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गुणस्थान में (बीसंढ च्छिमाद, नसो दकी न्युमिति हो जात. है । तथा उक्त अवस्था में (मिच्छे) मिथ्यात्व गुणस्थान में (दुग) दो की (साणे) सासादन में (चदु ) चार की (असंजद) चौथे गुणस्थान में (चदु) चार की (पमत्ते) प्रमत्तगुणस्थान में (इगिवीसं) इक्कीसकी(जोगिगुणे) सयोगकेवली गुणस्थान में (णवच्छिदी) नौ भावों की व्युच्छित्ति होती
है।
भावार्थ- इस गाथा का प्रथम चरण गाथा 61 से जुड़ा हुआ है तथा आचार्य महाराज यहां यह बतलाना चाहते हैं कि निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में कर्मभूमि के मनुष्यों के मिथ्यात्व, सासादन, अर्सयत, प्रमत्त संयत और संयोग केवली ये पाँच गुणस्थान होते हैं। 1, 2, 4, 6, और 13वें गुणस्थान में क्रमशः 2, 4, 4, 21, 9 भावों की व्युच्छित्तिजानना चाहिए | प्रथम गुणस्थान, द्वितीय गुणस्थान व असंयत गुणस्थान में जन्म के समय पर्याप्तियाँ पूर्ण होने के पूर्व प्रमत्त गुणस्थान में आहारक समुद्धात के समय एवं सयोगकेवली के केवली समुद्धात के समय निर्वृत्य पर्याप्त अवस्था होती है।
संदृष्टि नं. 19 कर्म भूमिज पर्याप्त मनुष्य भाव (50) कर्मभूमिज पर्याप्तक मनुष्य के 50 माव होते हैं जो इस प्रकार से हैं - औपशमिक सम्यक्त्व, औपशमिक चारित्र, केवल ज्ञान, के क्लदर्शन, शायिक दान आदि पाँच लन्धि, क्षायिक सम्यक्त्व, पायिक चारित्र, मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय ज्ञान, कुमति,कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान, चक्षु, अचक्षु अवधि दर्शन, क्षायोपशमिक पाँच लन्धि शायोपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक चारित्र (सराग चारित्र), संयमासयम, मनुष्यगति, कोषमान, माया, लोम चार कषाय, मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम, असिद्धस्य, कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम, शुक्ल लेश्या, सीलिंग पुल्लिंग नपुंसक लिंग, जीवत्य, भव्यत्व, अभव्यत्व प्रथम गुणस्थान से लेकर सभी चौदह गुणस्थान पाये जाते है संदृष्टि निम्न प्रकार है -
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