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( ३६ ) (३) हिन्दू तथा जैन साधुको दुबारा गृहस्थ बननेका अधिकार नहीं होता। वाल्यावस्थामें दीक्षा लेनेवाला व्यक्ति युवा होनेपर यदि अपनेको संयममें न रख सके तो उसके लिए कोई मार्ग नहीं है। यदि वह गृहस्थ बन जाता है तो घृणाको दृष्टिसे देखा जाता है वह जाति बाहर समझा जाता है। उसका कोई विवाह नहीं करता। पैतृक सम्पत्ति पर भी उसका अधिकार नहीं होता। .
(४) ऐसी दशामें बहुतसे साधु उसी अवस्थामें रहते हुए दुराचार फैलाते हैं। आत्मपतनके साथ-साथ समाजको भी पतनके गड्ढे में गिराते हैं।
वर्तमान परिस्थिति तथा उपाय बालदीक्षाके इस प्रकार हानिप्रद होनेपर भी बीकानेर राज्यमें धर्म के नामपर ऐसे सम्प्रदाय विद्यमान हैं जिनमें लगभग ५० बालक और बालिकाओं को प्रति वर्ष मूंड लिया जाता है और उन्हें जन्मसुलभ अधिकारोंसे वंचित कर दिया जाता है।
पुराने समयमें संघ और पंचायतोंमें इतना बल होता था कि वे किसी भी अयोग्य कार्यको रोक सकते थे। किन्तु आजकल वैयक्तिक स्वतन्त्रताके साथ-साथ संघ-शक्ति और उसका संगठन शिथिल पड़ गए हैं। संघके नियमोंकी खुली अवहेलना की जाती है।
कई संघोंका संचालन भी ऐसे पुरुषोंके हाथमें है जो अपने कर्तव्यका पालन नहीं करते। रूढ़ि, स्वार्थ तथा अंधपरम्परा आदि कारणोंसे वे देखते हुए भी आँखें बन्द कर लेते हैं।
ऐसी दशामें बालदीक्षाकी हानिकारक प्रथाको रोकनेका एक ही उपाय है कि उसे कानून द्वारा बन्द करवा दिया जाय। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com