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जैनसिद्धान्तानुसार आत्मा कर्मबन्धनके कारण संसारमें भटक रहा है। कर्मों का आत्मासे पृथक् हो जाना ही मोक्ष है। कर्मबन्धन से छुटकारा पानेके दो मार्ग हैं-श्रावक धर्म और साधु धर्म। जो व्यक्ति गृहस्थाश्रममें रहते हुए मर्यादा पूर्वक धर्मकी आराधना करना चाहते हैं, उनके लिए श्रावक धर्म है। श्रावकके लिए बारह व्रतोंका विधान है। अपनी आवश्यकताओंको उत्तरोत्तर कम करते हुए पाप की प्रवृत्तिको रोकते जाना श्रावकका कर्तव्य है। श्रावकके ब्रतोंके बाद उत्तरोत्तर विकासके लिए ग्यारह प्रतिमाएँ (श्रेणियाँ ) हैं। जो व्यक्ति और ऊँचा उठना चाहता है, उसके लिए मुनिधर्म है। मुनियोंके लिए पाँच महाव्रत पालन करनेका विधान है
(१) अहिंसा-किसी प्राणोकी हिंसा मन वचन अथवा शरीर से न स्वयं करना, न दूसरेको करने के लिए कहना और न करनेवालेका अनुमोदन करना।
(२) सत्य -किसी प्रकारका असत्य वचन मन, बचन और शरीरसे न स्वयं बोलना, न दूसरेको बोलनेके लिए कहना और न बोलनेवालेका अनुमोदन करना ।
(३) अचौर्य-किसी प्रकारकी चोरी न करना। (४) ब्रह्मचर्य-पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन करना। (५) अपरिग्रह-किसी वस्तु तथा अपने शरीरपर भी ममत्व
न रखना। उपरोक्त पाँच बातें अणुव्रतके रूपमें प्रावकके लिये भी विहित हैं, किन्तु उनका स्वरूप इतना उग्र नहीं है। श्रावक निरपराधको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com