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कानूनमें अठारह वर्षसे नीचेका बालक किसी प्रकारका ठेका लेना, सौदा करना, करार करना, आदिके लिए अयोग्य माना जाता है। दीक्षा तो सारे जीवनका सौदा है ! उसके लिए बालकको योग्य नहीं माना जा सकता।
किसी बालकको साधु बना लेनेका अर्थ है, उसे सांसारिक दृष्टि से मृत समझ लेना । ऐमा बालक अपने सभी अधिकारोंको खो देता है। इस लिये यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है।
धर्म या समाजमें फैली हुई कुप्रथाका सुधार यदि उसी समाज वाले कर लेवें तो राज्यको दखल देने की आवश्यकता नहीं है, वस्तुस्थिति ऐसी है कि समाज वाले साधुओंके हाथमें इस प्रकार बिके हुए हैं कि वे इस कुप्रथाको रोकनेके लिए अभी तैयार नहीं होते और न उनमें ऐसी शक्ति है कि वे इसे रोक सकें। ऐसी दशा में बालकोंकी हितरक्षा तथा बुराइयोंको दूर करनेके लिए बाध्य होकर कानून बनाना पड़ता है।
यह बात ठीक है कि पहले पहल यह कानून पुराने विचार वालों को बुरा लगेगा। वे इसका विरोध भी करेंगे। नई वात कितनी ही अच्छी क्यों न हो, वह पहले पहल पसन्द नहीं आती। यह तो स्वाभाविक मनोवृत्ति है । किन्तु धीरे धीरे वे सभी इस कानूनके लाभ का अनुभव करने लगेंगे और फिर वे भी इसकी प्रशंसा करेंगे। इस लिये वर्तमान विरोधकी तरफ ध्यान न देना चाहिए। सती
प्रथा प्रतिबन्धक कानून और शारदा एक्टके समय भी पहले पहल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com