Book Title: Bat Bat me Bodh Author(s): Vijaymuni Shastri Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 8
________________ अमियक्ति वि० सं० २०४२ का आचार्यवर का लाडनूं चातुर्मास । मैं एक बच्चों की पत्रिका पढ़ रहा था। उसमें विज्ञान के किसी एक सिद्धान्त को बाल-सुलभसंवादात्मक-शेली में प्रस्तुत किया गया था। मुझे वह शेली बहुत पसन्द आई। मन ही मन एक विचार उपजा-क्यों न जैन दर्शन व सिद्धान्त को इसी रूप में प्रस्तुति दी जाये। मैंने कुछ ही दिनों में विषयों का चयन कर लिया। लिखने की इच्छा होते हुए भी मैं उस कार्य में नहीं जुट सका। कुछ आवश्यक लेखन जो पहले से चल रहा था उसे सम्पन्न करना जरूरी था। दो वर्ष तक मेरा वह विचार गर्भावस्था में पड़ा रहा। उस विचार को आकार मिला श्री डूंगरगढ़ वि० सं० २०४५ के चातुर्मास में। यों इन परिचर्चाओं का लेखन चातुर्मास से पूर्व आचार्यवर के ग्रीष्मकालीन लाडनूं प्रवास में ही मैंने प्रारम्भ कर दिया था, परिसम्पन्नता श्री डूंगरगढ़ चातुर्मास में हुई। . यों देखा जाये तो “बात-बात में बीघ” कृति में नया जैसा मैंने कुछ भी नहीं लिखा । जो विषय मैंने लिये हैं उन पर आज तक बहुत कुछ लिखा गया है। एक-एक विषय पर स्वतन्त्र ग्रंथ भी लिखे गये है। ऐसे में मेरे जैसा अल्प बुद्धि वाला व्यक्ति कुछ नई बात लिखे यह कल्पना का अतिरेक ही हो सकता है । मैं स्वयं गधे के सींग लगाने या आकाश में फूल खिलाने जेसी कोई बात कह कर पण्डित कहलाना पसन्द नहीं करता। इतना-सा जरूर है कि नई बात न होने पर भी प्रस्तुतीकरण का ढंग अवश्य नया है। जिस किसी ने इन संवादों को पढ़ा, मुझे दाद अवश्य दिया। श्री डूंगरगढ़ के अवस्था व अनुभव वृद्ध अध्यापक श्री भीष्मदेवजी को मैंने ये संवाद दिखलाये। कुछ संवादों को पढ़कर वे बोले-"मुनिवर ! आपका यह प्रयास सराहनीय है, हम विद्यालयों में इसी शैली को ही विकसित करना चाहते है। विद्यार्थियों के लिए तो ये उपयोगी है ही, हम जैसों के लिए भी ये पठनीय बन पड़े है।" इस पुस्तक में जैन दर्शन के वैचारिक पक्ष को संवाद-शैली में उकेरा गया है। दर्शन और सिद्धान्त से सम्बन्धित १५ विषयों का इसमें समावेश किया गया है। विषयों को अनावश्यक विस्तार देने की मनोवृत्ति इसमें नहीं रही, न कोई बहुत गहरे में उतरने की भी कोई भावना रही है। विषय की व्याख्या करते समय मेरे सामने मुख्यतः पात्र रूप में विद्यार्थी रहे हैं । अन्य विशाल ग्रंथों की तरह यह भी कोई गढ़ ग्रंथ न बन जाये इसका ख्याल मैंने बराबर रखा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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