Book Title: Aptamimansa Tattvadipika
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 13
________________ क्षेत्र चयन करनेमें भी आपकी पवित्र प्रेरणा ही मूलमें रही है । आप्तमीमांसाके कई कठिन स्थलोंके विषयमें मैंने आपसे अनेक बार घण्टों तक परामर्श किया और आपने कई दिन तक अपना अमूल्य समय देकर अनेक उपयोगी परामर्श दिये । प्राक्कथन लिखकर तो आपने मेरे ऊपर जो अनुग्रह किया है वह चिरस्मरणीय रहेगा। आदरणीय भिक्षु जगदीशजी काश्यप काशी हिन्दू विश्वविद्यालयमें मेरे केवल अध्यापक ही नहीं रहे, किन्तु प्रारम्भसे ही विशेष स्नेहके कारण परम हितैषी भी रहे हैं। यही कारण है कि जब आपने सन् १९५१ में बिहार शासनके सहयोगसे नालन्दामें पालि-संस्थानकी स्थापना की और आप उसके प्रथम निदेशक हुए तो उस समय उस संस्थामें मुझे नियुक्त करनेके विषयमें आपने मुझे लिखा था। यत: मैं उस समय धार ( म० प्र० ) में था अतः अपनी विवशताके कारण नालन्दा नहीं पहुँच सका था। फिर भी आप मुझे भूले नहीं, और सन् १९६१ में आपने मुझे नव नालन्दा महाविहारकी महापरिषद्का सदस्य बनाया। इससे आपकी मेरे प्रति आत्मीयताका आभास मिलता है। प्रसन्नताकी बात है कि आपने मेरे अनुरोधको स्वीकार करके अस्वस्थ होते हुए भी प्रस्तुत कृति पर मूल्यांकन लिख कर मुझे अनुगृहीत किया है । आपकी यह आत्मीयता और स्नेह सदा ही अविस्मरणीय रहेंगे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालयमें दर्शन-विभागके प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष डॉ० रमाकान्तजी त्रिपाठीने अंग्रेजीमें Foreword ( भूमिका) लिखनेका अनुग्रह किया है, तथा प्राच्यविद्या-धर्मविज्ञान संकायमें दर्शनविभागाध्यक्ष पं० केदारनाथजी त्रिपाठीने संस्कृतमें 'शुभाशंसनम्' लिखनेकी कृपा की है, और संस्कृत विश्वविद्यालयके प्रोफेसर एवं पालिविभागाध्यक्ष पं० जगन्नाथजी उपाध्यायने पुरोवाक लिखकर अनुगहीत किया है । इस प्रकार उच्च कोटिके पाँच विद्वानों द्वारा लिखित मूल्यांकन, प्राक्कथन आदिसे निश्चित ही यह कृति गौरवान्वित हुई है। ___ श्रीमान् प्रो० खुशालचन्द्रजी गोरावालाका प्रारम्भसे ही मेरे ऊपर अनुज तुल्य स्नेह रहा है । वे हम सबके आदरणीय बड़े भाई हैं। इसलिए हम लोग उनको 'भाई साहब' ही कहते हैं। आपने गत वर्ष कई बार कहा कि 'आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका' को प्रकाशित करनेके लिए क्यों नहीं कहते। यदि वर्णी ग्रन्थमालासे इसका प्रकाशन सम्भव न हो तो इसके लिए कोई दूसरी व्यवस्था की जा सकती है। आपकी उत्कट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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