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अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि छोटे-छोटे बालकोंके साधु बननेसे साधु तथा गृहस्थ समाजके पतनको पूर्ण सम्भावना है।
(च) उपरोक्त पाँचों बातोंके मिलनेसे इसे राजविधि (कानून) बनाना उचित ही है।
संरक्षक का उत्तरदायित्व बालदीक्षाके समर्थक एक यह दलील देते हैं कि बालकका हितं माता पिता अथवा किसी दूसरे संरक्षकके हाथमें सुरक्षित है। यदि दीक्षा लेनेमें बालकका अहित ही होता है तो संरक्षक स्वयं उसे रोक देगा। इसके लिए कानून बनानेकी आवश्यकता नहीं है।
(१) यह दलील ठीक नहीं है। बहुनसे माता पिता अपनी सन्तानके हितको समझते ही नहीं। उदाहरण स्वरूप बहुतसे माता पिता अपनी सन्तानका विवाह वाल्यावस्थामें कर देते हैं। वे यह नहीं समझते कि इससे बालक किस प्रकार निर्बल एवं सत्वहीन हो जाता है। इस विनाशकारी कुप्रथाको रोकनेके लिए समाजहितैषियों ने कानूनकी शरण ली और शारदा एकके रूपमें बालकोंका हित कानूनके अधीन कर दिया गया। इसी प्रकार बालककी योग्यताका ख्याल बिना किए अपने बच्चोंको दीक्षा दिलानेवाले मां बाप उनके हितको नहीं समझते। ऐसे बच्चोंके हितोंकी रक्षा कानून द्वारा ही हो सकती है।
(२) कई मा बाप ऐसे भी होते हैं जो धनके लोभमें पड़कर अपने बच्चोंको बेच देते हैं। वृद्ध-विवाह इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com