________________
अन्वयार्थ :- (सोहम्मादिसु) सौधर्म स्वर्ग को आदि लेकर (उपरिमगेविजंतेसु) उपरिम | वेयक (जाव) तक के (देवाणं) देवों के (णिव्वत्ति अपुण्णाणं) निवृर्त्य पर्याप्तक अवस्था में (विमंग) विमंगावधि ज्ञान (ण) नहीं होता है और (पढमविदियतुरियठाणा)प्रथम, द्वितीय एवं चतुर्थ गुणस्थान होता है।
संदृष्टि 28
देवगति भाव (33) सामना तो देवमति में फुट 31 मार होते है जो इस प्रकार है -सम्यक्त्व 3, ज्ञान 1, कुज्ञान 3, दर्शन , शायो. लब्धि , असंयम, देवगति, कषाय 4, पुवेद, शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, पारिणामिक भाव 3 | गुणस्थान आदि के 4 होते है। गुणस्थान| भाव व्युच्छिति भाव
अभाव मिथ्यात्व | 2 (मिथ्यात्व |26 (कुज्ञान 3, दर्शन 2,17 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, अभव्यत्व)
क्षायोपशमिक लब्धि 5, | अवधिदर्शन) असंयम, देवगति, कषाय, पुल्लिंग, शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व,
पारिणामिक भाव ) सासादन] १ (कुज्ञान 3) | 24(उपर्युक्त 26-2 19(उपर्युक्त 1+2
(मिथ्यात्व, अगव्यत्व) |(मिथ्यात्व, अभव्यत्व) 25 (मिश्रज्ञान 3, दर्शन (उपर्युक्त - 3, क्षायो. लब्धि, अवधिदर्शन) असंयम, देवगति, कषाय 4, पुल्लिंग, शुभ | लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व,
भव्यत्व) अविरत | 2 (असंयम, | 28 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान | 5(कुज्ञान 3, मिथ्यात्व देवगति) | 3, दर्शन 3, क्षायो.
अभव्यत्व) लब्धि 5, असंयम, देवगति, कषाय 4, पुल्लिंग, शुभ लेश्या, अचान असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व)
मिश्र
(76)