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( ११ ) कृतेन । तद्विज्ञानार्थ स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठम् ।
मुण्डकोपनिषद् १ मु० २ खण्ड १२ मंत्र । लौकिक भोगोंको कमसे संचित देखकर ब्राह्मण निर्वेदको प्राप्त करे और समझे कि अकृत ब्रह्म कृत अर्थात् यज्ञादिके द्वारा प्राप्त नहीं हो सकता। उसे जाननेके लिए वह हाथमें समित् लेकर ब्रह्मनिष्ठ तथा श्रोत्रिय गुरुके पास जाय ।
इन सब उद्धरणोंसे पता चलता है कि हिन्दूधर्ममें सामान्य रूप से संन्यासका अधिकार चौथी अवस्थामें ही है। विशिष्ट वैराग्यसे संपन्न व्यक्ति पहले भी संन्यास ले सकता है, किन्तु यह सर्व साधारणके लिए नहीं है। 'नारदपरित्राजक उपनिषद' में ऐसे व्यक्तियोंकी गिनती की है जिन्हें दोक्षाका अधिकार नहीं है, उनमें बालकको भी गिना गया है।
व्यवहारकी दृष्टिसे देखा जाय तो हिन्दूधर्ममें आजकल बड़ी उमरमें भी वास्तविक संन्यास लेनेवाले बहुत थोड़े होते हैं । गृहस्थाश्रमसे निवृत्त होनेपर भी ब्राह्मणोंमेंसे कोई-कोई संन्यास ग्रहण करता है, वह भी जीवनके अन्तिम वर्षों में । बहुत दफा तो यह संन्यास मृत्युसे कुछ ही समय पहले लिया जाता है। संन्यासी होनेकी इच्छा वाले व्यक्तिका सिर मूण्ड दिया जाता है, यज्ञोपवीत तोड़ दिया जाता है, रुद्राक्षमाला तथा भगवे कपड़े पहिना दिए जाते हैं, हाथमें दण्ड देकर गिरि, पुरी, वन, तीर्थ, आश्रम, सरस्वती आदि शब्दोंसे
अन्त होनेवाले नवीन नाम रख दिए जाते हैं। इनके सिवाय दूसरे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com