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की समस्या बहुत जटिल और नाजुक है। जिन धर्मान्ध और शिष्य-लोभी धर्मगुरुओं को समाज और राष्ट्र के प्रति अपना क्या कर्तव्य है इसका यत्किञ्चित भी ख्याल नहीं है और जो जगत् की वर्तमान कालीन देशकालात्मक परिस्थितिसे सर्वथा अज्ञात है उनके हाथों में ऐसे अबोध बालक बालिकाओं का जीवनका पड़ जाना बहुत ही खतरनाक है । वे अज्ञान बालक बालिकाएं जिन्हें अपने हिताहित की कुछ भी कल्पना नहीं होती ऐसे शिष्यमूढ़ गुरु-गुरुणियों के पल्ले पड़ कर प्रायः अपना जीवन नष्ट भ्रष्ट ही करते रहते हैं। यह विषय बहुत ही नाजुक है-और हमें अपने निजके जीवनके दीर्घकालीन अनुभवसे ज्ञात है कि ऐसे बालक-बालिकाओंकी दीक्षाका कितना विपरिणाम होता है। धर्म और समाज दोनोंके हितकी दृष्टिसे ऐसी बाल-दीक्षाओंका प्रतिबन्ध होना बहुत ही आवश्यक है और जो धर्मान्ध लोग इस विषयमें विरुद्ध वर्तन करें, करावें उन्हें योग्य शिक्षा देना प्रत्येक प्रजाहित चाहने वाले राज्यका परम कर्तव्य है। डाइरेक्टर-भारतीय विद्या भवन, ) (आचार्य) जिनविजय मुनि प्रधान-प्राकृत और हिन्दी वाङ्मय
अध्यक्ष विभाग; एवं सिंघो जैनशास्त्र शिक्षा पीठ,
) राजस्थान हिन्दी साहित्य सम्मेलन सम्पादक-सिंघी जैन ग्रन्थमाला।
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