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गुणस्थान भाव न्युच्छिति प्राव 14.अयोग (8) (13) रक्षायिक के बली शायिक पाँच लन्धि,
दानादि, चार सायिक सम्यक्त्व, लब्धि, क्षायिक केवलज्ञान, चारित्र, मनुष्य के वलदर्शन,मनुष्य
महि, गसिदत्व, असिद्धत्व, जीवत्व, मव्यत्व) भव्यत्य)
। अभाव (40) {औपशमिक सम्यक्त्व औपशमिक चारित्र, मति आदि चार ज्ञान, कुजान, तीन दर्शन क्षायोपशमिक पांच लब्धि, झायोपशमिक सम्यक्त्व, सराम चारित्र, संयमासंयम, लेश्या 6, तीन लिंग, चार कपाय, गति, मिथ्यात्व, असयम अज्ञान, अमव्यत्व)
सुयमुणिविणमियचलणं अर्णतसंसारजलहिमुत्तिण्है । णमिऊण बड्डमाणं भावे वोच्छामि वित्थारे ||44|| श्रुतमुनिविनतचरणं अनन्तसंसारजलधिमुत्तीर्ण ।
नत्वा वर्धमान भावान् वक्ष्यामि विस्तारे ।। अन्वयार्थ - (अणंतसंसारजलहिंमुत्तिण्ह) अनन्त संसार रूपी समुद्र को पार कर लिया है ऐसे (वहुमाण) वर्धमान स्वामी के (चलण) चरणों को (सुयमुणिविणमिय) मैं श्रुतमुनि नम्रतापूर्वक (णमिऊण) नमस्कार करके (वित्यारे) विस्तार से (भावो) भावों को (वोच्छामि) कहूँगा।
भावार्थ - श्री श्रुतमुनि ने ग्रन्थ के मध्य में मङ्गलाचरण करके वर्धमान स्वामी को नमस्कार करके आगे गति आदि 14 मार्गणाओं में भावों को कहूँगा इस प्रकार प्रतिज्ञावचन इस गाथा में प्रस्तुत किया है। विशेष -पूर्व कालीन आचार्यों ने जो शास्त्रों के आदि में मङ्गलाचरण का उल्लेख किया है। उस मङ्गलाचरण को नियम से शास्त्रों के आदि, मध्य
और अन्त में करना चाहिए। शास्त्र के आदि में मङ्गल के पढ़ने पर शिष्य लोगशास्त्र के पारगामी होते हैं, मध्य में मङ्गल के करने पर निर्विघ्न विद्या की प्राप्ति होती है और अन्त में मङ्गल के करने पर विद्या का फल प्राप्त होता है।
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