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जाने पर तरह-तरहकी फटकारें सुननी पड़ती हैं, इन सबको प्रामकंटक कहा जाता है। आक्रोश, प्रहार, तर्जना, भय, भयंकर रूप तथा शब्द और मजाक आदिको सहने वाला तथा सुख और दुःखमें समान रहने वाला भिक्षु होता है। पडिमं पडि वाजिया मसाणे, नो भायए भय भेरवाई दिअस । विविह गुण तवोरए अनिच्चं, न सरीरं चाभिकंखए स भिक्खू ।।
जो श्मशान में प्रतिमा अंगीकार करके किसी प्रकारके भयंकर शब्द अथवा रूपोंसे न डरे। सदा ज्ञान, दर्शन आदि गुण तथा तपस्यामें लगा रहे, शरीरकी भी आकांक्षा न करे वही भिक्ष है।
असकय बोसट्टचत्त देहे, अकुटे व हए लसिए वा। पुठविसमे मुणी हविजा, अपियाणे अकोडहल्ले जे स भिक्खू ।।
जो अपने शरीरको बार-बार त्याग देता है अर्थात उससे ममत्व नहीं रखता। किसीके द्वारा फटकारा जाने पर, मारा जाने पर अथवा नोचा जाने पर (मुनि) पृथ्वीके समान हो जाता है। जो न अपनी तपस्याके फलकी कामना करता, न किसी बातके लिये उत्कंठित रहता है वहीं भिक्षु है।
हत्थ संजए पाय संजए, बाय संजए संजए इंदिए । अज्झप्परए सुसमाहिमप्पा, सुत्तत्थं च वियाणइ जे स भिक्खू ।।
जो हाथ, पैर, वाणी तथा इन्द्रियोंसे संयत होता है। आत्मविचार तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपमें लीन रहता है तथा
सूत्रार्थको जानता है वही भिक्षु है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com