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मूल्यांकन
भगवान् बुद्धने अपने अनुयायियोंसे कहा था
तापाच्छेदाच्च निकषात् सुवर्णमिव पण्डितः ।
परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्य मद्वचो न तु गौरवात् ।। अर्थात् हे भिक्षुओ ! ये बुद्धके वचन हैं इस कारण इन्हें कभी ग्रहण न करो, किन्तु स्वर्णकी तरह इनकी परीक्षा करनेके बाद ही इन्हें स्वीकार करो। उन्होंने यह भी कहा था कि बोधिसत्त्वको युक्तिशरण होना चाहिए, पुद्गलशरण नहीं। अर्थात् युक्तिकी सहायतासे तथ्यका निर्णय करना चाहिए, किसी पुरुष विशेषका आश्रय लेकर नहीं। इसी प्रकार आचार्य समन्तभद्रने भी देवागमादि विभूतियोंके कारण तथा तीर्थकरत्वादि विशेषताओंके कारण अपने आप्तको स्तुत्य स्वीकार नहीं किया। किन्तु उनके वीतरागता, सर्वज्ञता आदि गुणोंकी परीक्षा करनेके बाद ही उन्हें आप्त ( यथार्थ वक्ता ) के रूपमें स्वीकार किया है। यही आप्तमीमांसाका सार है।
प्रिय शिष्य श्री उदयचन्द्र जैन द्वारा लिखित 'आप्तमीमांसा' की 'तत्त्वदीपिका' नामक व्याख्याका अवलोकन कर चित्तमें अत्यन्त आनन्दका अनुभव हुआ। ये जैनदर्शन तथा बौद्धदर्शनके प्रौढ़ विद्वान् तो हैं ही, साथ ही अन्य भारतीय दर्शन और पाश्चात्य दर्शनके भी विद्वान् हैं । आचार्य समन्तभद्रकी आप्तमीमांसामें केवल जैनदर्शनके ही सिद्धान्तोंका विवेचन नहीं है, किन्तु इसमें पूर्वपक्षके रूपमें बौद्ध, सांख्य, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, वेदान्त आदिके सिद्धान्तोंका प्रतिपादन करके जैनदर्शनके प्रमुख सिद्धान्त स्याद्वादन्यायके अनुसार उनका समन्वय किया गया है। श्री उदयचन्द्रने तत्त्वदीपिकामें उन सब विषयों पर अच्छा प्रकाश डाला है जो आप्तमीमांसामें केवल सूत्ररूपमें उपलब्ध होते हैं, किन्तु उसकी टीका अष्टशती और अष्टसहस्रीमें जिनका विस्तारसे प्रतिपादन किया गया है। इन्होंने इस ग्रन्थमें सरल भाषामें आप्तमीमांसाके जिन निगढ़ दार्शनिक तत्त्वोंकी विशद व्याख्या की है उससे इनकी सर्वदर्शनीय गहन विद्वत्ता तथा अध्ययनशीलता परिलक्षित होती है।
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