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मारनेकी बुद्धिसे नहीं मारता। अपराधीको दण्ड देनेका उसे त्याग नहीं होता। किन्तु साधुको अपनी पूजा करने वाले तथा पीटनेवाले दोनों पर समान भाव रखना चाहिए। जैनधर्मानुसार पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पतिमें भी जीव हैं । उनकी हिंसामें भी पाप लगता है। श्रावक इस पापका पूर्ण त्याग नहीं कर सकता। साधुको इन सबकी हिंसाका भी त्याग होता है। साधु हिंसाके किसी कार्यका अनुमोदन भी नहीं कर सकता। भोजन, मकान, वन आदि उपयोगकी सभी वस्तुओंके निर्माणमें हिंसा होती है। इस लिए इन वस्तुओंका उपयोग करते समय भी साधुको बहुत विचार करना पड़ता है। साधु भोजन केवल इसलिये करे कि उससे शरीर रक्षा होती है और शरीरके द्वारा धर्माराधन हो सकता है। इसी प्रकार मकान और वस्त्र आदिको भी केवल धर्माराधनके उद्देश्यसे स्वीकार करे। अच्छे-अच्छे मकान, भोजन अथवा वस्त्र आदिकी प्रशंसा करना; उन्हें आशक्ति पूर्वक ग्रहण करना साधुके लिए सर्वथा वर्जित है। कुविचार, उतावल, द्वेष, किसीका बुरा चाहना आदि सभी बातें हिंसाके अन्तर्गत हैं और साधुके लिए वर्जित हैं। . हँसी मजाकमें या जिस असत्यसे किसी दूसरेको नुक्सान नहीं पहुंचता, ऐसा मसत्य बोलनेका श्रावकको त्याग नहीं होता। किन्तु साधुके लिए हँसी मज़ाकमें भी भसत्यका त्याग होता है। विचार वाणी अथवा आचरणमें किसी प्रकारका दिखावा, ढोंग या दूसरेको ठगनेकी वृत्ति माना मसत्य है। जिस विचार अथवा वाणीसे दूसरेको नुकसान पहुंचे, वह भी असत्य है। मुनिके लिए इन सब मसत्योंका त्याग करना मावश्यक है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com