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उसी जगह एक दूसरा वाक्य है
पुत्रैषणायाश्च वित्तषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्य चरन्ति। बृहदारण्यक उपनिषद् ३-५-१ ___ अर्थात्-पुत्र, धन और यशःकीर्तिकी अभिलाषाओंसे निवृत्त होकर भिक्षुक बनते हैं।
जिस व्यक्तिमें उपरोक्त एषणाएं उत्पन्न ही नहीं हुई हैं, वह इनसे निवृत्त कैसे हो सकता है ?
यजुर्वेद ब्राह्मणमें आया हैप्राजापत्यां निरूप्येष्टिं तस्यां सर्ववेदतं हुत्वा ब्राह्मणः प्रब्रजेत् ।
अर्थात्-प्राजापत्य यज्ञमें अपना सर्वस्व होम करके ब्राह्मण प्रव्रज्या अंगीकार करे। .
गृहस्थके बिना दूसरेको, प्राजापत्य यज्ञका अधिकार नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि गृहस्थाश्रमसे पहले प्रव्रज्या नहीं लेनी
चाहिये।
अथर्ववेदीय जाबालोपनिषदूमें ये वाक्य आये हैं
"अथ हैन जनको वैदेहो याज्ञवल्क्यमुपसमेत्योवाच.भगवत संन्यासं बहीति । स हो वाच याज्ञवल्क्यो ब्रह्मचर्य परिसमाप्य गृही भवेत् , गृही भूत्वा बनी भवेत, बनी भूत्वा प्रव्रजेत् । यदि वेतरथा ब्रह्मचर्यादेव प्रबजेद्ग्रहाद्वनाद्वा। अय पुनरवती वा व्रती वा नातकोऽस्नातको वा उत्सननिरननिको वा. यदहरेव विरजेत्तदहरेव प्रत्रजेत् ।"
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