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( ३५ ) (२) तार्थ और मन्दिर ऐसे साधुओंके कारण अपवित्र तथा भय एवं ठगीके स्थान बने हुए हैं । __ (३) स्त्री नथा भाले प्राणियों को यह उपदेश दिया जाता है कि केवल साधुओं को सेवा करनेमें धर्म है, इससे साधुनोंके साथ स्त्रियोंका सम्पर्क बढ़ जाता है और साधु तथा समाज दोनों पतित होते हैं।
वैयक्तिक दृष्टि साधु बनने वाले बालक या बालिकाको दृष्टिसे देखा जाय तो दीक्षासे उसका भी महान् अहित होता है।
(१) बालक मुनिधर्मको कठोरताओंको अपनी इच्छापूर्वक सहनेके लिये कभा तैयार नहीं होता। ऐसी दशामें साधु बननेके लिये या तो उसे वाध्य किया जाता है या मीठे-मीठे भोजन और पुजा सत्कार आदिका प्रलोभन दिया जाता है। दोनों दशाओंमें बालकका अहित ही है।
(२) साधुका वेष पहिननेके बाद बालकका विकास एकदम रुक जाता है। विशेषतया जैन साधुओंमें इतने बन्धन हैं कि साधु बननेके बाद पढ़ सकना अत्यन्त कठिन है। यह प्रयोग करके देखा गया है कि ममान अवस्था तथा बुद्धि वाले दो बालकोंमें से एक साधु हो जाता है और दूमरा गृहस्थ रहकर विद्याध्ययन करता है तो साधु बननेवालेके लिये समाज १५०) रु० मासिक खर्च करता है और गृहस्थके लिए १५) रु० मासिक। कुछ दिनोंमें गृहस्थ रहने वाला अच्छा विद्वान बन जाता है और साधु योंही रह जाता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com