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अभिलाषा थी कि इसका प्रकाशन शीघ्र हो । अतः इसके प्रकाशनमें तथा प्रकाशनको महत्त्वपूर्ण बनाने में आपका विशेष योग रहा है । अन्तमें अपने प्रारम्भिक गुरु और अग्रज सहयोगी डॉ० दरबारीलाल जी कोठिया का साभार स्मरण किये विना इस प्रकाशन प्रकरणको पूर्ण करना भेरे लिए सम्भव नहीं है ।
श्री भाई बाबूलाल जी फागुल्ल मेरे सहपाठी हैं । हम लोगों में प्रारंभ से ही दो भाइयोंकी तरह स्नेहपूर्ण सम्बन्ध रहा है, जो उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया है । आपने बड़ी ही तत्परतासे मेरी रचनाको शीघ्र मुद्रित करने की जो कृपा की है वह सदैव स्मरणीय रहेगी । यह कहने की तो कोई आवश्यकता नहीं है कि आपके प्रेस में कलापूर्ण, सुन्दर तथा आकर्षक मुद्रण होता है ।
मैं उक्त सभी गुरुजनों और हितैषी महानुभावोंका आभार किन शब्दोंमें व्यक्त करूँ। मैं तो यही अनुभव करता हूँ कि मैंने जो कुछ सीखा तथा अपने जीवनमें जो कुछ थोड़ी-सी प्रगति की वह सब अपने गुरुजनों और हितैषी महानुभावोंके आशीर्वाद और कृपाका ही फल है ।
आप्तमीमांसा, अष्टशती और अष्टसहस्री इन तीनोंका विषय अत्यन्त क्लिष्ट है । मैंने अष्टशती और अष्टसहस्री के प्रकाशमें आप्तमीमांसा के तत्त्वोंको तत्त्वदीपिकामें स्पष्ट करनेका प्रयास किया है । फिर भी विषयकी क्लिष्टता तथा गूढ़ता के कारण अनेक स्थलोंमें त्रुटियोंका होना सम्भव है । अतः विज्ञ पाठकोंसे अनुरोध है कि वे मेरी त्रुटियों के विषयमें मुझे सूचित करनेकी कृपा करें जिससे भविष्य में उनको सुधारा सके ।
वाराणसी २६ जनवरी, १९७५
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उदयचन्द्र जैन
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