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( २८ ) अलोल भिक्खू न रसेसु गिज्झे,
उंछं चरे जीवि अनामि कंखी। इडिंढ च सकारण पूअणं च,
चए ठिअप्पा अणिहे जे स भिक्खू ॥ चंचलतासे रहित भिक्षु रसों में गृद्ध न होवे। जीवित रहनेकी भी आकांक्षा न करता रूखा-सूखा भोजन करे। ऋद्धि, सत्कार तथा पूजा छोड़ दे। जो आत्मामें स्थिर तथा इच्छा रहित होकर विचरता है, वही भिक्षु है। न परं वएज्जासि अयं कुसीले,
जेणं च कुप्पिज न तं वएज्जा । जाणि अ पत्ते अं पुण्णपावं,
अत्ताणं न समुक्कसे जे स भिक्खू ॥ जो दूसरेको कुशील न बनावे, कोई ऐसी बात न कहे जिससे दूसरेको क्रोध हो, पुण्य और पाप को जान कर आत्माके उत्कर्षमें लगा रहे, वही भिक्ष है।
न जाइमत्ते न य रूपमत्ते, न लाभमत्ते न सुएण मत्ते । मयांणि सव्वाणि विवजाचा,
धम्मज्झाणरए जे स भिक्ख ।। । जो जाति, रूप, लाभ तथा शास्त्रज्ञानका घमंड नहीं करता। सभी मदोंको छोड़ करे जो धर्मध्यानमें लगा रहता है, वही भिक्षु है।
साधु बननेकी उपरोक्त बातें आजकल छोटे बालकोंमें आना कठिन हो नहीं असम्भव है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com