Book Title: Avashyaksutra Niryuktirev Curni Part_1
Author(s): Sundarsuri, Pramodsagar
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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श्रीधीरसुन्दरसू० आव०अवचूर्णिः
॥१४४।।
गाथा-११५.१
ततश्च सूक्ष्मसम्परायानन्तर अथाख्यातं, अथशब्दो यथार्थे, आङ अभिविधौ, याथातथ्येन अभिविधिना च यदाख्यातं कथित अपाय चारित्रमिति तदाख्यातं, यथाख्यातमिति, यथा सर्वस्मिन् जीवलोके ख्यातं-प्रसिद्धमकषायं भवति चारित्रमिति, यच्चरित्वा-आसेव्य: शोभनं विहितं अनुष्ठान येषां ते सुविहिताः सुसाधवः व्रजन्ति, न विद्यन्ते जरा यत्र तदजर न म्रियते प्राणी यत्र तदमर, अजर चामर चाजरामर, मोक्षपदमित्यर्थः, इदं चारित्रं द्विधा-छाद्यस्थिक कैवलिक च, आद्यमुपशान्तमोहगुणस्थाने क्षीणमोहगुणस्थाने च, कैवलिक तु सयोग्ययोगिकेवलिभवं, तत्र एतेषां पञ्चानां चारित्राणामाद्यत्रयं क्षयोपशमलभ्यं, अन्त्यद्वयं तूपशमक्षयलभ्यमेव ॥११५।। अतः कर्मोपशमक्रममाह
अण-दंस-नपुंसि-त्थीवेय-छकं च पुरुसवे च ।
___ दो दो एगंतरिए सरिसे सरिसं उवसमेइ ॥११६॥ इह उपशमश्रेणिप्रारम्भकोऽप्रमत्तसंयत एव भवति, अन्ये त्वविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानामन्यतम इति वदन्ति, श्रेणिसमाप्तौ चाप्रमत्तः प्रमत्तो वा स्यात् , स चैवमारभते-अणत्ति-अनन्तानुबन्धिनः समुदायशब्दानामवयवे वृत्तिदर्शनात् , तत्रादौ युगपदन्तर्मुहूर्त्तमात्रकालेनानन्तानुबन्धिन उपशमयति, एवं सर्वत्र युगपदुपशमकालाऽन्तर्मु हतमान एव ज्ञेयः, तता दर्शन-मिथ्यात्वमित्रसम्यक्त्वरूपं त्रिविध युगपदेव, यदि पुरुषः प्रारम्भकस्ततो नपुंसक
॥१४४॥
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