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( ३६. ) साधुताके लिये आवश्यक त्याग और वैराग्य आ गए। इसे सत्यका अपलाप करनेके सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता।
उल्टे यह बात तो आवश्य देखी गई है कि पढ़ लिख जानेपर बहुतसे व्यक्तियोंने दक्षा छोड़ दी है और आज वे देश, समाज अथवा साहित्यके क्षेत्रमें आदर्श कार्य कर रहे हैं। __ इन सब बातोंके आधारपर कहा जा सकता है कि संघमें न तो अब वह वल है जिसके आधारपर वह साधुओंपर नियन्त्रण कर सके और न उतनी योग्यता ही है। ऐसी दशामें सरकारी कानून ही समर्थ बन सकता है।
(ख) यह बात ठीक है कि बड़े होने पर भी बहुतसे व्यक्तियों में दीक्षाकी योग्यता नहीं आती; किन्तु बाल्यवस्थामें इतनी योग्यता का माजाना भी बुद्धि गम्य नहीं है। सरकारी कानून इस बातको मानता है कि नाबालिग यदि कोई शर्त या प्रतिज्ञा करता है तो वह उसके लिये बाध्य नहीं होता। उसकी शर्तको कानून नहीं मानता। साधु बनते समय दीक्षार्थीको बड़ी कड़ी प्रतिज्ञाएं करनी पड़ती हैं वह आजन्म ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा करता है। अपनी सारी सम्पत्तिको छोड़ देने की प्रतिज्ञा करता है। वही बालक यदि किसीसे सौ रुपये उधार ले आता है तो जो संरक्षक यह कहकर टाल देता है कि बालककी बुद्धि अपरिपक्क होनेके कारण इस कर्जके हम जिम्मेवार नहीं हैं, वहो संरक्षक सारी सम्पत्ति त्यागने और आजन्म ब्रह्मचारी रहनेकी प्रतिज्ञाके लिये उसे परिपक बुद्धिवाला तथा सर्वथा योग्य मान लेता है-यह किसी भी दृष्टिसे उचित नहीं कहा जा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com