Book Title: Bhav Tribhangi
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur

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Page 136
________________ णो संति सुक्कलेस्से णिरयगा श्यरपोरसा हु भव्वे सव्वे भावा मिच्छट्ठाणम्हि अभव्वस्स ||107|| नो सन्ति शुक्ललेश्यायां नरकगतिः इतरपंचलेश्या हि । भव्ये सर्वे भावा मिथ्यादृष्टि स्थाने अमव्यस्य ।। अन्वयार्थ - (सुक्कलेस्से) शुक्ल लेश्या में (णिरयगदी) नरकगति, (इयरपंचलेस्सा) शेष पाँच लेश्यायें (णो) नहीं (संति) होती हैं (भब्बे) भव्य जीवों के (सव्वे) सभी (भावा) भाव होते हैं (अभव्वस्य) अभव्य जीव के (मिच्छट्ठाणम्हि) मिथ्यात्व गुणस्थान में भावों के समान भाव जानना चाहिये। संदृष्टि नं. 76 शुक्ल लेश्या भाव (47) शुक्ल लेश्या में 47 भाव होते है। जो इस प्रकार है - औपशमिक भाव 2, क्षायिक 9, मति आदि 4 ज्ञान, दर्शन 3, वेदक सम्यक्त्व , संयमासंयम, सराग संयम, झायो. लब्धि 5, तिर्यंचादि तीन गति, कषाय 4 कुशान 3, लिंग, शुक्ल लेश्या, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 | गुणस्थान आदि के तेरह होते है। शुक्ल लेश्या में सम्पूर्ण व्यवस्था सामान्य गुणस्थानोक्त है। केवल विशेषता यह है कि इसमें कृष्णादि लेश्या एवं नरकगति का अभाव होने के कारण भाव, अमावादि में अन्तर आ जाता है संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छिति भाव अभाव मिथ्यात्व | 2 (मिथ्यात्व, 128 अगुणस्थानवत् दे. 19 गुणस्थानवत् दे. अभव्यत्व) संदृष्टि 1-6 (कृष्णादि संदृष्टि ।) लेश्या, नरकगति) सासावन (कुज्ञान ) 26 (32 गुणस्थानोक्त 21 गुणस्थानवत् दे. |-6 (लेश्या 5, संदृष्टि 1) नरकगति) मित्र 10 27 (33 गुणस्थानोक्त-120 (गुणस्थानवत् दे. 6 (कृष्णादि 5 लेश्या |संदृष्टि 1) नरकगति) अविरत 12(देवगति, 130 136 गुणस्थानोक्त -17(गुणस्थानवत् दे. असंयम) 6 पूर्वोक्त) संदृष्टि ।) (129)

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