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तक वह साधुओंकी मुठ्ठोमें है। अपने स्वार्थमें थोड़ी-सी भी बाधा पड़नेपर भी साधु संघके नियमोंको तोड़के लिए तैयार हो जाते हैं । चेलेकी प्राप्तिसे साधुको उतना ही हर्ष होता है जितना एक गृहस्थ को पुत्रकी प्राप्तिसे। ऐसी दशामें चेलेको अयोग्य ठहराने पर साधु अपने स्वार्थमें बाधा पड़ती देखकर संघ व्यवस्था ठुकरा देते हैं । इसके लिये अनेक उदाहरण पेश किए जा सकते हैं ।
दूसरी बात यह है कि पुराने जमे हुए कुसंस्कार या साधुओंकी अन्धभक्तिके कारण जहाँ संघ स्वयं अयोग्य दीक्षाके लिये अनुमति दे देता है । वहाँ बालकके हितकी रक्षा करना सरकारका कर्तव्य है।
ऐसा एक भी संम्प्रदाय नहीं है जिसमें अयोग्य साधु विद्यमान न हों, फिर भी संघने कभी आपत्ति नहीं उठाई । यह बात तो साधु और संघ सभी मानते हैं कि साधु बननेके लिये महान त्याग तथा वैराग्यकी आवश्यकता है और ऐसा त्याग बिरलोंमें हो पाया जाता है। किन्तु ऐसा उदाहरण एक भी मिलना कठिन है जहाँ त्याग या वैराग्यकी कमीके कारण किसी दीक्षार्थीको अयोग्य बताया गया हो और दीक्षा न दी गई हो। जिस बालकको आज मिटाइयाँ खाने और रंग-विरंगे कपड़े पहिननेकी तथा सिनेमा देखनेका शौक है, जो छोटी छोटी बातोंके लिये झगड़ता है, रोता है, जिसकी मानसिक तथा शारीरिक दशा विल्कुल गिरी हुई है, वही दूसरे दिन साधु बना लिया जाता है और यह मान लिया जाता है कि उसमें
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