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समय धर्म और बालदीक्षा शास्त्रीय दृष्टिसे दीक्षा विषय पर संक्षिप्त विचार करनेके बाद अब हमें समय धर्म या युगधर्मकी अपेक्षा इस विषय पर विचार करना है। समयकी मांग दूसरी सभी मांगोंसे प्रबल होती है। शास्त्र और परम्पराकी मर्यादाएं उसके सामने नहीं टिक सकती। जो लोग समयको पहिचान कर तदनुसार चलते हैं, वे प्रगतिके पथ पर आगे बढ़ जाते हैं। जो उसका सामना करते हैं वे नष्ट हो जाते हैं। अवतारी पुरुष, वीतराग तथा तीर्थङ्कर भी समयधर्मका उल्लंघन नहीं कर सके। शास्त्र तथा साधारण साधुओंकी तो बात ही क्या है। बुद्धिमत्ता इसीमें है कि उचित परिवर्तन करते हुए अपनेको तत्कालीन परिस्थितिके योग्य बनाया जाय ।
हमारा साधु-समाज हजारों वर्ष पहले बने हुए शास्त्रोंको प्रमाण मान कर उनके अनुसार चलनेकी डोंगें भले ही हांकता हो, किन्तु व्यवहार में वह बहुत गिर गया है।
१-पुराने साधु गाँवके बाहर किसी उद्यान, बाटिका या सूने घरमें उतरते थे। एक बार भिक्षाके सिवाय गाँवमें मानेका उन्हें कोई प्रयोजन न था। गृहस्थोंके साथ उनका सम्पर्क बहुत थोड़ा रहता था। आजकल साधु गाँवके बीचमें उतरते हैं। बड़ी-बड़ी हवेलियोंमें ठहरते हैं। उनके पास श्रावक तथा प्राविकामोंका जमघट दिनरात लगा रहता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com