Book Title: Apbhramsa Vyakarana Hindi
Author(s): H C Bhayani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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अपभ्रंश के ही हैं । आभीरी और अपभ्रंश के प्रगाढ सम्बन्ध के अन्य कई प्रमाण भी मिलते हैं । ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो दूसरी शताब्दी में सौराष्ट्र में आभीरराज ईश्वरसेन के शासन का उल्लेख मिलता है। पुराणों में उत्तर के, वायव्य या पश्चिम के प्रदेशों के साथ आभीरों का सम्बन्ध बताया गया है । 'महाभारत' (सभापर्व ) कौर 'ब्रह्मांडपुराण' आभीरों को सिंधुप्रदेश के बताते हैं । क्रमशः आभीरों की आबादी दक्षिण की ओर गयी होने के भी प्रमाण मिलते हैं । 'बृहत्संहिता' में कहा गया है कि आभीर आनर्त और सौराष्ट्र में तथा कोंकण में थे । इस प्रकार प्रतीत होता है कि सिंघ, राजस्थान, ब्रजभूमि, मालवा, गुजरात, सौराष्ट्र, खानदेश और air तक का प्रदेश समय-समय पर आभोरों से जुड़ा होगा । विदर्भ के आसपास के दिगम्बर जैन कवियों के और राजस्थान के श्वेताम्बर जैन कवियों के प्राप्त अपभ्रंश में विस्तृत महाकाव्य, सौराष्ट्र के वलभी में अपभ्रंश साहित्यरचना का प्राप्त प्राचीन शिलालेखीय निर्देश और गुजरात के हेमचन्द्र द्वारा अपभ्रंश का सविस्तर निरूपण आदि तथ्य तथा आधुनिक हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती का अपभ्रंश से घनिष्ठ सम्बन्ध उपर्युक्त कथन का समर्थन करते हैं ।
भाषाविकास की दृष्टि से अपभ्रंश का स्थान प्राकृत के बाद और अर्वाचीन उत्तर भारतीय भाषाओं के पहले का है । भारत की भारतीय आर्य भाषाओं का वेद से लेकर आज पर्यंत का इतिहास अध्ययन की सुविधा के लिए तीन भागों में बाँट दिया गया है । प्राचीन भारतीय - आर्य (वैदिक भाषा, प्रशिष्ट संस्कृत), मध्यकालीन भारतीय आर्य (पाली, प्राकृत, अपभ्रंश आदि), नव्य भारतीय - आर्य (हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि) । इनमें मध्यकालीन भारतीय आर्य के तीन क्रमिक विभाग- ( 1 ) प्राचीन प्राकृत-अशोककालीन बोलियां, पाली, (2) द्वितीय प्राकृत (साहित्य, नाटक आदि की प्राकृत); और (3) तृतीय प्राकृत (अपभ्रंश) किये जा सकते हैं । "इस दृष्टि से देखने पर अपभ्रंश मध्यकालीन और आधुनिक युग के संधिकाल का संकेत करती है । अपभ्रंश आंशिक रूप से प्राकृत होने के बावजूद उसकी अपनी निजी कई विशेतषायें हैं, जो आगे चलकर आधुनिक युग में भी दिखाई देती है । अभ्रंश का उच्चारण मुख्य बातों में प्राकृत के अनुसार रहा है । परंतु कुछ बातों में अपभ्रंश प्राकृत से भिन्न है जैसे- अंत्य स्वरो के ह्रस्व उच्चारण का प्राबल्य, अनाद्य स्थान पर स्थित 'ए' 'ओ' का भी हृहत्र उच्चारण, अनुनासिक स्वरों की बहुलता, नासिक्य वकार, दो स्वरों के मध्य स्थित 'सू' का ' ू', 'व'> ( पूर्वस्व र दीर्घत्व) + 'व' की प्रक्रिया, प्रदेशभेद के अनुसार अघोरेफ युक्त संयुक्त
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