Book Title: Baldiksha Vivechan
Author(s): Indrachandra Shastri
Publisher: Champalal Banthiya

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Page 30
________________ ( २४ ) हरिभद्रसूरिने षोडशक प्रकरणमें लिखा है-जो मनुष्य चारित्र वाला है, वही त्यागरूप दीक्षाका अधिकारी होता है । शिष्य संख्या बढाने, भिक्षा आदिके द्वारा सेवा कराने अथवा किसी दूसरे ऐहिक प्रेयोजनसे रहित होकर केवल शिष्यके कल्याण तथा कर्मों की निर्जरा के लिये दीक्षा देनी चाहिये । तेरापंथी सम्प्रदायके आदि प्रवर्तक श्री भीखणजी स्वामीने अपनी 'सरधा आचारको चोपई' नामक कृतिमें अयोग्य और बाल वृद्ध दीक्षाके सम्बन्ध में शास्त्रीय प्रमाणोंके आधार पर लिखा है सरधा आचारकी चोपई श्री भीषणजी कृत विवेक बिकलने सांग पहरावे, भेला करे आहार जी। सामग्रीमें जाय बन्दावे, फिर फिर करे खुवारजी ।। साध म जाणो इण आचारे ।। २३ ।। ढाल १ अजोगने तो दिख्या दोघां, ते भगवन्तरी आज्ञा बारजी। नशीत रो दंड मूल न मान्यो, बिटल हूवा बेकारजी ॥ साध म० ॥ २४ ।। " आछो आहार देखाए तिणने, कपड़ा दिक मोह दिखाय जी। इत्यादिक लालच लोभ बताए, भालांने मुंडे भरमाय जी ॥ साध म० ॥ ५३ ।। ढ़ाल ६ इण बिघ चेलाकर मत बांधे, ते गुण-विण कोरो भेषमी । साधपणेरो सांग पहराए, भारी हुवे - विशेषजी ।। साप म० ॥५४॥ " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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