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आयु १०० वर्षकी मानी जाय, तो वह ७५ वर्षकी आयुमें संन्यास का अधिकारी होता है।
अति और स्मृतियोंके अनुसार वर्णधर्म और आश्रमधर्मका पालन करना ही हिन्दूधर्म का लक्ष्य है। माश्रमधर्मकी मर्यादानुसार जीवनकी चतुर्थ अवस्थासे पहले किसीको संन्यासका अधिकार नहीं है। इसी आदर्शको लेकर महाकवि कालीदासने रघुवंशी राजाओंकी चर्या बताते हुए रघुवंशमें कहा है
शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम् ।
वार्द्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यनाम ॥ मनुस्मृतिमें तो यहाँ तक लिखा है
ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत् । अनपाय मोक्षं तु सेवमानो ब्रजत्यघः ।। अधीत्य विधिवद्वेदान् पुत्रांश्चोत्पाद्य धर्मतः । दृष्ट्वा च शक्तितो यज्ञैर्मनो मोक्षे निवेशयेत् ।। अनधीत्य द्विजोवेदान् अनुत्पाद्य तथा सुतान् । अनिष्वाचैव यज्ञैश्च मोक्षमिच्छान् ब्रजत्यधः ॥
मनु० ० ६ श्लो० ३५-३६-३७ हिन्दू धर्मानुसार प्रत्येक व्यक्तिपर तीन ऋण होते हैं। उनमें से ऋषियोंका ऋण विधिपूर्वक वेदाध्ययन करनेसे, पितरोंका ऋण पुत्रोत्पत्तिसे और देवोंका ऋण यज्ञ करनेसे दूर होता है। इन तीनों ऋणोंके दूर होनेपर ही मोक्ष साधनाकी ओर मनको लगाना चाहिये। इन्हें बिना उतारे मोक्षकी आराधना करनेवाला अधो
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