में पद्म लेश्या समझना चाहिए। संदृष्टि इस प्रकार है - दे. सौधर्म - ऐशान स्वर्म अपर्याप्त संदृष्टि (33)। गुणस्थान भाव व्युच्छिति भाव
अभाव मिथ्यात्व
23
सासादन
अविरत
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संदृष्टि नं.38
शतार युगल भाव (32) शतार, सहसार स्वर्ग में पर्याप्त अवस्था में 32 भाव होते हैं। शतार युगल के मावों का समस्त कथन सानत्कुमार युगल के समान ही जानना चाहिए। मात्र शतार युगल में पीत, पद्म लेश्या के स्थान पर पद्म शुक्ल लेश्या समझना चाहिए। संदृष्टि इस प्रकार है - दे. संदृष्टि (34) सानत्कुमार • माहेन्द्र स्वर्ग गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव | अभाव मिथ्यात्व सासादन] मिश्र अविरत |
संदृष्टि नं. 39
शतार युगल अपर्याप्त भाव (31) शसार, सहसार स्वर्ग में अपर्याप्त अवस्था में 31 भाव होते हैं । शतार सहयार स्वर्ग के भावों का समस्त कथन सानत्कुमार युगल अपर्याप्त अवस्था के समान ही जानना चाहिए । मात्र पीत, पद्म लेश्या के स्थान पर पद्म शुक्ल लेश्या समझना चाहिए । संदृष्टि इस प्रकार है . दे. संदृष्टि (35) सानत्कुमार - माहेन्द्र स्वर्ग अपर्याप्त गुणस्यान भाव व्युच्छिति । भाव
अभाव
मिथ्यात्व
सासादन अविरत
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मानत, प्राणत, अश्रण, अच्युत एवं नौ ग्रैवेयक इन 13 स्वर्गों में 31 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं- इनके भाव आदि का समस्त कथन सौ धर्म युगल के ही समान है मात्र इन आनत आदि 13 में पीत लेश्या के स्थान पर शुक्ल लेश्या समझना चाहिए । संदृष्टि इस प्रकार है दे संदृष्टि सौ धर्म ऐशान स्वर्ग (32)
-
संदृष्टि नं. 40 आनतादि 13 स्वर्ग भाव ( 31 )
गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति
मिथ्यात्व
2
सासादन
मिश्र
अविरत
सासादन
अविरत
3
0
2
2
-
भाव
2
24
2
༡༡
चार्ट नं. 41 आनतादि 13 अपर्याप्त भाव ( 30 )
23
26
-
आनतादि 13 की अपर्याप्त अवस्था में 30 भाव होते हैं जो इस प्रकार है इनके भाव आदि का समस्त कथन सौधर्म युगल की अपर्याप्त अवस्था के ही समान है । मात्र पीत लेश्या के स्थान पर शुक्ल लेश्या समझना चाहिए। संदृष्टि इस प्रकार है - दे. सौधर्म ऐशान स्वर्ग अपर्याप्त ( 33 )
गुणस्थान भाव व्युच्छिसि ।
भाव
मिथ्यात्व
23
21
-
26
अभाव
(85)
7
अभाव
9
8
5
7
9
4
Page #93
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अबुदिसु अगुसरेसु हिमाश देला हवंति लट्ठिी । तम्हा मिच्छमभव्वं अण्णाणतिगं चण हि तेसि ॥॥
अनुदिशेषु अनुत्तरेषु जाता देवा भवन्ति सदृष्ट यः ।
तस्मान्मिथ्यात्वमभव्यत्वं अज्ञानत्रिकं च न हि तेषां ।। अन्वयार्थ :- (अणुदिसु) नव अनुदिशऔर (अणुत्तेरसु) पंच अनुत्तरों में (जादा) उत्पन्न (देवा) देव (हि) नियम से (सचिट्ठी) सम्यग्दृष्टि (हवंति) होते हैं (तम्हा) इसलिये (तेसिं) उनमें (हि) नियम से (मिच्छमभव्वं) मिथ्यात्व, अभव्यत्व और (अण्णाणतिग) कुमति, कुश्रुत और विभंगज्ञान (ण) नहीं (हवंति) होते हैं।
संदृष्टि नं. 42
अनुदिश आदि 14 भाव (26) नौ अनुदिश और पांच अनुसर इन 14 स्थानों में 26 माव होते नो इस प्रकार है - सम्यक्त्व 3, ज्ञान, दर्शन 3, मल्यो. लन्धि 5, देवमति, कपाय, शुक्ल लेश्या, पुल्लिंग, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व और भव्यत्व । इन 14 स्थानों में नियम से सभी देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं अतः इनके गुणस्थान एक 'अविरत सम्यग्दृष्टि (4) ही होता है । संदृष्टि इस प्रकार हैगुणस्थान भाव व्युच्छिति भाव
अभाव मिथ्यात्व
26 (उपर्युक्त)
इति गति मार्गणा
(86)
Page #94
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एयक्खविगतिगक्खे तिरियगदी संढकिण्हतियलेस्सा। मिच्छ कसायासजममणाणमसिद्धमिदि एदे ||78।।
एकाक्षरियो तिमतिः कृष्णशिकलेल्या. । मिथ्यात्वकषायासंयम अज्ञानमसिद्धमित्येते ॥ दाणादिकुमदिकुसुदं अचक्खुदंसणमभव्वमव्वत्तं । जीवत्तं चेदेसिं चदुरक्खे चक्खुसंजुत्तं ॥79|| दानादिकुमतिकुश्रुतं अचक्षुर्दर्शनमभव्यत्वभव्यत्वे ।
जीवत्वं चैतेषां चतुरक्षे चक्षुःसंयुक्तम् || अन्वयार्थ :- (एयक्खविगतिगक्खे) एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय जीवों में (तिरियगदी) तिर्यंचगति (संढ किण्हतियलेस्सा) नपुसंकवेद, कृष्णादि तीन अशुभ लेश्यायें (मिच्छकसायासंजममणाणमसिद्धमिदि) मिथ्यात्व, चार कषाय, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व (ऐ)ये (चेदेसि)और इनमें (दाणादिकुमदिकुसुदं) दानादि 5 लब्धियाँ, कुमति, कुश्रुतज्ञान, (अचक्खुदसणमभव्यभव्चत्तम्) अचक्षुदर्शन, अभव्यत्व, भव्यत्व, (जीवत्त) जीवत्व ये सभी भाव पाये जाते हैं तथा (चदुरक्खे) चतुरिन्द्रिय जीवोंमें (चक्खुसंजुत्त) चक्षुदर्शनसेसहित उपर्युक्त सभीभाव पाये जाते हैं।
संदृष्टि नं. 43 एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय भाव (24) एकेन्द्रिय, हीन्द्रिय एवं त्रीन्द्रिय के भाव होते हैं जो इस प्रकार है - कुज्ञान 2, अचल वर्शन, शायो. लब्धि, तिथंच गति कषाय A, नपुंसक लिंग, अशुभ लेश्या 3, मिथ्यात्य, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 31 गुणस्थान मिथ्यात्व और सासादन ये दो होते हैं। संदृष्टि इस प्रकार हैगुणस्यान भाव न्युच्छित्ति भाव । अभाव मिथ्यात्व | 2 (मिथ्यात्व, 24 (उपर्युक्त)
अमव्यत्व)
सासादन [0
22 (उपर्युक्त 24- 2 (मिथ्यात्व, | मिष्यात्व, अभव्यत्व) | अभव्यत्व)
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संदृष्टि चार्ट नं. 44
चतुरिन्द्रिय भाव (25) चतुरिन्द्रिय के 23 माव होते हैं जो इस प्रकार हैं - कुशान 2, चक्षु अचक्षु दर्शन, क्षायो. लब्धि, तिथंच गति, कषाय, नपुंसक लिंग, अशुभ लेश्या 3, मिथ्यात्व, असेयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 । गुणस्थान मिथ्यात्व और सासादन ये दो होते हैं। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव ।
अभाव
मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्व, |25 (उपर्युक्त)
अभव्यत्व)
सासादन]0
23 (25 उपर्युक्त . मिथ्यात्व, अमव्यत्व)
2 (मिथ्यात्व, | अभव्यत्व)
पंचेदिएसु तसकाइएसु दु सव्वे हवंति भावा हु । एयं वा पण काए ओराले णिरयदेवगदीहीणा ||80|| __ पंचेन्द्रियेषु त्रसकायिकेषु तु सर्वे भवन्ति भावा हि ।
एक वा पंचकाये औदारिके नरकदेवगतिहीनाः ।। अन्वयार्थ :- (पंचेदिएसु ) पंचेन्द्रिय जीवों में (तसकाइएसु) तथा त्रसकायिकों में (हु) निश्चय से (सव्वे) सभी (भावा) भाव (हवंति) होते हैं । (पंचकाये) पाँच स्थावरों में (एयं वा) एकेन्द्रिय वत् सभी भाव जानना चाहिए और (ओराले) औदारिक काययोग में (णिरयदेवगदीहीणा) नरकगति और देवगति नहीं पाई जाती है । स्पष्टीकरण के लिए संदृष्टि 45-48
(88)
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संदृष्टि नं. 45 पंचेन्द्रिय और वसकाय भाव (53) पंचेन्द्रिय और व्रसकाय में गुणस्थानवत् १ भाव होते हैं। इनके व्युच्छित्ति आदि का कषन गणस्थानवत् ही जानना चाहिए | गणस्थान 14 होते हैं। इनकी संदृष्टि निम्न प्रकार है - दे. संदृष्टि । गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति माव । अभाव । मिथ्यात्व | 2
34
सासादन
21
20
16
17
22
22
28
25
2B
25
मित्र अविरत देश संयम प्रमत्त संयत अप्रमत्स संयत अपूर्व करण अनिवृत्ति-| करण सवेद अनिवृत्तिकरणअवेध सूक्ष्मसाम्पराय उपशांत मोह झीण मोह सयोग केवनी अयोग केवली
25
28
22
31
32
20
|
33
40
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संदृष्टि नं. 46 पृथ्वी, जल एवं वनस्पति कायिक भाव (24) पृथ्वी, जल, वनस्पति कायिक के 24 भाव होते हैं। जो इस प्रकार - कुशान 2, अचक्षु दर्शन, क्षायो. लब्धि 5, तिथंच गति, कषाय 4, नपुंसकलिंग, अशुभ लेश्या 3, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व पारिणामिक भाव 38 गुणस्थान मिथ्यात्व
और सासादन ये दो होते है। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छिति माव
अभाव
मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्व, | 24 (उपर्युक्त )
अभव्यत्व)
सासादन 2 (कुज्ञान 2) | 22 (उपर्युक्त 24 - 2 (मिथ्यात्व,
मिथ्यात्व, अमुल्यत्व) | अमन्यत्व)
संदृष्टि नं.47
अग्नि एवं वायु कायिक भाव (24) अग्नि एवं वायु कायिक के 24 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं - कुज्ञान 2; अचन दर्शन, क्षायो. लब्धि 5, तिथंचगति, कषाय 4, नपुंसक लिंग, अशुम लेश्या 3, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 31गुणस्थान एक मिथ्यात्व होता है। संदृष्टि इस प्रकार है -
गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति
भाव
भाव
अभाव
मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्य, 124 (उपर्युक्त)
अमष्यत्व)
(90)
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संदृष्टि नं. 48
औदारिक काययोग भाव (51) औदारिक काय योग में 51 भाव होते हैं जो इस प्रकार.७ प्रादों में से नरक मति एवं देव गति कम करने पर 51 भाव शेष रहते हैं। गुणस्थान मिथ्यात्व आदि तेरह होते हैं। संदृष्टि इस प्रकार हैगुणस्थानमान मान्छतिव
मिथ्यात्व
132(कुसान 3, दर्शन | (दे. संदष्टि ।। (दे. संदष्टि 02, बायो. लब्धि,
मनुष्यमति, तिथंच गति, लेश्या 6, कवाय4, लिंग 3, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिदत्व,
पारिणामिक भाव) सासादन |( " ) |30 (उपर्युक्त 32 - 24t. " )
मिथ्यात्व, अभव्यत्व)
मित्र
20.
"
अविरत
14 (अशुभ लेश्या , असंयम)
31 (उपर्युक्त 30 |- कुजान 3, + मिश्र
ज्ञान, अवधि दर्शन) 134 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, दर्शन, शायो. लब्धि 5, गति 12, लेश्या, कपाय, लिंग 3, मसंयम, अज्ञान, असितत्व, पारिणामिक भाव 2)
देश संयत
131 (उपर्युक्त + (संयमासंयम, संयमासंयम - अशुभ तिर्यचमति) लेश्या 3, असंयम)
31 (दे. सदृष्टि)
20 (उपर्युक्त 17संयमासंयम + अशुभ लेश्या 1, असयम)
.
प्रमत्त विरत
| 20 (उपर्युक्त 20- सराग
संयम, मनःपर्ययज्ञान + (संयमासंयम, तिथंचगति)
(91)
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________________
अभाव
गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव । अप्रमत्त (दे. संदृष्टि ।। 31 (दे. संदृष्टि ।। | 20 ( उपर्युक्त) विरत अपूर्वकरण (0) A( " ) | 23 (उपर्युक्त 20 + पीत,
पद्म लेश्या, शायो.
सम्यक्त्व) अनि. (दे. संदृष्टि ।)| A( दे. सदृष्टि 1) | 3 ( 23 उपर्युक्त ) सवेद
"
अनि. | " )|25 अवेद सूक्ष्मसा- | 21 " ) 22 (
"
पराय
उपशान्त | 21 "
|21
".
मोह
) | 26 ( उपर्युक्त 25 +3
लिंग) )। 29 (उपर्युक्त 26 +
कोष मान. माया
कषाय) .. ) 30 (उपर्युक्त 29 +
सराग संयम, लोम कषाय - औपशमिक
चारित्र) ) 31 (उपर्युक 30+
औपशमिक चारिच, औपशमिक सम्यक्त्व - क्षायिक चारिच )
शीण भीड़ 12
"
20
"
सयोग के क्ली
"
)
| 14 ( (शुक्ललेश्या सायिकदानादि 4 लब्धि , यायिक चारित्र, असिद्धत्व, मनुष्यगति, भव्यत्व)
371 औपशमिक भाव 2, चार ज्ञान, ३ दर्शन, क्षायोमशमिक सम्यक्त्व, सराग 'चारित्र, संयमासंयम,
झायो.5 लन्धि, कृष्णादि 5 लेश्याएं, लिंग 3, चार कषाय, तिथंचगति, मिथ्यात्व, असंयम, कुज्ञान 3, अज्ञान, अभव्यत्व)
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ओरालं वा मिस्से " हि वेभंगो सरागदेसजमं । मणपज्जवसमभावा साणे थीसंढ वेदछि दी ।।8।।
औदारिक वत् मिश्रे न हि विभंगं सरागदेशयम ।
मनःपर्ययशमभावाः साने स्त्रीषंढ वेदच्छित्तिः ।। अन्वयार्थ :- (मिश्रे) औदारिक मिश्रकाययोग में (ओराल वा) औदारिक काययोग के समान भाव जानना चाहिए। विशेषता यह है कि (हि) निश्चय से (विभंग) विभंगज्ञान (सरागदेशयम) सरागसंयम और देश संयम (मणपज्जवसमभावा) मनः पर्ययज्ञान, औपशमिक सम्यकत्व और औपशमिक चारित्र, प्रथम गुणस्थान में नहीं पाया जाता है। (साणे) सासादन गुणस्थान में (थीसंठवेदछि दी स्त्रीवेद, नपुसंकवेद की व्युच्छिति हो जाती है।
भावार्थ -औदारिकमिश्र योग में देवगति, नरकगति, विभंगावधिज्ञान, सराग चारित्र, देशचारित्र, मनःपर्ययज्ञान, उपशम सम्यक्त्व और उपशमचारित्र ये आठ भाव नहीं होते हैं। अतः पैतालीस भाव होते हैं | औदारिक मिश्रकाय योग में प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और तेरहवां ये चार गुणस्थान होते हैं । इसमें सासादन गुणस्थान में स्त्रीवेद और नपुसंकवेद की व्युच्छित्तिहोजाती है। अतः औदारिक मिश्र काययोग में चतुर्थगुणस्थान में एक पुंवेद ही पाया जाता है।
मिच्छाइट्टि द्वाणे सासणठाणे असंजदट्टाणे । दुग चदु पणवीसंपुण सजोगठाणम्मिणवयछिदी ।।2।। मिथ्यादृष्टि स्थाने सासादनस्थाने असंयतस्थाने ।
द्वौ चत्वार: पंचविंशतिः पुनः सयोगस्थाने नवकच्छित्तिः || अन्वयार्थ :- (मिच्छाइट्टिहाणे औदारिक मिश्रकाययोग में मिथ्यात्व गुणस्थान में दो, (सासणठाणे) सासादन गुणस्थान में चार (असंजद ठाणे) असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में (पणवीसं) पच्चीस की (पुण) पुनः (सजोगठाणम्मि) सयोग केवली गुणस्थान में (णवय छि दी) नौ भावों की व्युच्छित्ति होती है।
(93)
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संदृष्टि नं.49 औदारिक मिश्रकाययोग भाव (45) औदारिक मिश्रकाययोग में 45 भाव होते हैं। जो इस प्रकार हैं . क्षायिक भाव 9, मति आदि तीन ज्ञान, कुमति, कुश्रुत ज्ञान, दर्शन 3, क्षायो. लम्धि 5, क्षायो. सम्यक्त्व तिथंच गति, मनुष्य गति, काम , लिंग :, देश 6. निगायन, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव । । गुणस्थान मिथ्यात्व, सासादन, असयत और सयोग केवली ये चार होते हैं। गुणस्थान भाव व्युच्छिति माव
अभाव मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्व, |31 (कुमति,
14 (क्षायिक भाव, अभव्यत्व) कुश्रुतज्ञान, दर्शन 2, ज्ञान 3, अवधि वर्शन,
सायो. लब्धि 5, क्षायो. सम्यक्त्व) तिर्यच गति, मनुष्य गति, कषाय 4, लिंग 3. लेश्या 6, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव)
सासादन | (कुज्ञान 2, 29 (उपर्युक्त 31 - 16 (उपर्युक्त 14 +
खी, मिथ्यात्व, अभव्यत्व) | मिथ्यात्व, अभव्यत्व) नपुंसकवेद)
अविरत 25 (ज्ञान 3, 31 (झायिक सम्यक्त्व, 14 (मिथ्यात्व, दर्शन 3, शायो. ज्ञान 3, वर्शन 3, झायो.
अभव्यत्व, यायिक भाव लब्धि 5,
लन्धि 5, अयो. है, कुशान 2, स्त्री, क्षायो.
सम्यक्त्व, तिथंधगति, नपुंसक वेद ) सम्यक्त्व,
मनुष्यगति, कषाय, कषाय, तियंच गति,
पुल्लिंग , लेश्या 6, अज्ञान असंयम, अज्ञान, पुल्लिंग,
असिद्धत्व, पारिणामिक कृष्णादि , भाव 2) लेश्या, असंयम)
(94)
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________________
मुणस्थान भाव व्युच्छिति भाव
अभाव सयोग ]" (शुक्ल 14 (शायिक भाव 9, | 31 (ज्ञान ,कुज्ञान 2, के वली लेश्या, दानादि असिदत्व, जीवत्व, | दर्शन 3, क्षायो. लब्धि सायिक भव्यत्व, मनुष्य गति, 15,क्षायो. सम्यक्त्व,
शुक्ल लेश्या) कषायब, लिंग, लेश्या मनुष्यमति,
5, मिध्यादर्शन, शादिरीत्र
असेयम अज्ञान, असिदत्व,
अभव्यत्व, तिर्यंच गति) भव्यत्व)
लब्धि ,
वेगुन्वे णो संति हु मणपज्जुवसमसरागदेसजमं । खाइयसम्मतूणाखाझ्यभावायतिरियमणुयगदी 183|| वैगर्वे नो सन्ति हि मनःपर्ययशमसरागदेशयमाः ।
क्षायिकसम्यक्त्वोनाः क्षायिकभावाश्च तिर्यग्मनुजगती ।। अन्वयार्थ :- (वेगुब्वे) वैक्रियिक काययोग में (हि) निश्चय से (मणपज्जुवसमसरागदेसजम) मनः पर्ययज्ञान, उपशम चारित्र, सराग चारित्र, देशचारित्र, (तिरियमणुयगदी) तिर्यचगति, मनुष्यगति, (खाइयसम्मत्तूणा खाइयभावाय) क्षायिक सम्यक्त्व को छोड़कर शेष क्षायिक भाव (णो) नहीं (संति) होते हैं। स्पष्टीकरण के लिए निम्नलिखित संदृष्टि देखें।
संदृष्टि नं. 50
वैक्रियिक काययोग भाव (39) वैक्रियिक काय योग में 39 भाव होते है जो इस प्रकार है - उपशम सम्यक्त्व, शायिक सम्यक्त्व, कुज्ञान , ज्ञान ,सर्शन 3, शायो. लब्धि 5, क्षायो. सम्यक्त्व, नरक गति, देवगति, कषाय 4, लिंग, लेश्या , मिथ्यादर्शन, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव | गुणस्थान आदि के चार होते हैं
195)
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गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति
मिथ्यात्व 2 ( मिथ्यात्व, 'अमव्यत्व)
मिश्र
सासादन 3 ( कुज्ञान 3 ) 30 ( उपर्युक्त 32 - मिध्यात्व, अभव्यत्व)
अविरत
0
$
( नरकगति,
देवगति,
भाव
32 कुज्ञान 3, दर्शन 2, क्षायो लब्धि 5, नरकगति, देवगति, कषाय 4, लिंग 3 लेश्या | 6, मिथ्यादर्शन,
अशुभ
लेश्या 3,
असंयम)
असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व,
| पारिणामिक भाव 3)
▾
31 ( उपर्युक्त 30 कुशान3 + मिश्र ज्ञान 3, अवधि दर्शन)
34 (ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायो लब्धि 5, सम्यक्त्व 3, गति 2,
कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, असंयम,
असिद्धत्व,
पारिणार्मिक भाव 2 )
अभाव
RIKI
T (उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व, ज्ञान 3, अवधिदर्शन)
9 (उपर्युक्त 7 + मिथ्यात्व अभव्यत्व)
8 (उपर्युक्त 9 + कुज्ञान 3. मिश्र ज्ञान 3 - अवधि दर्शन )
5 ( मिथ्यात्व, अभव्यत्व, कुज्ञान 3 )
वेगुव्वं वा मिस्से ण विभंगो किण्हदुगछि दी साणे । संद णिरियगर्दि पुणतम्हा अवणीय संजदे खयऊ ||84|| विगूर्ववत् मिश्र न विभंग कृष्णाद्विकच्छित्तिः साने । बंद नरकगतिं पुनः तस्मादपनीय असंयते क्षिपतु || अन्वयार्थ :- (मिस्से) वैक्रियिक मिश्रकाय योग में (वेगुब्वं वा )
(96)
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वैक्रियिक काय योग के समान भाव जानना चाहिए विशेषता यह है किरण विभंगो) विभंगावधिज्ञान नहीं होता है। (साने) सासादन गुणस्थान में (किण्हदुगछि दी) कृष्णद्विक कृष्णलेश्या व नील लेश्या की व्युच्छित्ति हो जाती है। (पुण) और वैक्रियिक काययोग में वर्णित भावों में (षद) नपुंसकवेद और (णिरियगदि) नरकगति को (तम्हा अवणीय) उनमें से अर्थात् सासादन गुणस्थान में से कम करके (अर्सजदे) चतुर्थ गुणस्थान में (खयऊ) मिला दो।
भावार्थ - वैक्रियिक मिश्रकाययोग में मनःपर्यय ज्ञान, उपशम चारित्र, देशचारित्र, सरागचारित्र क्षायिक सम्यक्त्व से रहित 8 क्षायिक भाव, विभंगज्ञान ये 15 भाव न होने से 38 भाव होते हैं। वैक्रियिक मिश्रकायोग में मिश्र गुणस्थान नहीं होता है। सासादन गुणस्थान में कृष्ण नील लेश्या की व्युच्छित्ति हो जाती है । तथा सासादन गुणस्थान में नपुंसक वेद एवं नरक गति को घटाकर ये भाव असंयत गुणस्थान में मिलाना चाहिए। क्योंकि सासादन गुणस्थान में मरण करने वाला जीव नरक गति में उत्पन्न नहीं होता है। यदि कोई यहाँ यह शंका करे कि मिश्रकाय योग में चतुर्थ गुणस्थान में नपुंसक वेद एवं नरक गति का सद्भाव कैसे संभव है ? तो जिनजीवों ने संक्लेशपरिणामों से मिथ्यात्व गुणस्थान में नरक आयु का बंध कर लिया बाद में केवली द्वय के पाद मूल में क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का प्रारंभ किया। ऐसे कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों के वैक्रियिक मिश्रयोग में असंयत गुणस्थान में नपुंसकवेद तथा नरकगति का सद्भाव पाया जाता है।
संदृष्टि नं.51
वैक्रियिक मिश्रकाययोग भाव (38) वैकियिक मिप्रकाययोग में 8 भाव होते हैं जो इस प्रकार है - सम्यक्त्व 3, कुज्ञान 2, ज्ञान 3, दर्शन 3, शायो. लब्धि 5, नरकगति, देवगति, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, मिथ्याल्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 गुणस्थान मिथ्यात्व, सासादन और अविरत ये तीन होते हैं। संदृष्टि इस प्रकार है -
(97)
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गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति मिध्यात्व 2 (मिथ्यात्व,
अभव्यत्व)
सासादन 4(कुञ्ज्ञान 2, कृष्ण नील लेश्या)
अविरत
0
भाव
31 ( कुज्ञान), दर्शन 2 क्षायो लब्धि 5, लिंग 3, लेश्या 6, कषाय 4,
गति 2, मिथ्यात्व,
असंयम, अज्ञान,
असिद्धत्व,
पारिणामिक भाव 3 )
27(ज्ञान, वर्ण 2, क्षायो लब्धि 5, देवगति, कषाय 4, लिंग 2 (स्त्री, पुरुष ) लेश्या 6, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, | पारिणामिक भाव 2)
32 ( सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5 लिंग 3, गति 2, कापोतादि 4 लेश्या,
कषाय 4, असंयम,
अज्ञान, असिदत्त्व
पारिणामिक भाव 2)
अभाव
7 ( सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, अवधिदर्शन)
म
अभव्यत्व, सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, अवधि दर्शन, नरकगति, नपुंसकं लिंग)
6 कुज्ञान 2, लेश्या 2, मिथ्यात्य, अभव्यत्व)
नोट - चतुर्थं गुणस्थान में वैक्रियिक मिश्रकाय योग में स्त्री लिंग किस अपेक्षा से कहा गया है यह विचारणीय है ।
आहारदुगे होति हु मणुयगदी तह कसायसुहतिलेस्सा। पुवेदमसिद्धत्तं अण्णाणं तिण्णि सण्णाणं ||85|| आहारद्विके भवन्ति हि मनुष्यगतिः तथा कषायशुभत्रिलेश्याः । पुवेदोऽसिद्धत्व अज्ञानं त्रीणि सम्यग्ज्ञानानि 11 दाणादियं च दंसणतिदयं वेदगसरागचारितं । खाइयसम्मत्तममव्वं ण परिणामाय भाचा हु ||86 ||
(98)
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दानादिकं च दर्शनत्रिकं वेदक सरागचारित्रम् | क्षायिक सम्यक्त्वमभव्यत्वं न पारिणामिके भावा हि ॥ अन्वयार्थ : :-. (आहारदुगे) आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग में (मणुयगदी) मनुष्य गति (तह) तथा (कसाय सुहतिलेस्सा) कषाय 4, तीन शुभ लेश्यायें, (पुंवेदमसिद्दत्तं ) पुरुष वेद, असिद्धत्व (अण्णा) अज्ञान (तिणि सण्णाणं) तीन सम्यग्ज्ञान (च) और (दाणादियं) क्षायोपशमिक दानादिक पाँच (दंसणतियं) तीन दर्शन, (वेदगसरागचारित) वेदक सम्यक्त्व, सराग चारित्र (खाइयसम्मत्तं) क्षायिक सम्यकत्व ये उपर्युक्त भाव पाये जाते हैं । (हि) निश्चय से (परिणामाय भाबा) पारिणामिक भावों में से (अभव्वं ) अभव्यत्व (ण) नहीं पाया जाता है।
आहारक काययोग में 27 भाव होते हैं। गुणस्थान प्रमत्त संयत मात्र ही होता है । संदृष्टि निम्नप्रकार से है -
गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति
प्रमत्त 2 (0)
संयत
संदृष्टि नं.52 आहारक काययोग भाव (27)
-
भाव
27 (शादिक, क्षयोपशम सम्यक्त्व,
ज्ञान 3, दर्शन 3, शायो लब्धि 5, मनुष्यगति, कषाय 4,
शुभ लेश्या 3, वेद,
सराग, संयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व,
अव्यस्थ )
(0)
विशेष आहारक काययोग में 6 भावों की व्युच्छिति दर्शायी गई है - यह विषय विचारणीय है।
(99)
अभाव
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कम्मइये णो संति हु मणपज्जसरागदेसचारितं । वेभंगुवसमचरणं साणे धीवेदवोच्छेदो ||87|| कार्मणे नो सन्ति हि मनःपर्ययसरामदेशचारित्राणि |
विभंगोपशमचरणे साने स्त्रीवेदव्युच्छेदः ॥ अन्वयार्थ :- (कम्मइये) कार्मण काययोग में (मणपज्नसरागदेस चारित्त) मनः पर्ययज्ञान, सरागचारित्र, देशचारित्र, (वेभंगुक्समचरणं) विभंगावधिज्ञान, उपशम चारित्र (हु) निश्चय से ये भाव (णो) नहीं (संति) होते हैं (साणे) और सासादन गुणस्थान में (थीवेदवोच्छे दो) स्त्री वेद की व्युच्छिति हो जाती है।
विदियगुणे णरयगदी णात्थे दुसा अत्थेि अविरदे ठाणे| दुतिउणतीसणवयं मिच्छादिसुचउसुवोच्छेदो||88|| द्वितीयगुणे नरकगतिः नास्ति तु सा अस्ति अविरते स्थाने ।
द्वित्र्येकानत्रिंशत् नवकं मिथ्यादिषु चतुर्पु व्युच्छे दः ।। अन्वयार्थ :- कार्मण काययोग में (विदियगुणे) सासादन गुणस्थान में (णिरयगदी) नरकगति (णत्थि) नहीं होती है। (अविरदे ठाणे) चतुर्थ गुणस्थान में (सा) वह नरकगति (अत्थि) होती है। (मिच्छादिस) मिथ्यात्व गुणस्थान, सासादन गुणस्थान , अविरत सम्यग्दृष्टि और सयोगकेवली गुणस्थान में (दु तिउतीसं णवयं) दो, तीन, उनतीस और नौ भावों की क्रमशः (वोच्छे दो)व्युच्छिति होती है।
संदृष्टि नं. 53
कार्मण काययोग भाव (48) कार्मण काययोग में 8 भाव होते हैं। वे इस प्रकार से जानना चाहिए - 53 भावों में से, उपशग चारित्र, मनःपर्ययज्ञान, कुअवधिज्ञान, संयमासयम, सराग संयम ये पाँच भाव कम करें, शेष भावों की संख्या वहाँ समावरूप से जानना चाहिए । गुणस्थान प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और 13 वां जानना चाहिए। संदृष्टि निम्न प्रकार से है.
(100)
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गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव
अभाव मिथ्यात्व |2(मिथ्यात्व, |33 (कुशान2, दर्शन 2, 15 (सायिक भाव , अमव्यत्व) क्षायो, लब्धि 5, गति
जान 3, दर्शन !, +, कषाय ,लिंग,
क्षायोपशमिक मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम, मसिद्धत्व,
सम्यक्त्व, उपशम लेश्या 6, जीवत्व,
सम्यक्त्व) भव्यत्व, अमव्यत्व) सासादन 3 (कुज्ञान 2, 30 (उपर्युक्त 3 - 18(उपर्युक्त 15 + स्त्रीवेद) मिथ्यात्व, अभव्यत्व, | मिथ्यात्व,अभव्यत्व, नरकगति)
नरकगति)
असंयत
29 15 आत
जला: , अरिन (द्वितीयोपशम | सम्यक्त्व,
कुजान निकालना तथा | भाव , स्त्रीलिंग,
ज्ञान 3, अवधि दर्शन 1,| मिथ्यात्व, अमन्यत्व) सम्यक्त्व, मति सम्यक्त्व 3, आदि । शान, नरकगति 1, जोड़ देना) दर्शन , बायो. लब्धि 5, नेश्या क्रमशः 5, नरक,
तिर्यच,
देवगति, कषाय |4, लिंग 2, अज्ञान असंयम)
सयोग केवली
|14 (सायिक 9, | 34 (सम्यक्त्व 2, ज्ञान 3, मनुष्यगति, मनष्यगति. असिन्दत्व. कुशान 2, दर्शन 3, सायिक शुक्ललेश्या, जीवत्व,
क्षायो, लब्धि 5, दानादि भव्यत्व)
असंयम, अज्ञान,
मिथ्यात्व, अभव्यत्व, सायिक
गति 3, लिंग, आरिता, शुक्ल
कृष्णादि लेश्या, लेश्या,
कषाय 4)
असिद्धत्व,
भव्यत्व)
(101)
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मज्झिमचउमणवयणे खाइयदुगहीणखाइया ण हवे । पुण सेसे मणवयणे सब्वे भावा हवंति फुडं ||89 || मध्यमचतुर्मनोवचने क्षायिकद्विकहीनक्षायिका न भवन्ति । पुनः शेषे मनोवचने सर्वे भावा भवन्ति स्फुटं ॥ अन्वयार्थ :- (मज्झिम चरमणवयणे) मध्यम चार मनोयोग वचन योग अर्थात् असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, असत्य वचन योग, उभय वचन योग में (खाइयदुगहीणखाइया ण हवे) क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र को छोड़कर शेष क्षायिक भाव नहीं होते हैं । (पुण) पुनः (सेसे मणवयणे) शेष मनोयोगों व वचनयोगों में (सव्वे) सभी क्षायिक (भावा) भाव (हवति) होते हैं । अर्थात् सत्य, अनुमय मनोयोग और सत्य, अनुमय वचनयोग में सभी भाव होते हैं। संदृष्टि नं. 54 सत्यानुभयमनोवचनयोग भाव ( 53 )
सत्यमनोयोग, अनुभयमनोयोग, सत्यवचनयोग, अनुभय वचनयोग, इन चार योगों में त्रेपन भाव होते हैं। प्रथम गुणस्थान से लेकर 13 गुणस्थान पाये जाते हैं। भाव व्यवस्था गुणस्थानवत् मानना चाहिए। देखे संवृष्टि (1)
गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति
भाव
1
2
3
4
5
3
1
9 सवेद
9 अवेद
10
11
12
13
2
3
0
6
2
0
3
0
3
3
2
2
13
9
34
32
33
36
31
31
31
28
28
25
22
21
20
14
(102)
अभाव
19
21
20
17
22
22
22
25
25
21
31
32
33
39
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संदृष्टि नं. 55 असत्यानुभय मनोवचन योग भाव (46) असत्योभय मनोवचमयोग इन चार योगों में शायिक 7 भाव (क्षायिक लब्धि, केवलसार, कक्जदर्शन नहीं पाया . मी जाते हैं। अभाव भाव ज्ञात करने के लिए प्रत्येक गुणस्थान में कथित अभाव भावों में से 7 उपर्युक्त सायिक भाव कम देना चाहिए । यथा प्रथम गुणस्थान में अभाव भाव 19 उनमें । कम करने पर 12 भाव प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार शेष गुणस्थानों की प्रक्रिया जानना चाहिए । गुणस्थान प्रथम से 12 तक जानना चाहिए पसंदृष्टि गुणस्थानवत् जानना चाहिए । दे, संदृष्टि (1) गुणस्थान भाव व्युच्छिति
अभाव
भाव
१ सवेद
9 अवेद
(103)
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पुंवेदे संदिस्थीणिरयमदीहीणसेसओदइया । मिस्सा भावा तियपरिणामा खाइयसम्मतवसमसम्म||
पुंवेदे षंढ स्त्रीनरकगतिहीनशेषौदयिकाः मिश्रा भावाः
त्रिकपारिणामिकाः क्षायिकसम्यक्त्वमुपशमं सम्यक्त्यै॥ अन्वयार्थः- (पुंवेदे) पुरुषवेदमें (संढिस्थीणिरयगदीहीण)नपुसंक वेद, स्वीवेद, नरकगति को छोड़करसेसओदइया) शेष सभी औदयिक भाव होते हैं। (मिस्साभावा) सभी क्षायोपशामिक भाव (तिय परिणामा) सीदे पारिपामिक माम मामयमपात उनसमंसम्म)क्षायिक सम्यक्त्व और उपशम सम्यक्त्व ये सभी भाव पाये जाते हैं।
इत्थीवेदे वि तहा मणपज्जवपुरिसहीण इत्थिजुदै । संढे वि तहा इत्थीदेवगदीहीणणिरयसैटजुदै ।।911।
स्त्रीवेदेऽपि तथा मनःपर्ययपुरुषहीनस्लीयुक्तं ।
षंढे ऽपि तथा स्त्रीदेवगतिहीननरकषंढयुक्ताः ॥ अन्वयार्थ :- (इत्थी वेदे वि तहा) स्त्री वेद में उपर्युक्त सभी भावों में से (मणपज्जव-पुरिस हीण इत्यिजुदं) मनः पर्यय ज्ञान, पुरुष वेद को निकालकर स्त्री वेद को जोड़ देना चाहिए । इसी प्रकार(संढे वि तहा) नपुंसकवेद में स्त्रीवेदोक्त सभी भावों में (इत्थीदेवगदीहीणणिरयसंदजुर्द) स्वी वेद, देवगति को छोड़कर नरकगति, नपुंसकवेद और जोड़ देना चाहिए।
संदृष्टि नं. 56
पुंवेद भाव (41) पुवेद में 4। मावों का सद्भाव पायाजाता है वे भाव इस प्रकार से संयोजित करना चाहिए । उपशम सम्यक्त्व, शायिक सम्यक्त्व, झायोपशमिक 18 भाव, तिर्यच, देव, मनुष्य गति, कषाय 4, पुल्लिंग, लेश्या 6, मिथ्यादर्शन, असंयम, अज्ञान, अस्मिात्य, पारिणामिक । प्रथम गुणस्थान से नौवेगुणस्थानतक यहाँ गुणस्थान जानना चाहिए । संदृष्टि इस प्रकार जानना चाहिए
(104)
Page #112
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________________
10
गुणस्थान भाव म्युच्छिति भाव
अभाव 2 (मिथ्यात्व, 31 (कुज्ञान3, दर्शन 2,|
10(ज्ञान, अभव्यत्व) शायो. लब्धि 5, गति |
अवधिदर्शन, 3. कषाय 4, पुरुषवेद,
सम्यक्त्व, देशर्सयम, मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व,
सराग चारित्र) लेश्या 6, भव्यत्व,
अभव्यत्व, जीयत्व) 2 (कुशान 3) 29 (उपर्युक्त 31 में से 12 (उपर्युक्त 10 में
| निगाच, अभव्यत्व,
जोड़ना) 30 (उपर्युक्त 29 में से | (पूर्वोक्त 12 में से । कुज्ञान कम कर । मिश्र मिश्र ज्ञान, अवधिदर्शन ज्ञान , तया
कम करके 3 कुशान अवधिदर्शन जोड़ना) | |जोड़ना) 153 अशुभ 33 (पूर्वोक्त 30 +3 | (कुजाना, मिथ्यात्व, नेश्या, सम्यक्त्व + 3झान -3|अभव्यत्व, सरागसंयम, असंयम, मिश्रज्ञान)
| संयमासयम, मनः देवगति)
पर्ययज्ञान) 29 (पूर्वोक्त " -३ | 12 (पूर्वोक्त : - (संयमासयम, अशुभ लेश्या,
वेशसंयम + 3 अशुभ तिर्यंचगति) असंयम, देवगति +
लेश्या, असंयम, देशसयम)
| देवगति) lo
29 (पूर्वोक्त 29 - 12 पूर्वोक्त 12 - तियंचगति, देशसंयम मनःपर्यय, सराम चारित्र + मनःपर्ययज्ञान, + तिर्यंचगति, सराग चारित्र) देशसंथम)
| 12 (पूर्वोक्त)
(पीत, पदम /29 (पूर्वोक्त) लेश्या, वेवक सम्यक्त्व)
(105)
Page #113
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गुणस्थान भाव व्युच्छिति
भाव
अभाव
126 (पूर्वोक्त 29-पीत, पदम लेश्या, देवक सम्यक्त्व) 26 (पूर्वोक्त )
15 (पूर्वोक्त 12 + पीत पदम लेश्या वेदक सम्यक्त्व) 15 (पूर्वोक्त)
७ (सवेद) 1 (पुंवेद)
१ (अवेद) (कोष मान, 25 (पूर्वोक्त 26 -
माया) पुरुषवेद)
16 (पूर्वोक्त 15 + पुवेद)
संदृष्टि नं.57
स्त्रीवेद भाव (40) स्त्री वेद में 40 भावों का सद्भाव जानना चाहिए ऊपर वेव में जो भाव कहे। उनमें से मात्र मनः पर्थयशान कम देना चाहिए। शेष भाव सम्पूर्ण पुंवेदवत् जानना चाहिए । गुणस्थान प्रथम से नौ तक जानना चाहिए | भाव स प्रकार से है - उपशम सम्यक्त्य, सायिक-सम्यक्त्व, शायोपशमिक 17 भाव, तिर्यच, देव, मनुष्यगति, कषाय, स्त्रीवेद, लेश्या 6, मिथ्यावर्शन असंयम, अज्ञान, असिखत्य, पारिणामिक भाव व्युष्छित्ति और भाव सदभाव में पुवेद की व्यवस्था जानकर, उसी सारणी का प्रयोग करना चाहिए। किन्तु अभाव भावों में पुवेद में कहे गये अभाव भाव से मनःपर्यय शान कम देना चाहिए । संवृष्टि निम्न प्रकार से है - गुणस्थान भाव व्युछित्ति
। अभाव
१(सवेव) 9(अवेद)
(106)
Page #114
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________________
संदृष्टि नं.58
नपुंसकवेद भाव (40) नपुंसकवेद में पानी का सामना स मेत में । मागका जो अस्तित्व कहा गया है उसमें से मन: पर्यय ज्ञान कम कर देना चाहिए । तथा देवगति के स्थान पर नरकगति की संयोजना करना चाहिए | शेष भाव व्यवस्था पुवेदवत् ही है। भाव इस प्रकार से है . उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक भाव, तियंच, मनुष्यगति, नरकगति, कषाय 4, नपुंसक वेद, लेश्या 6, मिथ्यादर्शन, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक 31 गुणस्थान - प्रथम से नी तक जानना चाहिए। संदृष्टि इस प्रकार से है. गुजस्थान भाव न्युच्छित्ति भाव
अभाव
१(सदेव) 9(अयेव ।
कोहचउक्काणेक्के पगड़ी इदरा य उवसम चरण खाइयसम्मत्तूणा खाइयभावा य णो संति ।।92|| क्रोधचतुष्काणा एका प्रकृतिः, इतराश्च उपशमं चरण
सायिक सम्यक्त्वोनाः क्षायिकभावाश्च नो सन्ति । एवं माणादितिए सुहुमसरागुत्ति होदि लोहो हु। अण्णाणतिए मिच्छा-इस्सियहोति भावा हु।1931 एवं मानावित्रि के सूक्ष्मसराग इति भवति लोभो हि ।
अज्ञानत्रिके मिथ्यादृष्टेः च भवन्ति भावा हि ॥ अन्वयार्थ :- (कोहचउक्काणेक्के ) क्रोध चतुष्क में से विवक्षित एक कषाय (य) और (इदरा) अन्य तीन कषायें (उपशमं चरण) उपशम
(107)
Page #115
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________________
चारित्र, (खाइयसम्मत्तूणा) क्षायिक सम्यक्त्व को छोड़कर खाइयभावा) शेष क्षायिक भाव रणो संति) ये विवक्षित कषाय में नहीं रहते हैं। {एवं) इसी प्रकार (माणादितिए) मानादित्रिक में भी जानना चाहिए। (सुकुमसरागुत्ति) सूक्ष्म सराग गुणस्थान में (हि) निश्चय से (लोहो) लोभ कषाय रहती है। (हु) निश्चय से (अण्णाणतिए) अज्ञाननिक में (मिच्छाइट्ठिस्स) मिथ्यादृष्टि के समानाभावा) भाव (होति) होते हैं।
संदृष्टि नं.59
क्रोधमानमाया भाव (41) क्रोध, मान, माया इन तीनों कषायों में 4। भावों का सद्भाव जानना चाहिए । के भाव इस प्रकार से हैं । औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक IB भाव, गति 4, लिंग 3, कषाय 4 में से कोई एक विवक्षित कषाय, लेश्या 6, मिथ्यादर्शन, असंयम, अशान, सिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व, अभयक, गुणस्थान प्रथम से नौ तक जानना चाहिए । संदृष्टि मूलग्रन्थ में 40 भावों की बनाई हुई है । यह व्यवस्था किसी प्रकार बनती हुई प्रतीत नहीं हो रही है। मूल ग्रन्थ संदृष्टि के साथ 41 भायों की भाव रचना संदृष्टि निम्न प्रकार से है। क्रोध मानमाया भाव 140) मूल ग्रन्थ संदृष्टि गुणस्थान भाव व्युच्छिति |
अभाव
9(सवेद) अवेद
(108)
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________________
संदृष्टि नं.59
क्रोधमानमाया भाव (41) गुणस्थान भाव व्युच्छिति भाव
अभाव 2 (मिथ्यात्व, 31 (कुज्ञानर, दर्शन 2,
| 10 {ज्ञान, दर्शन 1, अभव्यत्व) . | शायो. लब्धि 5, गति
देशसंयम, ., कषाय 1, लिंग3,
| सरागचारित्र, सम्यक्त्व मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व, | लेश्या 6, जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व)
| 3)
३ (कुज्ञान 3) 29 (उपर्युक्त 31- में से 12 (उपर्युक्त 10 +
मिथ्यात्व, अभव्यत्व) | मिथ्यात्व, अभव्यत्व) |30 (उपर्युक्त 29 में से -111 (पूर्वांत 12 - मित्र कुज्ञान 3+ मिश्र ज्ञान ज्ञान, अवधिदर्शन 3, तथा अवधिदर्शन) |कम करके 3 कुशान
जोड़ना) 6 (3 अशुभ 3 (पूर्वोक्त 30 +3 | (पूर्वोक्त ।।-३ लेश्या, देवगति सम्यक्त्व, ज्ञान3-3 सम्यक्त्व) असंयम, मिश्र ज्ञान) नरकगति)
28 (पूर्वोक्त 33-3 13 (पूर्वोक्त.. (संयमासयम, अशुभ लेश्या, देशसंयम +3 अशुभ तियंचगति) नरकगति, देवगति, लेश्या, नरक, देवगति असंयम + देशसंयम)।
असंयम) la
28 (पर्वोक्त 28 |13 (पूर्वोक्त 13. लियंचगति,
मनपर्ययज्ञान, सराम देशसंयम +
चारित्र + तिर्यंचगति, मनापर्ययज्ञान, सराग देशसंयम)
चारित्र) ३ (पीत, पद्म 28 (पूर्वोक्त) 13 (पूर्वोक्त ) लेश्या, वेदक सम्यक्त्व)
(109)
6
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________________
गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति
भाव
अभाव
25 (पूर्वोक्त 28 - पीत, | 16 { पूर्वोक्त 3+ पीत पद्म लेश्या, वेदक पत्म लेश्या, वेदक सम्यक्त्व)
सम्यक्त्व) सवेद | (वेद तीन ) 25 (पूर्वोक्त ) (पूर्वोक्त) 9 अवेद (क्रोधादि 22 (पूर्वोक्त 25 - 3 वेद)| 19 (पूर्वोक्त 16 +3
तीनों में से विवक्षित एक)
वेद)
संदृष्टि ने.60
लोभ कषाय भाव (41) लोम कषाय में 44 मावों का समाव नानना चाहिए। इसमें क्रोधादि ३ कपायों का अभाव और लोभ कपाय मात्र का सद्भाव जानना चाहिए। ये भाव इस प्रकार संउपशम सम्यक्त्व, सायिक सम्यक्त्व, जान, दर्शन 3, कुज्ञान 3, मायो. लब्धि , वेदक सम्यक्त्व, सराग चारित्र, संयमासंयम, गति, लोप कषाय, लिंग 3, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम, असिदत्व, लेश्या 6, जीवत्व, अभव्यत्व, भव्यत्व ये 41 भाव जानना चाहिए । लोभ कषाय में कोधादि ३ कवाय रहित 41 भाव की संयोजना करना चाहिए । शेष संवृष्टि क्रोधादि तीन कषायोवत् जानना चाहिए। किन्तु इसमें प्रथम गुणस्थान से लेकर 10 गुणस्थान जानना चाहिए । संदृष्टि निम्न प्रकार से है - दे. क्रोध मानमाया जन्य संवृष्टि (59)।
गुणस्थान भाव व्युच्छिति।
भाव
अभाव
31
10
29
33
23
21
(सबेदा १अवेद 10
(110)
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________________
संदृष्टि नं. 61
अज्ञानत्रय भाव 34
-
क्षायो. अज्ञानक्य में 34 भाव होते है वे 34 भाव इस प्रकार है कुज्ञान 3, दर्शन 2, लब्धि 5 गति 4, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, मिध्यात्व, असंयम अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 | गुणस्थान आदि के दो होते है । संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति
भाव
अभाव
मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्व 34 ( उपर्युक्त )
अभव्यत्व)
सासादन 3 (कुञ्ज्ञान 3 ) 32 ( उपर्युक्त )
गुणस्थान भाव व्युच्छिति अविरत
केवलणाणं दंसण खाइणदाणादिपंचकं च पुणो । कुमइति मिच्छ मभव सण्णाणतिमम्मि णो संति ||94|| केवलज्ञानं दर्शनं क्षायिक दानादिपंचकं च पुनः ।
कुमतित्रिकं मिथ्यात्त्वमभव्यत्वं संज्ञानत्रिके नो सन्ति ॥
कन्यार्थ :- (सुण्णाणतिगम्मि) सम्यग्ज्ञान त्रिक में (केवलणाणं दंसणं) केवलज्ञान, केवल दर्शन, (खाइणदाणादिपंचकं) क्षायिक दानादि पांच लब्धि, (कुमइति) कुमति, कुश्रुत, विभंगावधिज्ञान (मिच्छ मभव्यं) मिथ्यात्व, अभव्यत्व (णो संति) नहीं होते हैं ।
संदृष्टि नं. 62
ज्ञानत्रय भाव (41)
सम्यग्ज्ञान 3 में 41 भाव होते है जो इस प्रकार है औपशमिक भाव 2, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, ज्ञान 4, वर्शन 3, नधि, वेदक सम्यक्त्व, संयमासंयम, सरागसंयम, गति 4, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, असंयम, अञ्ज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व । गुणस्थान अविरत भादि नौ होते है अर्थात् (4-12)
भाव
36 (गुणस्थानवत् दे.
6
( गुणस्थानवत् संदृष्टि 1) दे. संदृष्टि 1)
0
(111)
2 (मिथ्यात्व
अभव्यत्व)
अभाव
5 (मनः पर्यय ज्ञान, संयमासंयम, सराग संयम, उपशम चारित्र, शायिक चारित्र)
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संदृष्टि नं. 62
ज्ञानत्रय भाव (41) सम्यम्जान 3 में 41 भाव होते है जो इस प्रकार है औपशमिक भाव 2, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, ज्ञान, दर्शन 3, क्षायो. लन्धि 5, वेदक सम्यक्त्व, संयमासयम, सरामसयम, गति 4, कषाय 4, लिंग, लेश्या 6, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व । गुणस्थान अविरत आदि नौ होते है अर्थात् (4-12)
अभाव
गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति देशसंयत 21 " ) |
भाव "
)
|10 (पूर्वोक्त 5+6 अविरत व्यु- संयमासंयम)
318 "
)
प्रमत्त संयत
To (संयमासयम, नरकगति, तिर्यञ्चगति, देवगति, अशुभ लेश्या ३ असंयम, उपशम चारित्र, सायिक चारित्र)
गुणस्या नोक्त) | 10 (पूर्वोक्त)
अप्रमत्त संयत
(गुणस्थानवत् दे. संदृष्टि -10
अपूर्व- 10 करण
13110 पूर्वोक्त +पीत पद्म लेश्या, वेदक सम्यक्त्व)
"
)
| 13 (पूर्वोक्त)
अनिव
| 28 ( त्तिकरण | गुणस्थानवत् सवेद | दे. संदृष्टि ।
अनिवृ- 31 " त्तिकरण
20 "
)
16 (पूर्वोक्त 13 +3
वेद)
अवेद |
.
|
(112)
Page #120
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________________
गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति
सूक्ष्म- |2 ( सपिराय
उपशांत 2 (
मोद
क्षीण
13 (
13
#7
17
) 22 (
) 21 (
) 20 (
भाव
P)
SP
31
}
}
}
अमाव
19 पूर्वोक्त 16 + क्रोध, मान, माया)
20 (पूर्वोक्त 19 + लोभ, सराग़ संयम उपसभ शरित्र)
21 पूर्वोक्त 20 + औपशमिक भाव 2 क्षायिक चारित्र)
-
मणपज्जे मणुवगदी पुंवेदसुहृतिलेस्सकोहादी | अण्णाणमसिद्धत्तं णाणति दंसणति च दाणादी ||95|| मनः पर्यये मनुष्यगतिः पुंवेदशुभत्रिलेश्याक्रोधादयः । अज्ञानमसिद्धत्वं ज्ञानत्रिक दर्शनत्रिकं च दानादयः ॥ वेदगखाइयसम्मं उवसमखाइयसरागचारित्तं । जीवत्तं भव्वत्तं इदि एदे संति भावा हु ||96 || वेदक क्षायिक सम्यक्त्वं उपशमक्षायिकसरागचारित्रं । जीवत्वं भव्यत्त्वमित्येते सन्ति भावा हि ॥ अन्वयार्थ :- (मणपज्जे) मनः पर्यय ज्ञान में (मणुव गदी ) मनुष्यगति { पुंवेदसुहतिलेस्स कोहादी) पुरुषवेद, तीन शुभ लेश्यायें, क्रोधादि चार कषाय (अण्णाणमसिद्धत्तं) अज्ञान, असिद्धत्व, ( णाणति) ज्ञान तीनमतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान (दंसणति) चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधि दर्शन (च) और (दाणादी) क्षायोपशिक दानादिक 5 लब्धि (वेदगखाइयसम्म ) वेदक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व ( उपसम खाइयसराग चारितं ) उपशम चारित्र, क्षायिकं चारित्र, सराग चारित्र (जीवत्त ) जीवत्व, (भव्यत्तं) भव्यत्व (इदि) इस प्रकार (एदे) ये (भावा) भाव (हु) निश्चय से (संति) होते हैं ।
भावार्थ - मन:पर्ययज्ञान में जो उपशम सम्यक्त्व का सद्भाव नहीं कहा गया है वह प्रथमोपशम सम्यक्त्व की अपेक्षा समझना चाहिए, क्योंकि
(113)
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मनःपर्यय ज्ञान में द्वितीयोपशम सम्यक्त्व का सद्भाव पाया जाता है।
संदृष्टि नं.63
मनःपर्यय ज्ञान भाव (30) मनःपर्यय ज्ञान में 30 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं - उपशम चारित्र, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, मति आदि . ज्ञान, दर्शन 3, क्षायोपशम लब्धि 5, सरामसंयम, क्षयो. सम्यक्त्व, मनुष्य गति, संज्वलन 4 कषाय, पुल्लिंग, शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व । गुणस्थान प्रमत्तादि सास होते हैं संदृष्टि इस प्रकार हैगुणस्थान भाव व्युच्छित्ति . भाव
अभाव प्रमत्त
28 (शायिक
2(उप. चारिच, कायिक सम्यक्त्व, मति आदि । चारित्र) 'ज्ञान, दर्शन, सायो. लब्धि 5, सरागसंयम, क्षायो. सम्यक्त्व, मनुष्यगति, संन्वलन काय, पुल्लिंग, शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व)
अप्रत्त
|2 (उपर्युक्त)
(पीत, पद्म 28 (उपर्युक्त) लेश्या , क्षायो.सम्यक्त्व
125 (28 उपरोक्त - पीत,15 (2 उपर्युक्त + पीत पद्म लेश्या 2, झायो. | पद्म लेश्या 2, क्षायो. सम्यक्त्व)
सम्यक्त्व) अनि. स. ३ (पुल्लिंग) 25 (उपर्युक्त) 15 (उपर्युक्त) अनि.अ. (क्रोध, मान, 24 (25 उपर्युक्त - 615 उपर्युक्त + माया) पुल्लिंग)
पुल्लिंग)
(114)
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गुणस्थान भाव व्युच्छिति भाव
अभाव शरलोभ, 21 (मायिक सम्यक्त्व,१(उप. चारित्र, क्षायिक सराग संयम) मनि आदि । ज्ञान, दर्शन चारित्र, पीत, पदम
3, कार्यापशमलब्धि श्या, क्षायो. सरागसंयम, मनुष्यगति, सम्यक्त्व, पुल्लिंग संज्वलन लोभ कषाय, क्रोध, मान, माया शुक्ल लेश्या, अज्ञान, | कषाय) असिदत्व, जीवत्व, मव्यत्व)
उप.
(उपशम चारित्र)
20 (उपर्युक्त 21 में से | 10 (उपर्युक्त 9 में से लोभ कषाय सराग उप. चारित्र कम करना संयम कम करना तथा | लोभ कषाय तथा सराग उप. चारित्र जोड़ना) संयम जोड़ना)
श्रीम. |13 (मति आदि |20 (सायिक चारित्र, | | 10 (उपशम चारित्र,
4 ज्ञान, दर्शन,सायिक सम्यक्त्व, मति| सराग संयम, क्षायो. क्षायो लन्धि , आदि 4 ज्ञान, दर्शन 3, | सम्यक्त्व, कषाय, अज्ञान) क्षायो. लब्धि, । पुल्लिग, पीत, पद्म, मनुष्यमति, शुक्ल
| लेश्या) लेश्या, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, मव्यत्व)
केवलणाणे खाइयभावा मणुवगदी सुक्कलेस्साई । जीवत्तं भव्वत्तमसिद्धत्तं चेदि चउदसा भावा 1197।। केवलज्ञाने क्षायिकभावा मनुष्यगतिः शुक्ललेश्या।
जीवत्वं भव्यत्वमसिद्धत्वं चेति चतुर्दश भावाः 11 अन्वयार्थ - (केवलणाणे) केवलज्ञान में (खाइयभावा) क्षायिक भाव (मणुवगदी) मनुष्यगति (सुक्क लेस्साइ) शुक्ललेश्या (जीवत्त) जीवत्व (भव्वतं) भव्यत्व (च) और (असिद्धत्त) असिद्धत्व (इदि) इस प्रकार (चउदसा) चौदह (भावा) भाव जानना चाहिए।
(115)
Page #123
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संदृष्टि नं. 64
केवलज्ञान भाव 14 केवलज्ञान में 14 भाव होते हैं जो इस प्रकार है - क्षायिक भाव 9, मनुष्यगति, शुक्ललेश्या, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व गुणस्थान सयोग - अयोग के वली 2 होते हैं ।संदृष्टि इस प्रकार हैगुणस्थान भाव व्युच्छिति भाव । अभावं सयोग 1 शुक्ल | 14 (शायिक भाव 9, 10 के वली | लेश्या)
मनुष्यगति, शुक्ल लेश्या, असिद्धत्व,
जीवत्व, मव्यत्व) अयोग क्षायिक 13 (उपर्युक्त 14 में से 1 (शुक्ल लेश्या) केवली !दानादि शक्ल लेश्या कम करने
लब्धि , पर 13 शेष रहते हैं। असिद्धत्व, भव्यत्व, जीवत्व, मनुष्यमति)
ओदश्या भावा पुणणाणति दसणतियं च दाणादी। सम्मत्ततिअण्णाणति परिणामतियअसंजमेभावा ।।98|| औदयिका भावाः पुनः ज्ञानत्रिक दर्शनत्रिक च दानादयः। सम्यक्त्त्वत्रिक अज्ञानत्रिक पारिणामिकत्रिकं च असंयमे मावाः॥ अन्वयार्थ - (असंजमे) असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में (ओदयाभावा) औदयिक सभी भाव (पुण) पुनः (णाणति) ज्ञानत्रिक अर्थात् मतिशान, श्रुत ज्ञान, अवधिज्ञान (सणतिय) चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधि दर्शन, (च) और (दाणादी) क्षायोपशमिक दानादिक 5लब्धियाँ (सम्मत्तति) तीनों सम्यक्त्व, (अण्णाणति) कुमति, कुश्रुत विभङ्गावधिज्ञान (परिणामति) पारिणामिक तीन (एदे) ये (भावा) भाव (संति) होते हैं।
....
(116)
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अभाव
भावार्थ- संयम मार्गणा के सात भेद हैं सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसापराय, यथाख्यात, संयमासंयम, असंयम असंयम मार्गणा में 1 गुणस्थान से 4 गुणस्थान तक ग्रहण किये गये हैं । अतः सभी यहाँ औदयिक भाव संभव है।
संदृष्टि नं.65
असंयम भाव (41) असंयम मार्गणा में 41 होते हैं जो इस प्रकार हैं - रशम सम्यक्त्व, शायिक, सम्यक्त्व, कुज्ञान 3, शान 3, दर्शन 3, बायोपशमिक लब्धि 5, वेदकसम्यक्त्व, गति, 4, कषाय 4, लिंग, लेश्या 6, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व पारिणामिक भाव 3 | गुणस्थान आदि के चार होते हैं। संदृष्टि इस प्रकार है.. गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति माव मिथ्यात्व | 2 (मिथ्यात्व 34 (गुणस्थानवत् . [1 (उपशम क्षायिक अभव्यत्व) संदृष्टि 1)
सम्यक्त्व, ज्ञान 3, अवधि वर्शन, क्षयोपशमिक
सम्यक्त्व) सासादन 3(कुज्ञान 3) 32 1 " ) | उपर्युक्त 7 में मिथ्यात्व
एवं अभव्यत्व जोड़ने पर
भाव) | (उपर्युक्त में अवधि दर्शन कम करने पर
भाव) अविरत (नरक, देव 36 ( "
5(मिथ्यात्व, अमव्यत्व गति, अशुभ
कुज्ञान 3) लेश्या 3, असंयम)
मिश्र
देसजमे सुहलेस्सतिवेदतिणरतिरियगदिकसाया हु । अण्णाणमसिद्धत्तं णाणतिर्दसणतिदेसदाणादी 1991 देशयमे शुभलेश्यात्रिवेदत्रिनरतिर्यगतिकषाया हि । अज्ञानमसिद्धत्व ज्ञानत्रिकदर्शनत्रिक देशदानादयः ।।
(117)
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अन्वयार्थ (देसजमे) देशचारित्र में (सुहले स्सतिवेदति णरतिरियगदिकसाया) तीन शुभ लेश्यायें, तीनों वेद, मनुष्यगति, निर्यंच गति, चारकषाय (अण्णाणमसिद्धत्तं) अज्ञान, असिद्धत्व, ( णाणतिदंसणति देसदाणादी) तीन ज्ञान, तीन दर्शन, क्षायोपशमिक दानादिक 5 लब्धियाँ (एदे ) ये (भावा) भाव (संति) होते हैं ।
टिप्पण - एक देश गुणों के प्रकट होने के कारण 'देसदाणादि' शब्द से सायोपशमिक भाव का ग्रहण कर फहिए।
-
संदृष्टि नं. 66
देशसंयम भाव ( 31 )
देशसंयम में 31 भाव होते हैं। जो इस प्रकार हैं- उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षयो लब्धि 5, वेवक सम्यक्त्त्व, संयमासंयम, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, कषाय 4, लिंग 3 शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, मव्यत्व । गुणस्थान एक ही होता है। संदृष्टि इस प्रकार है -
भुणस्थान भाव व्युच्छित्ति
भाव
अभाव
देशसंयत
0
33 ( उपर्युक्त कथित)
▸
जीवत्तं भव्वत्तं सम्मत्ततिय सामाइयदुगे एवं तिरियमदिदेसहीणा मणपज्जवसरागजमसहियं ||100||
जीवत्वं भव्यत्वं सम्यक्त्वत्रिक सामायिकद्विके एवं । तिर्यगतिदेशहीना मन:पर्ययसरागयमसहिताः ॥ अन्वयार्थ - (सामाहयदुगे) सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापना चारित्र में (जीवत्तं) जीवत्व (भव्वत्तं ) भव्यत्व (सम्मत्ततियं) तीनों सम्यक्त्व ( एवं) और (तिरियगदि देसहीणा) तिर्यंचगति, देश चारित्र को छोड़कर (मणपज्जवसरागजमसहियं) मनः पर्यय ज्ञान, सरागसंयम सहित (एदे) ये (भावा) भाव (संति) होते हैं। भावों के नाम निम्नलिखित संदृष्टि में देखें ।
(118)
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संदृष्टि नं. 67
सामायिक + छे दोस्थापना संयम भाव ( 31 ) सामायिक छेदोपस्थापना संयम में 31 भाव होते हैं । जो इस प्रकार हैं- उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यकत्व, ज्ञान 4, दर्शन 3, भयो लब्धि 5, वेदक स., सरागसंयम, मनुष्यगति, कषाय 4, लिंग 3, शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व | गुणस्थान प्रमत्तादिक चार होते हैं संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति
भाव
अभाव
प्र.
अप्र.
अप
3 पीत, पद्म लेश्या, वेदक
सम्यक्त्व)
0
अनि स. 3 ( 3 वेद)
अनि. 3 ( क्रोध,
अवे.
मान, माया)
31 ( उपर्युक्त कथित)
31 (
}
77
28 (31 पीत, पद्म लिया मेदकसम)
28 ( उपर्युक्त )
25 ( उपर्युक्त ) 28 3 वेद)
ዑ
(119)
0
3 ( पीत, पद्म लेश्या, नेवण सम्पन)
3 ( उपर्युक्त )
6 ( पीत, पद्म लेश्या, वेदक सम्यक्त्व, लिंग 3)
-
एवं परिहारे मण पज्जवथीसंढ हीणया एवं । सुहमे मणजुद हीणा वेदतिको हतिदयतेयदुगा ||10|| एवं परिहारे मनःपर्ययस्त्रीषंढ हीनका एवं । सूक्ष्मे मनोयुक्ता हीना वेदत्रिकक्रोधत्रितयतेजोद्विकाः || अन्वयार्थ ( एवं ) इसी प्रकार (परिहारे) परिहारविशुद्धि चारित्र में उपर्युक्त सभी भाव (मण - पज्जव धीसंढ हीणया) मनः पर्ययज्ञान, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद को छोड़कर जानना चाहिए। ( एवं) इसी प्रकार (सुहमें) सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र में (मणजुद ) मनः पर्यय ज्ञान को जोड़ना चाहिए और (वेदति कोहतिदयतेयदुगा) वेदत्रिक, क्रोधादि तीन कषायें, पीत और पद्म लेश्यायें (हीणा) कम कर देना चाहिए।
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संदृष्टि नं. 68
परिहारविशुद्धि संयम भाव (28) परिहार विशुद्धि संयम में 28 भाव होते हैं, जो इस प्रकार हैं - वितीयोपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्य, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षयो. लन्धि 5, वेदक सम्यक्त्व, सराग संयम, मनुष्यगति, कषाय, पुरुषवेद, शुभ लेश्याउ, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व, गुणस्थान प्रमत्त और अपमत्त दो होते हैं। संदृष्टि निम्न प्रकार
अभाव
गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति । भाव
| 28 (उपर्युक्त) 3 (पीत, पद्म, 28 (उपर्युक्त ) लेश्या, वेदक सम्यक्त्व)
अ.प.
संदृष्टि नं.69
सूक्ष्मसांपराय संयम भाव (22) सूक्ष्मसांपराय संयम में 22 माव होते हैं जो इस प्रकार है - उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, ज्ञान , दर्शन 1, भयो. लब्धि 5, सराग संयम, मनुष्यगति, सूक्ष्म लोभ, शुक्ल लेश्या, अज्ञान, असिदत्व, जीवत्व, मध्यत्व । इसमें एक 10वां गुणस्थान मात्र होता है। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छिति । भाव 10 सूक्ष्म
| 22 (उपर्युक्त,
अभाव
सम्पराय
जहखाइए वि एदे सरागजमलोहहीणभावा हु । उवसमचरणं खाइयभावा य हवंति णियमेण ||102|| यथाख्यातेऽपि एते सरागयमलोभहीनभाया हि ।
उपशमचरणं क्षायिक भावाश्च भवन्ति नियमेन || अन्वयार्थ - (जइखाइए वि) यथाख्यात चारित्र में उपर्युक्त सभी भाव (सरागजम लोहहीणभावा) सरागचारित्र, लोभ को छोड़कर(च) और
(120)
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(उपसमचरणं) उपशम चारित्र (खाइयभावा) क्षायिक भाव (णियमेण ) नियम से (हवति) होते हैं ।
भावार्थ - समस्त मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से जो चारित्र होता है वह यथाख्यात चारित्र कहलाता है । यथाख्यात चारित्र में सरागसंयम और लोभ कषाय नहीं रहती है एवं उपशम चारित्र और क्षायिक भाव पाये जाते हैं। आचार्य महाराज ने 11 वें गुणस्थान में उपशम चारित्र तथा 12 वें गुणस्थान में क्षायिक चारित्र माना है। कारण यह है कि । वें गुणस्थान के पूर्व सम्पूर्ण मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ उपशम संभव नहीं हैं तथा 12 वें गुणस्थान के पूर्व मोहनीय कर्म की सम्पूर्ण प्रकृतियाँ का क्षय किसी प्रकार संभव नहीं है। इसी अभिप्राय को ग्रहण कर ।] वें उपशम चारित्र, उसके पूर्व 6-10 तक सराग चारित्र और 12, 13 व 14 वें क्षायिक चारित्र स्वीकार किया गया है ।
यथाख्यात संयम में 29 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं औपशमिक भाव2, कायिक 9, ज्ञान 4, दर्शन 3, सायो लब्धि 5, मनुष्य गति, शुक्ल लेश्या, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व । गुणस्थान उपशान्त मोह आदि चार होते हैं। संदृष्टि निम्न प्रकार है
-
गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति
उप.
श्रीम.
सयोग
अयोग
2 ( सम्यक्त्व
औप. चा.)
13
(गुणस्थानवत् दे. संदृष्टि 1)
(
संदृष्टि नं. 70
यथाख्यात संयम भाव ( 29 )
#C
17
13
21 ( गुणस्थानवत् दे.
संदृष्टि 1)
20 (
14 {
) 13 (
31
13
भाव
12
'
}
(121)
अभाव
8 ( क्षायिक चारित्र, क्षायिक लब्धि, केवल ज्ञान, केवल दर्शन)
9 ( औपशमिक भाव 2. शायिक लब्धि, केवलज्ञान, केवल दर्शन)
15 ( औपशमिक भाव 2, चार ज्ञान दर्शन 3, क्षयो. लब्धि 5 अज्ञान)
16 (उपर्युक्त 15 + शुक्ल लेश्या - 16)
=
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________________
चक्खुजुगे आलोए खाइयसम्मत्तचरणहीणा दु । सेसाखाइयभावाणोसंतिहु ओहिदसणे एवं ||103।। चक्षुर्युगे आलोके क्षायिक सम्यक्त्वहीनास्तु ।
शेषाः क्षायिकमावा नो सन्ति हि अवधिदर्शने एवं ।। तेसिं मिच्छ मभव्वं अण्णाणतियं चणत्थि णियमेण। केवलदसण भावा केवलणाणेव णायब्वा ।।104 ।। तेषां मिथ्यात्वं अभव्यत्वं अज्ञानत्रिकं च नास्ति नियमेन ।
के बलदर्शने मावा के बलज्ञानवत् ज्ञातव्याः ।। अन्वयार्थ - (चक्खुजुगे) चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन में रखाइयसम्मत्तचरणहीणा, कादिकसम्पवलक्षाविद शनि को छोड़कर सेसा खाइयभावा) शेष क्षायिक भाव (णो संति) नहीं होते हैं (एव) इसी प्रकार (ओहि देसणे) अवधिदर्शन में जानना चाहिए तथा (तेसि) उस अवधिदर्शन में (मिच्छ मभव्वे) मिथ्यात्व, अमव्यत्व (अण्णाणतिय) अज्ञानत्रिक (णियमेण) नियम से (पत्थि) नहीं होते हैं। (केवलदसण) केवेलदर्शन में (के वलणाणेण) केवलज्ञान के समान (मावा) भाव (णायवा) जानना चाहिये।
संदृष्टि नं. 71
चक्षु-अचक्षुदर्शन भाव.(46) चक्षु, अचक्षु दर्शन में 46 भाव होते है जो इस प्रकार है - औपथमिक भाव 2, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, कुज्ञान , ज्ञान 4, झायो. लब्धि 5, दर्शन 3, वेदक सम्यक्त्व, सरागसंयम, संयमासयम, गति 4, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, मिध्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 गुणस्थान मिथ्यात्व आदि 12 होते हैं। स्पष्टीकरण के लिये देखें संदृष्टि ।।
(122)
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________________
गुणस्थान भाव व्युच्छित
2
मि.
( गुणस्थानवत् संदृष्टि 1)
वे. संदृष्टि 1)
3(
सा.
मिश्र
अवि.
देश.
प्र.
अप्र.
FOR
उप.
श्री.
61
2 (
0
३ (
अपू.
अनि.
स.
अनि अ. ३ (
सू.
21
0
3(
2 {
13 (
") 32 (
37
17
"8
19
13
SP
7"
>
"
भाव
34 ( गुणस्थानवत् दे.
} 201
"
36 (
> 31(
310
> 31(
28
> 28 {
) 25 (
> 22 (
> 21 (
) 20 (
"
:1
11
"
17
33
19
11
"P
15
"
"P
}
}
>
}
>
}
'
'
}
}
)
अभाव
12 अभाव भावों का कथन
गुणस्थान में कहे गये अभाव भावों के समान ही है किन्तु विशेषता यह है कि 13 चक्षु अचक्षु दर्शन में क्षायिक 5 लब्धि,
14
10 केवल ज्ञान तथा केवल
दर्शन इन सात भावों
का सद्भाव नहीं होता है अतः प्रत्येक
15
15
गुणस्थान ये सात भाव अभाव में कम 15 रहते हैं । अर्थात् प्रथम
गुणस्थान में 19 भाव अभाव रूप कहे है उन में से उपरोक्त १ कम 18 करने पर 12 भाव बन
जातेहैं । इसी प्रकार
की प्रक्रिया शेष
It
21
24 गुणस्थानों में जानना
चाहिये । अभाव के
25
नाम संदृष्टि 1 से जानना चाहिए।
26
संदृष्टि नं. 72 अवधि दर्शन भाव ( 41 )
अवधिदर्शन में 41 भाव होते हैं। जो इस प्रकार हैं औपशमिक भाव 2, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, ज्ञान 4, दर्शन 3, क्षायो लब्धि 5, वेदक सम्यक्त्व, संयमासंयम, सराम संथम, अति 4, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व । गुणस्थान अविरत आदि नव होते हैं ।
(123)
Page #131
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________________
16
गुणस्थान भाव व्युच्छिति
भाव
अभाव अविरत
36 (गुणस्थानवत् दे. 5(उपशम चारित्र, | (गुणस्थानवत् संदृष्टि 1)
शायिक चारित्र, मनः दि. समुष्टि "i
रिहान, गराग संयम,
संयमासंयम) देश 12( "
" ) 10 (उपशम चारित्र, संयम
क्षायिक चारित्र, मनः पर्ययज्ञान, सराग संयम, अशुभ लेश्या 3, असंयम, नरकमति,
देवगति)
प्रमत्त चिरत
०
"
|
"
19 (उपशम चारित्र, सायिक चारिख, संयमासंयम, अशुभ लेश्या 3, असंयम, नरक गति, तिर्यच गति, देवगति 10 (उपर्युक्त) -
"
311
"
अप्रमत्त |{ विरत अपूर्वकरण ०(
"
|281
"
13 (उपर्युक्त 10 + पीत, पद्म लेश्या, वेदक
सम्यक्त्व) |13 (उपर्युक्त) 16 (उपर्युक्त 13 + लिंग
अनि. स. | 3 (
" 28 ( " )|251
अनि. अ. |38
"
सूक्ष्म सा.
2
"
22
"
| 19 (उपर्युक्त 16 + क्रोध, | मान, माया)
उपशांत |2( " ) 211
"
)
| 20 (क्षायिक चारित्र,
संयमासंयम, सरागसंयम, | कृष्णादि लेश्या, असंयम, कषाय, नरकादि गति, लिंग )
(124)
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________________
भाव
अभाव
गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति | क्षीण 31 " ) | 20 ( " ) 21 (औपशमिक भाव 2,
संयमासंयम, सराग संयम, कृष्णयादि लेश्या 5, असंयम, कषाय,
नरकादि गति, लिंग 3) विशेष - पूर्व में आचार्य महाराज ने 3 गुणस्थान से अवधिदर्शन स्वीकार किया है। किन्तु यहाँ चतुर्थगुणस्थान से माना है यह विषय विचारणीय है।
संदृष्टि नं. 73
केवल दर्शन भाव (14) केवलदर्शन में 14 भाव होते हैं जो इस प्रकार है - क्षायिक भाव 9, मनुष्यगति, शुक्न लेश्या, असिखत्य, जीवत्व, भव्यत्व । गुणस्थान अंत के दो होते हैं। गुणस्थान भाव न्युच्छित्ति भाव । अभाव
14 (उपर्युक्त )
0
सयोग | (शुक्ल केवली | लेश्या)
अयोग [ (क्षायिक I13 (उपर्युक 14- | 1(शुक्ल लेश्या) केवली दानादिक 4 | | शुक्ल लेश्या)
लब्धि , सायिक चारित्र, मनुष्य गति, असिद्धत्व भव्यत्य)
किण्हतिये सुहलेस्सति मणपज्जुवसमसरागदेसजम । खाइयसम्मत्तूणा खाइयभावा य णो संति ॥10॥ कृष्णत्रिके शुभलेश्यात्रिकमनःपर्ययशमसरागदेशयमाः ।
क्षायिकसम्यक्त्वोनाः क्षायिकभावाश्च नो सन्ति ॥ अन्वयार्थ - (किण्हतियं) कृष्णादिक तीन लेश्याओं में (खाझ्यसम्मत्तूणा) क्षायिक सम्यकत्व को छोड़कर(सुहलेस्सति) तीन
(125)
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________________
शुभ लेश्यायें (म्रणपज्जुवसमसरागदेसजमं) मनः पर्ययज्ञान, औपशमिक चारित्र, सरागचारित्र, देश चारित्र (खाइयभावा) क्षायिक भाव (णो) नहीं (सति) होते हैं।
भावार्थ -कृष्ण, नील, कापोत इन तीन अशुभ लेश्याओं में तीन शुभ लेश्यायें मनःपर्ययज्ञान, उपशम चारित्र, देश चारित्र सरागचारित्र नहीं होते हैं । क्षायिक सम्यक्त्व के सिवाय 8, क्षायिक भाव नहीं होते हैं। इस प्रकार 15 भावों के न होने से 38 भाव होते हैं एवं गुणस्थान चार होते हैं।
तीन अशुभलेश्याओं में क्षायिक सम्यक्त्वका सद्भाव कर्मभूमिज मनुष्य के चतुर्थ गुणस्थान में, बद्धायुष्क मनुष्य जो भोगभूमि में मनुष्य अथवा तिथंच होने वाला हो उसके अपर्याप्तक अवस्था में जघन्य कापोत लेश्या के साथ तथा प्रथम नरक के क्षायिक सम्यग्दृष्टि नारकी के भी जघन्य कापोतलेश्याजानना चाहिए। इस प्रकार उपर्युक्त तीन अवस्थाओं में अशुभ लेश्याओं के साथ क्षायिक सम्यक्त्व संभव है।
संदृष्टि नं. 74 __ कृष्णादि तीन अशुभ लेश्यायें भाव (38) कृष्णादि तीन लेश्याओं में 38 भाव होते है जो इस प्रकार है-सम्यक्त्व 3, कुशान 3, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षयो.लब्धि 5, गति , कषाय , लिंग 3, कृष्णावि 3 में विवक्षित लेश्या, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, प्रसिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 | गुणस्थान आदि के चार होते हैं संदृष्टि इस प्रकार है - नोट - भवनत्रिक देव में अपर्याप्त अवस्था में ही कृष्णादि 3 लेश्या होती है। गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव । अभाव मिथ्यात्व | 2 (मिथ्यात्व |31 (कुज्ञान 3, दर्शन 2,7(सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, अमव्यत्व) | खायो, लब्धि 5, गति अवधिदर्शन)
+, कषाय +, लिंग, लेश्या 3, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक माव )
(126)
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गुणस्थान भाव ब्युच्छित्ति भाव
अभाव सासादन] + (कुज्ञान 3, 129 (31- मिथ्यात्व, 9(उपरोक्त T+मिथ्यात्व, देवगति) गानाम्याचा
अभटज) मिश्र 10
29 (29 पूर्वोक्त-3 १७ पूर्वोक्त + 3 कु कुज्ञान देवगति +3 ज्ञान देवगति - 3 मिश्रज्ञान अवधि मित्र ज्ञान, अवधि दर्शन)
दर्शन) असंयत | 5(लेश्या 3, 132 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान 6 (कुज्ञान 3, मिथ्यात्व,
असंयम, 3.दर्शन , क्षयो. अमन्यत्व, देवगति) नरक गति) | लब्धि 5, नरकादि 3
गति, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या , अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व,
भव्यत्व) ण हि णिरयगदी किण्हति सुक्क उवसमचरित्त तेउदुगे। खाइयदसणणाणं चरित्ताणिहुखइयदाणादी।।106) न हि नरकगतिः कृष्णत्रिकं शुक्ल उपशमचारित्रं तेजोद्विके |
क्षायिकदर्शनज्ञानं चारित्रं हि क्षायिकदानादयः ॥ अन्वयार्थ - (तेजदुगे) पीत और पद्म लेश्या में (णिरयगदी) नरकगति, (किण्हति) कृष्णादितीन अशुभलेश्याये (सुक्क) शुक्ल लेश्या (उवसंमचरित्त) उपशम चारित्र (खाश्यदसणणाण) क्षायिक दर्शन, क्षायिक ज्ञान, (खाइयदाणादी)क्षायिक दानादिक (ण) नहीं (हुति) होते
भावार्थ -पीत और पद्म लेश्या में नरकगति, कृष्णादि तीन अशुभ लेश्यायें, शुक्ल लेश्या, क्षायिक दर्शन, क्षायिक ज्ञान, क्षायिक चारित्र, क्षायिक दानादिक 5 लब्धिये भाव नहीं पाये जाते हैं।
संदृष्टि नं. 75
पीत पद्म लेश्या भाव (39) पीत, पद्म लेश्या में 39 भाव होते है। जो इस प्रकार है - सम्यक्त्त्व 3, कुज्ञान 3, ज्ञान 4, वर्शन 3, क्षयो.लन्धि 5, · 3 गति (नरकगति रहित), कषाय , लिंग 3, लेश्या 2, संयमासंयम, सरागसंयम, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 | गुणस्थान आदि के सात होते है। संदृष्टि इस प्रकार है
(127)
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-
--- -
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गुणस्थान भाव ज्युच्छित्ति भाव
अभाव मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्व 29 (कुज्ञान 1, दर्शन |10 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान 4, अभव्यत्व) 12, क्षयो. लब्धि 5 अवधिवर्शन, संयमासंयम,
गति 3, कषाय 4, सराग संयम) लिंग3, लेश्या 2, मिथ्यात्व, असंयम,
भा, विदर,
पारिणामिक भाव 3) सासादन (कुज्ञान 3) |27 (उपर्युक्त 29 - | 12 (उपर्युक्त 10 +
मिथ्यात्व, अमठ्यत्व) | मिथ्यात्व, अभव्यत्व) मित्र |
28 (उपर्युक्त 27 - 11 (उपर्युक्त12 + कुज्ञान कुज्ञान 3, + मिश्र | 3-मिश्र ज्ञान 3,
ज्ञान 3, अवधिदर्शन) अवधिदर्शन) असंयत |2 (असंयम, 131 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान 18 (कुज्ञान 3, मनःपर्यय देवगति) 13, दर्शन 3, ज्ञान, संयमासंयम, सराग शयो.लब्धि 5,
संयम, मिथ्यात्व, तिर्यञ्चादि आदि ।
अभव्यत्व) | गति, कषाय, लिंग 3, लेश्या 2, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व,
जीवत्व, भव्यत्व) देश संयम 2 (तिर्यचगति, 30 (उपर्युक्त 31 -2 (उपर्युक्त +2 असंयम, संयमासंयम) |(असंयम, | देवमति - संयमासंयम)
देवगति+संयमासंयम)
..
प्रमत्त संयत
9(उपर्युक्त +संयमास. तियषगति -सराग संयम, मनःपर्यय ज्ञान)
30 (पूर्वोक्त 30+ सरागसयम, मनःपर्ययज्ञान - देशर्सयम,
तिर्यचगति) | (वेदक [ 30 (पर्योक्त) | सम्यक्त्व पीत, पद्म लेश्या)
अपमत्त संयत
9 (पूर्वोक्त)
(128)
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णो संति सुक्कलेस्से णिरयगा श्यरपोरसा हु भव्वे सव्वे भावा मिच्छट्ठाणम्हि अभव्वस्स ||107||
नो सन्ति शुक्ललेश्यायां नरकगतिः इतरपंचलेश्या हि ।
भव्ये सर्वे भावा मिथ्यादृष्टि स्थाने अमव्यस्य ।। अन्वयार्थ - (सुक्कलेस्से) शुक्ल लेश्या में (णिरयगदी) नरकगति, (इयरपंचलेस्सा) शेष पाँच लेश्यायें (णो) नहीं (संति) होती हैं (भब्बे) भव्य जीवों के (सव्वे) सभी (भावा) भाव होते हैं (अभव्वस्य) अभव्य जीव के (मिच्छट्ठाणम्हि) मिथ्यात्व गुणस्थान में भावों के समान भाव जानना चाहिये।
संदृष्टि नं. 76
शुक्ल लेश्या भाव (47) शुक्ल लेश्या में 47 भाव होते है। जो इस प्रकार है - औपशमिक भाव 2, क्षायिक 9, मति आदि 4 ज्ञान, दर्शन 3, वेदक सम्यक्त्व , संयमासंयम, सराग संयम, झायो. लब्धि 5, तिर्यंचादि तीन गति, कषाय 4 कुशान 3, लिंग, शुक्ल लेश्या, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 | गुणस्थान आदि के तेरह होते है। शुक्ल लेश्या में सम्पूर्ण व्यवस्था सामान्य गुणस्थानोक्त है। केवल विशेषता यह है कि इसमें कृष्णादि लेश्या एवं नरकगति का अभाव होने के कारण भाव, अमावादि में अन्तर आ जाता है संदृष्टि इस प्रकार है -
गुणस्थान भाव व्युच्छिति
भाव
अभाव
मिथ्यात्व | 2 (मिथ्यात्व, 128 अगुणस्थानवत् दे. 19 गुणस्थानवत् दे. अभव्यत्व) संदृष्टि 1-6 (कृष्णादि संदृष्टि ।)
लेश्या, नरकगति) सासावन (कुज्ञान ) 26 (32 गुणस्थानोक्त 21 गुणस्थानवत् दे.
|-6 (लेश्या 5, संदृष्टि 1)
नरकगति) मित्र 10
27 (33 गुणस्थानोक्त-120 (गुणस्थानवत् दे. 6 (कृष्णादि 5 लेश्या |संदृष्टि 1)
नरकगति) अविरत 12(देवगति, 130 136 गुणस्थानोक्त -17(गुणस्थानवत् दे. असंयम) 6 पूर्वोक्त)
संदृष्टि ।) (129)
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गुणस्थान भाव व्युच्छिति भाव
अभाव संयमा. 12 (तिर्यंचगति, 1 29 (31 गुणस्थानवत् - | 18 (22 गुणस्थानवत् - संयम संयमासंयम) | पीत पद्म लेश्या) अशुभ लेश्या, देव
नरकगति) प्रमत्त- ।
179 (11 गुणस्थानवत् । 18 (गणस्थानवत् 22 - 3 संयत
| दे. सदृष्टि 1- पीत अशुभ लेश्या, नरकगति)
पद्म लेश्या) अप्रमत्त |1( देदक 29 (उपरोक्त) | 18 (पूर्वोक्त) संयत सम्यक्त्व)
अपूर्व- 0
28 (गुणस्थानवत् दे, | 19 (गुणस्थानवत् 25 - करण
संदृष्टि )
5 लेश्या, नरकगति) अनि. 13 (गुणस्थानवत् 28 (गुणस्थानवत् दे. (पूर्वोक्त) सवे. दे. संदृष्टि 1) | संदृष्टि 1) अनि, 1 " ||251 " । | 22 (1गुणस्थानवत् दे. अवे.
संदृष्टि 1-लेश्या ,
नरकगति) सूक्ष्म. 2 " 122 1 " ) 25 (31गुणस्थानवत् दे.
संदृष्टि 1-लेश्याठ,
नरकगति) उप. 21 " ) 21 ( " ) 26 (32गुणस्थानवत् थे.
सदृष्टि 1-लेश्या 5,
नरकगति) क्षीण ( " |20 { " ) 127 (33गुणस्थानवत् दे.
सदृष्टि 1-6 पूर्वोक्त) सयोग (शुक्ल 14 { " ) 33 (39गुणस्थानवत् दे. केवली लेश्या, क्षायिक
संदृष्टि 1-6 पूर्वोक्ता दानादि चार लब्धि, हायिक
चारित्र,
मनुष्यगति, असिद्धत्व भव्यत्व)
(130)
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संदृष्टि नं. 77
मात्य जीव 153) भव्य मार्गणा में भव्य जावों के पूरे 53 भाव होते हैं। उसका कथन गुणस्थानवत् समझना चाहिए। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छिति । भाव
अभाव
19
21
मिथ्यात्व सासादन मिश्र अविरत
20
33 36
6
देशरत
31
22
31
22
प्रमत्त संयत
अप्रमत्त
28
अपूर्व करण
28
25
अनिवृति करण सवेद भाग
अनि. अवेदभाग
25
28
सूक्ष्म.
31
उपशात मोह
13
|
20
33
क्षीणमोह | सयोग के.
39
40
अयोग के
13 टिप्पण:- भव्य जीवों में अभव्य भाव संभव नहीं है। किन्तु आचार्य महाराज के अनुसार जो सारणीग्रन्ध में उपलब्ध है। वही यहाँ दी गई है। यथार्थ में अभव्य भाव की संयोजना नहीं करना चाहिए। - सम्पादक
(131)
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संदृष्टि नं. 78
अभव्य जीव भाव (34) अभव्य जीव के 34 भाव होते है जो इस प्रकार - कुशान 3, दर्शन 2, क्षयोपशम लब्धि, गति 4, कषाय , लिंग, लेश्या 6, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 31 गुणस्थान एक मिथ्यात्व ही होता है संदृष्टि इस प्रकार है - गणस्थानमा नितिन
अभाव
मिथ्यात्व |0
34 (उपर्युक्त)
|
नोट • मूल ग्रन्थ में 34 भावों की सारणी उपलब्ध है किन्तु अभव्य जीवों में भन्यजीव संभव नहीं है - अतः भव्यजीव को कम करके भावों की संयोजना करना चाहिये।
मिच्छरुचिम्हि यजी (भा) वा.चउतीसासासणम्हि बत्तीसा। मिस्सम्हि दु तित्तीसा भावा पुन्वत्तपरिणामा ||108||
मिय्यारुचौ च भावा चतुस्त्रिंशत् सासने द्वात्रिंशत् ।
मिश्रे तु त्रयस्त्रिंशत् भावाः पूर्वोक्तपरिणामाः ॥ अन्वयार्थ - (मिच्छ रुचिम्हि) मिथ्यात्व गुण स्थान में (चउतीसा) चौतीस (भावा) भाव होते हैं । (सासणम्हि) सासादन गुणस्थान में (बत्तीसा) बत्तीस (मिस्सम्हि) मिश्रगुणस्थान में (तित्तीसा) तेतीस भाव होते हैं तथा इन सभी गुणस्थानों में (पुब्बत्तपरिणामा) पूर्वोक्त कहे गये परिणाम ही होते हैं।
मिच्छमभव्वं वेदगमण्णाणतिय च खाइया भावा ॥ ण हि उवसमसम्मत्ते सेसा भावा हवंति तहिं || 109|| मिथ्यात्वमभव्यं वेदकमज्ञानत्रिकं च क्षायिका भावाः ।
न हि उपशमसम्यक्त्वे शेषा भावा भवन्ति तत्र || अन्वयार्थ - (उवसमसम्मत्ते) उपशम सम्यकत्व में (मिच्छ मभव्वं) मिथ्यात्व, अभव्यत्व (वेदगमण्णाणतिय) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, अज्ञान तीन (च) और (खाझ्याभावा) क्षायिक भाव (ण) नहीं (हवति) होते हैं (तहि) वहाँ पर (सेसा) शेष (भावा) भाव होते हैं। भावार्थ - उपशम सम्यक्त्व में मिथ्यात्व, अभव्यत्व, वेदकसम्यक्त्व,
(132)
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3 अज्ञान, 9 क्षायिक भाव नहीं होते हैं शेष 38 भाव होते हैं। आचार्य महाराज ने गाथा 96 और 109 में मन:पर्यय ज्ञान में उपशम सम्यक्त्व को ग्रहण नहीं किया है किन्तु उपशम सम्यक्त्व में मन:पर्यय ज्ञान ग्रहण किया है इन दोनों कथनों में परस्पर विरोध आता है यहाँ महाराज का यह अभिप्राय समझ में आता है कि जो मन:पर्यय ज्ञान में उपशम सम्यक्त्व को ग्रहण नहीं किया गया है उससे प्रथमोपशम सम्यक्त्व समझना चाहिए क्योकि मन:पर्यय ज्ञान एवं प्रथमोपशम सम्यक्त्व ये दोनों एक साथ होना संभव नहीं है । तथा जो उपशम सम्यक्त्व में मन:पर्यय ज्ञान का अभाव नहीं किया गया है अर्थात् सद्भाव कहा गया है उससे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व समझना चाहिए, क्योंकि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के साथ मन:पर्ययज्ञान होने में आगम से विरोध नहीं आता है।
उवसमभावणेदे वेदगभावा हवंति एदेसिं । अवणिय वेदगमुवसमजमखाइयभावसंजुत्ता ||110॥ उपशमभावोना एसे वेदकभावा भवन्ति एतेषां । अपनीय वेदकं उपशमयमक्षायिक भावसंयुक्ताः || अन्वयार्थ वेदक सम्यक्त्व में (उपसमभावणेदे) उपशम भावों को छोड़कर (वेदगभावा) क्षयोपशम भाव (हवंति) होते हैं। तथा (खाइय सम्मत्ते) क्षायिक सम्यक्त्व में उपर्युक्त भाव में से (वेदगं अवणिय) वेदक सम्यक्त्व को छोड़कर (उपसमजमखाइयभावसंजुत्ता) उपशम चारित्र, क्षायिक भावों को मिलाकर उपर्युक्त (एदेसिं) शेष भाव होते हैं। विशेष - गाथा |10 के अन्वयार्थ में जो "खाइयसम्मत्ते" क्षायिक सम्यक्त्व पद का ग्रहण किया गया है। वह गाथा 111 के प्रथम चरण से ग्रहण किया जानना चाहिए।
खाइयसम्मत्तेदे भावा ससहम्मि ? केवलं गाणं । दंसण खाइयदाणादिया ण हवंति नियमेण ||||||| क्षायिक सम्यकत्वे एते भावाः संज्ञिनि केवलं ज्ञानं । दर्शनं क्षायिक दानादिका न भवन्ति नियमेन ॥
अन्वयार्थ (ससहम्मि) संज्ञी जीवों में (णियमेण) नियम से (केवलं
(133)
-
→
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णाणं दंसण) केवलज्ञान, केवल दर्शन, (खाइयदाणादिया) क्षायिक दानादि (एदे भावा) ये भाव रण) नहीं (हवंति) होते हैं।
भावार्थ -संजी जीवों में केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक दानादि पाँच, ये 7 भाव नहीं होते हैं क्योंकि ये सातों भाव तेरहवें गुणस्थान में प्रकट होते हैं और तेरहवें गुणस्थान में भाव मन का अभाव होने के कारण तेरहवें आदि गुणस्थान वर्ती जीवसंज्ञी असंज्ञी के व्यवहार से रहित होते हैं। भाव मन के सद्भाव के कारण बारहवें गुणस्थान तक ही संज्ञी का व्यवहार देखा जाता
संदृष्टि नं.79
मिथ्यात्व भाव (34) सम्यक्त्व मार्गण में मिथ्यात्व मे अभाव होते है ये 34 भाव मिथ्यात्व गुणस्थान के मावों के समान ही है। दे. संदृष्टि । गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति | भाव मिथ्यात्व
है।
अभाव
संदृष्टि नं.80
सासादन भाव (32) सासादन में सासादन गुणस्थान के समान ही 32 भावो का कथन समझना चाहिए | दे. संदृष्टि 1 गुणस्थान | भाव व्युच्छिति | भाव
अभाच मिथ्यात्व |0
संदृष्टिनं.81
मिश्र भाव (33) मिश्र का कथन मिश्र गुणस्थान के समान ही समझना चाहिए । दे. संदृष्टि । गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति | भाव
अभाव
मिथ्यात्व 0
(134)
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संदृष्टि नं.82
उपशम सम्यक्त्व भाव (38) उपशम सम्यक्त्व में 38 भाव होते है जो इस प्रकार है - औपशमिक भाव 2, ज्ञान 4, दर्शन 3, क्षयो. लन्धि, संयमासंयम, सराम संयम, गति, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, असंयम, अज्ञान. असिद्धत्त्व भव्यत्य, नीवत्व । मुणस्थान अविरत मादि। होते हैं। संदृष्टि इस प्रकार हैगुणस्थान भाव न्युच्छित्ति भाव
अभाव
असंयम,
अविरत 16 (नरक मति, 134 (उपशम सम्यक्त्य, 1 4(उपशम चारित्र, देव गति झान 3, दर्शन 3, क्षायो | मनःपर्यय ज्ञान,
लब्धि , गति, कवाय संयमासंयम, सराग
14, लिंग, लेश्या 6, | अशुभ लेश्या
चारित्र) असंयम, अज्ञान, |असिद्धत्व, भव्यत्व,
जीवत्व) देशसंयम |(संयमासंयम 29 (उपर्युक्त 34-6 (पूर्वोक्त +6 अविरत तिर्यंचगति) अविरत
| भाव व्यु.-संयमासयम)
भावव्यु.+संयमासंयम) प्रमत्त
29 (उपशम सम्यक्त्व, 1 9(उपशम चारित्र, संयत
ज्ञान, दर्शन 3, क्षायो. | संयमासयम, नरकादि। लन्धि 5, सराग संयम, | गति, अशुभ लेश्या, मनुष्यगति, कषाय, असंयम) लिंग 3, शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व,
भव्यत्व, बीवत्व) अप्रमत्त 2 (पीत, पद्म |29 (उपर्युक्त ) 9 (उपर्युक्त) सयत
27 (उपर्युक्त 29-पीत, | 11 (७ पूर्वोक्त+ पीत पद्म लेश्या) | पद्म लेश्या) 27 (पूर्वोक्त) | 1 (पूर्वोक्त)
अपूर्व करण अनि. क. | 3 (लिम ) सवेदमाग अनि. क.| ३ (क्रोध अवेद | आदि। भाग कषाय)
24 (27 - लिंग )
14 { उपर्युक्त ||+ लिंग
(135)
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गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव सूक्ष्मसा. 2 (लोभ, 21 (उपर्युक्त 24-कषाय | 17 (उपर्युक्त किषाय 3)
सराग चारित्र) 13) उप. मोह |2
20 (पूर्वोक्त 21 + 18 (17-उपशमचारित्र (औपशमिक ]
| उपशम चारित्र- लोभ, सराग चारित्र) भाव 2) लोभ, सराग चारित्र)
टिप्पण:- मनः पर्यय ज्ञान का प्रभाव प्रथमोपशम सम्यक्त्व के साथ है द्वितीयोपशम के साथ नहीं।
संदृष्टि नं83
वेदक सम्यक्त्व भाव (37) वेदक सम्यक्त्व में 37 भाव होते हैं। जो इस प्रकार हैं- वेदक सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन 3, झायो. लब्धि 5, संयमासंयम, सराग संयम, मति, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्वगुणस्थान असंयत आदि चार होते हैं। संदृष्टि निम्न प्रकार से है . गुणस्थान भाव व्युच्छिति माव
अभाव असंयत | 16 (अशुभ | (शान 3, दर्शन ३, कामनःपर्यय ज्ञान,
लेश्या ३, वेदक सम्यक्त्व, संयमासयम, सराग असयम, नरक क्षायो. लब्धि 5, गति सेयम) गति, देव गति), कषाय 4, लिंग 3,
|लेश्या, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व,
जीवत्व,भव्यत्व) देशसयत 2
29 (ज्ञान 3, दर्शन 3, 18 (मनः पर्यथ ज्ञान, (संयमासयम, | वेदक सम्यक्त्व अशुभ लेश्या 3, तिर्यचगति)
संयमासयम, क्षायो. संयमासंयम, नरक, देव लब्धि 5, मनुष्य गति, गति, असंयम) तिर्यश्च गति, कषाय, लिंग 3, 3 शुभ लेश्या, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, मव्यत्व)
(136)
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गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव
अभाव प्रमत्त |0
29 (ज्ञान 4, दर्शन 3, | ४ (अशुभ लेश्या 3, संयत
वेदक सम्यक्त्व, संयमासंयम, नरकादि । सराग संयम, झायो. गति असंयमा लब्धि 5, मनुष्यगति, कषाय 4, लिंग 3, शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व जीवत्व, भव्यत्व))
संदृष्टि नं. 84
क्षायिक सम्यक्त्व भाव (46) क्षायिक सम्यक्त्व में 46 भाव होते हैं। जो इस प्रकार से है - उपशम चारित्र, क्षायिक भाव, ज्ञान 4, दर्शन 3, भायो, लब्धि 5, संयमासयम, सराग संयम, गति 4, कषाय 4, लिंग, लेश्या 6, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, भव्यत्व, जीवत्व । गुणस्थान चौथे को आदि लेकर 11 होते हैं। संदृष्टि इस प्रकार है गुणस्थान माद व्युच्छित्ति भाव
भभाव अविरत 16(नरक गति ] 34 (सायिक सम्यक्त्व, ] 12 (औपशभिक चारित्र, |देव गति,
ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायो. क्षायिक भाव 8, अशुभ लेश्या |लाध, गति, कषायमा
| मनःपर्यय ज्ञान, 3, असंयम) 14, लिंग 3, लेश्या 6,
| संयमासंयम, सराग असंयम, अज्ञान,
चारित्र) असिन्द्रत्य, भव्यत्व,
जीबत्व) देशसयत 2
29 (उपर्युक्त | 17 (उपर्युक्त 12
134+संयमासंयम-6 | | (संयमासंयम,
संयमासयम + 6 अविरत तिर्यचमति) अविरत की भाव
की भाव व्युच्छिति) व्युच्छिति) प्रमत्त
29 (क्षायिक सम्यक्त्व, | 17 (नरकावि गति, संयत
ज्ञान, दर्शन 3, क्षायो.
| अशुभ लेश्या 3, लन्धि 5, मनुष्यगति, कषाय, लिंग 3, शुभ ।
| असंयम, सयमासयम, लेश्या 1, अज्ञान, औपशमिक चारित्र, असिन्दत्व, प्रव्यत्व, सायिक भाव) जीवत्व)
(137)
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गुणस्थान भाव व्युच्छिति भाव
अभाव अप्रमत्त | 2 (पीत, पद्म 29 (प्रमत्त संयतोक्त)| 17 (प्रमत्त संयतोक्त) संयत | लेश्या ) अपूर्व- 10 2 7 (उपर्युक्त 29-पीत, | 19 (उपर्युक्त 17 +पीत, करण
पद्म लेश्या) | पद्म लेश्या) अनिवृत्ति | (लिंग 3,) |27 (अपूर्व करणोक्त) | 19 (अपूर्वकरणोक्त) क.सवेद भाग अनिक-13 , (पूर्वो बस n n पूर्वोक्त १५ +3 अवेद भाग मान, माया) |लिंग)
लिग)
25 (22 पूर्वोक्त + कषाय
सूक्ष्मसा |2 (लोभ, 121 (24 पूर्वोक्त
सराग चारित्र) | कषाय 3) उपशात |1 (औप, चा.) |20 (1पूर्वोक्त मोह
|+औपशमिक चा.लोभ, सराग चारित्र)
26 (25 पूर्वोक्त -औप, चा.+लोभ, सराग चा.)
शीण मोह 13 (ज्ञान 4, 20 (गुणस्थानोक्त दे. ] 26 (26 पूर्वोक्त-सायिक दर्शन 3, क्षयो. संदृष्टि ।)
बारिव+औप.चा.) लन्धि ,
अज्ञान) सयोग 1(शुक्ल (भुणस्थानोक्त दे. | 12 (औप. चारित्र, ज्ञान के वली | लेश्या) संदृष्टि 1)
4, दर्शन. ३, क्षायो. लन्धि, संयमासंयम, सराग संयम, तीन गति, कषाय, लिंग, लेश्या 5, अज्ञान
असंयम) अयोग
|13 (गुणस्थानोक्त दे. [ 13 (32 पूर्वोक्त +शुक्ल के बालरी रगुणस्थानोक्त सदृष्टि 1)
लेश्या) दे. संदृष्टि )
१
(138)
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संदृष्टि नं. 85
संज्ञी जीव भाव (46) संजी जीव के 46 भाव होते है । जो इस प्रकार है 53 मावो में से केवल ज्ञान, केवल दर्शन, क्षायिक लब्धि 5 इन 7 शायिक भावो से कम शेष 46 भाव होते है गुणस्थान आदि के 12 होते है इसमें भाव व्यु. और भावों का कथन गुणस्थान के समान जानना चाहिए । अभाव भाव को ज्ञात करने के लिए प्रत्येक गुणस्थान में कथित अमाव भावों में से 1 उपर्युक्त क्षायिक भाव कम कर देना चाहिए । यथा प्रथम गुणस्थान में अमाव भाव 19 होते हैं। उनमें 7 कम करने पर 12 अभाव भाव । गुण में जानना चाहिए। इसी प्रकार सभी गुणस्थानों संयोजना करे। संदृष्टि इस प्रकार
ASH
गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव
अभाच मिध्यात्व | 2(गुणस्थानवत् | 34 (गुणस्थानवत् दे. |12 (गुणस्थानोक्त 19दे. संवृष्टि 1) संदृष्टि ।)
7 शायिक भाव) सासादन |3 ( " 32 ( " ) |14 " 21 - 7 क्षायिक
भाव) मिश्र ( " 2 ( " ) |13 ( 20 अविरत 6 { " 236 " ! (3z. .") देशसंयत ।"
" ) 115 (22 प्रमत्त 01 " ) ( "
15("22 सयत अप्रमत्त ( " { "
15 ( 22 संयत अपू. क. |01 " 28 1
) 1825 अनि. क.3( " ( "
( 25 सवेद माग अनि. क.13{ " ( " T21 (28 . अवेद
भाग
.")
सूक्ष्म. 2 ( " उपशात 2 "
) 22 (
211
" "
) | 24 1 33 ) | 25 ( 32
क्षी. मो, ||3 (
"
01
)
26 133
-")
" (139)
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तिरियगति लिंगमसुहृतिलेस्सकसायासंजममसिद्धं । अण्णाणं मिच्छत्तं कुमइदुगं चक्खुदुगं च दाणादी ||112|| तिर्यग्गतिः लिङ्गं अशुभत्रिकलेश्याकषायासंयमा असिद्धत्वम् । अज्ञानं मिथ्यात्वं कुमतिद्विकं चक्षुकिं च दानादयः || तियपरिणामा एदे असण्णिजीवस्स संति भावा हु । आहारेऽखिलभायाभणपनवसमाससमसाम।।:311 त्रिकपारिणामिका एते असंशिजीवस्य सन्ति मावा हि ।
आहारेऽखिलभावा मनः पर्ययशमसरागदेशयमं ।। वेभंगमणाहारे णो संति हु सेसमावगणणा य । विच्छित्ति गुणट्टाणा कम्मणकायम्हि वणीदव्वा ।1114||
विभगमनाहारे नो संति हि शेषभावगणना च ।
विच्छित्तिः गुणस्थानानि कार्मणकाये वर्णितव्यानि ।। अन्वयार्थ - (असण्णिजीवस्स) असंज्ञी जीव के (तिरियगदि) तिर्यंच गति (लिंगमसुहतिलेस्स कसायासंजमसिद्धं) तीनो लिंग, अशुभ तीन लेश्यायें चार कषायें, असंयम, असिद्धत्व, अज्ञान, मिथ्यात्व (कुमइदुग) कुमति, कुश्रुत ज्ञान, (चक्खुदुर्ग) चक्षु दर्शन, अचक्षुदर्शन (दाणादी) क्षायोपशमिक दानादिक 5 लब्धियां (च) और (तियपरिणामा) तीनो पारिणामिक भाव (एदे) ये सभी (भावा) भाव (संति) होते हैं। (आहारे) आहारक मार्गणा में (अखिलभावा) सभी भाव पाये जाते हैं। (अणाहारे) अनाहारक मार्गणा में (मणपज्जवसमसरागदेसजम) मनः पर्यय ज्ञान, उपशम चारित्र, सराग चारित्र, देश चारित्र (वेभंग) विभंगावधि (णो) नहीं (संति) होते हैं। (य) और (सेसभावगणणा) शेष भावो की संख्या
और (विच्छित्ति) भावों की व्युच्छित्ति तथा (गुणहाणा) गुणस्थान (कम्मण कायम्हि) कार्मण काययोग में (वणी दवा) वर्णित किये गये
हैं।
(140)
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संदृष्टि नं. 86
असंशी भाव (27) असंज्ञी जीव के 27 भाव होते है। गुणस्थान आदि के दो होते है 27 भाव इस प्रकार है- कुशान 2, दर्शन 2, झायो, लब्धि 5, तिर्यचगति, कषाय 4, लिंग 3, अशुभ लेश्या ३, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व पारिणामिक भाव 3 । संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान | भाव व्युच्छिति
भाव । अमाव मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्व 27 (उपर्युक्त) 10
अभव्यत्व) सासादन 2 (कुज्ञान 2) |25-(उपर्युक्त 27- 2 (मिथ्यात्व, अभव्यत्व)
| मिथ्यात्व, अभव्यत्व)
चार्ट नं.87
आहारक भाव (53) आहार मार्गणा में आहारक जीव के पूरे 53 भाव पाये जाते हैं। गुणस्थान आदि के तेरह होते है इसका कथन गुणस्थान के समान जानना चाहिए । संदृष्टि इस प्रकार है- दे, संदृष्टि (1)
अभाव
गुणस्थान । भाव व्युच्छित्ति | भाव मिध्यात्व । सासादन |J.
19
मिश्र
अविरत । देश संयम | 2 प्रमत्त संयत
अप्रमत्त संयत
अर्पू.क.
|
अनि.क. |
सवेद भाग
(141)
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गुणस्थान
अनि.
क. अवेद
सूक्ष्म.
उपशांत
क्षीण मोह
संयोग
केवली
भाव भाव व्युच्छित्ति
3
2
2
13
।
25
22
सासादन 3 ( कुज्ञान 2, स्त्री वेद}
21
20
14
भाव 33 ( कुज्ञान 2, दर्शन 2 क्षयोपशम लब्धि 5, गति 4, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, मिध्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक
अभाव
आव 3)
30 (उपर्युक्त 33मिथ्यात्व, अभव्यत्व,
नरकगति )
28
(142)
31
संदृष्टि नं. 88 अनाहारक मार्गणा भाव ( 48 )
32
अनाहारक मार्गणा में 48 भाव होते है जो इस प्रकार है उपशम सम्यक्त्व, क्षयो. शायिक भाव 9, मति, श्रुत, अवधि ज्ञान, कुमति, कुश्रुत ज्ञान, दर्शन 3, लब्धि 5, क्षयोपशम सम्यक्त्व, गति 4, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, मिथ्यादर्शन, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 | गुणस्थान मिष्यात्व, सासावन, असंयत, सयोग के चली ये चार होते है। संवृष्टि इस प्रकार है ।
अभाव
गुणस्थान भाव व्युच्छिति मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्व, अभव्यत्व)
33
39
-
15 ( उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक भाव, 9, क्षयोपशम सम्यक्त्व; ज्ञान 3, अवधि दर्शन)
18 ( उपर्युक्त
15+ मिथ्यात्त्व, अभव्यत्व, नरकगति)
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गुणस्थान भाव व्युच्छिति
भाव
अभाव असंयत |29 उपम 35 आयकराला,
पर सम्यक्त्व, ज्ञान उपशम सम्यक्त्य, मिथ्यात्व, अभव्यत्व, ३, दशन, क्षयोपशम सम्यक्त्व, स्त्रीवेद, कज्ञान 2)
लाप आयो, लब्धि 5, ज्ञान 3, 15, झयोपशम सम्यक्त्व, गति
दर्शन 3, गति, कषाय 3, कषाय 4, लिग 2, लेश्या 6, लिंग 2, लेश्या असंयम, अज्ञान, 5, असंयम,
असिद्धत्व, पारिणामिक अज्ञान) भाव 2) सयोग (क्षायिक 14 (क्षायिक भाव , | 34 (औपशमिक केवली दानादि । मनुष्यगति, शुक्ल । सम्यक्त्व, क्षयो. लब्धि लब्धि, क्षायिक लेश्या, असिद्धत्व,
5, क्षायो. सम्यक्त्व,
ज्ञान 3, दर्शन 3, गति ३, लेश्या भव्यत्व,
कषाय, लिंग 3, कुज्ञान असिद्धत्व
2, लेश्या , मिथ्यात्व, मनुष्यगति)
असंयम, अभव्यत्व,
अज्ञान) टिप्पण:- अनाहारक मार्गणा में सासादन गुणस्थान में नरक गति का अभाव रहता है स्लीवेद की व्युच्छित्ति सासादन गुणस्थान में ही हो जाती है। तथा उपशम सम्यक्त्व से द्वितीयोपशम ग्रहण करना चाहिए।
चारित्र शुक्ल जीवत्व, भव्यत्व)
अरहंतसिद्धसाहूतिदयं जिणधम्मवयणपडिमाओ । जिणणिलया इदिएदे णव देवा दितु मे बोहिं ।।115||
अर्हत्सिद्धसाधुत्रितयं जिनधर्मवचनप्रतिमाः ।
जिननिलया इत्येते नव देवा दवतु मे बोधि || अन्वयार्थ - (अरहतसिद्धसाहू तिदय) अहंत सिद्ध और तीन साधु परमेष्ठी अर्थात् आचार्य, उपाध्याय और साधु (जिणधम्मवयण पडिमाओ) जिनधर्म, जिन वचन जिन प्रतिमा (जिणणिलया) जिन चैत्यालय (एदे) ये रणव) नव (देवा) देवता (में) मुझे (बोहि) बोधि अर्थात् रत्नत्रय (दिंतु) दे।
(143)
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________________ इदि गुणमम्गणठाणे भावा कहिया पबोहसुयमुणिणा। सोहंतु ते मुणिंदा सुयपरिपुण्णा दु गुणपुण्णा / / 116|| इति गुणमार्गणास्थाने भावा कथिता प्रबोधनुतमुनिना। शोधयन्तु तान् मुनीन्द्राः श्रुतपारेपूर्णास्तु गुणपूर्णाः / / अन्वयार्थ - (इदि) इस प्रकार (गुणमग्गणठाणे) गुणस्थान और मार्गणा स्थानों में (पबोहसुयमुणिणा) प्रबोध सहित श्रुतमुनि ने (भावा) भाव (कहिया) कहे।यदि कहीं त्रुटि रह गई हो तोते) उनको (गुणपुण्णा) गुणपूर्ण और (सुयपरिपुण्णा) श्रुत से परिपूर्ण (मुर्णिदा) मुनीन्द्र (सोहंतु) शुद्ध करें। इति मुनि-श्रीश्रुतमुनि-कृता भावविभंगी समाप्ता (144)