Book Title: Avashyaksutra Niryuktirev Curni Part_1
Author(s): Sundarsuri, Pramodsagar
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 156
________________ श्री धीरसुन्दरसू० आव० अवचूर्णि ।।१५२।' Jain Education Inte एकैकशः क्षपयति, इह च क्षीणदर्शनसप्तको निवृत्तिवादर उच्यते, ततः ऊर्ध्वमनिवर्त्तिवादरो यावत् सङ्ख्याततमं चरमं लोभखण्ड, तत ऊर्ध्वमसख्येयानि लोभखण्डानि प्रतिसमयमेककैखण्ड क्षपयन् सूक्ष्मसम्परायो याव चरमलोभांशयः अत ऊद्धर्वं यथाख्यातचारित्री स्यात् स च महासमुद्रतरणश्रान्तवत् मोहसागर तीर्त्वाऽनाभोगनिवर्तिकरणेन विश्राम्यति, ततः छद्मस्थवीतरागत्वद्विचरमसमययोः प्रथमसमये निद्राप्रचले क्षपयति, चरमे समये पञ्चविध' ज्ञानावरण' चतुर्विधं दर्शनावरणं पञ्चविधमन्तरायमिति चतुर्दश प्रकृतीर्युगपत् क्षपयित्वाऽनन्तरसमये केवलज्ञानं केवलदर्शनं चोत्पादयति ।। १२२ - १२३ ।। अन्ये त्वेवमभिदधति, तन्मतेन तिस्रोऽन्य कर्तृ क्य इमा गाथा: वीसमऊण नियंठो दोहि उ समएहि केवले सेसे । पढमे निहं पयलं नामस्स इमाओ पयडीओ ॥ १२४ ॥ देवग आणुपुब्वी विवि संघयण पढमवज्जाइ । अन्नयरं संठाणं तित्थयराहारनामं च ॥१२५॥ चरमे नाणावरणं पंचविहं दंसणं चउवियप्पं । पंचविहमंतरायं खवइत्ता केवली होइ ॥ १२६॥ For Private & Personal Use Only. | गाथा-१२२-२ २४-२५-२६ ।।१५२।। Mainelibrary.org

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