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उपसंहार
दीक्षा कोई खेल नहीं है। इस मार्गपर जाने वाले मुसाफिरको क्रमसे अपना अभ्यास बढ़ाना चाहिए तथा चरित्रको उन्नत करते जाना चाहिए। केवल (कपड़े पहिन लेने) वेष बदल लेने मात्रसे कोई साधु नहीं बन जाता। जिसे संसारके स्वरूपका पता हो, जिसे संसारसे विरक्ति हो गई हो तथा जिसमें मुक्ति प्राप्त करनेकी आन्तरिक अभिलाषा हो वहीं दोक्षाके योग्य होता है। साधुत्वकी योग्यता के लिए जैनधर्ममें सम्यकत्व, श्रावक व्रत तथा पडिमाधारणके रूपमें क्रमिक श्रेणियां सुन्दर रूपसे रखी गई हैं। पडिमाओंके बाद साधु जीवनकी योग्यता अपने आप आ जाती हैं। पडिमाएं ग्यारह हैं और उनकी आराधनामें साड़े पाँच वर्ष लगते हैं। इनमें धर्म अधर्म का बान, तपश्चर्या, शान्तवृत्ति, ब्रह्मचर्य, साधु जीवन, अपने लिए बनी हुई वस्तुका त्याग वगैरह सारा अभ्यास क्रमसे आ जाता है। पहली प्रतिमाका अभ्यास काल एक महीना है। दूसरीको दो महीने, तीसरीका तीन महीने, इसी प्रकार बढ़ता जाता है। पहली प्रतिमा में धारण किए गए प्रत आगे आगेकी प्रतिमाओंमें चलते रहते हैं।
हिन्दू धर्म शास्त्र के अनुसार पाँचसे माठवर्षके बीचमें उपनयन संस्कार होता है। उसके बाद ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए विद्याध्ययन करना होता है।
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