Book Title: Apbhramsa Vyakarana Hindi
Author(s): H C Bhayani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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परिशिष्ट 330/1 के साथ तुलनीय :
मरगय-वन्नह पियह उरि पिय चंपय-पह-देह । कसवट्टई दिन्निय सहइ नाइ सुवन्नह रेह ।।
('कुमारपाल प्रतिबोध', पृ. 108) 'मरकत वर्ण के प्रियतम के हृदय पर चंपई देहआभावाली प्रियतमा, कसौटी के पत्थर पर सुवर्ण की रेखा खींची हों ऐसी सुन्दर लग रही है ।' 330/2 के साथ तुलनीय :
दे सुअणु पसिअ एण्हि पुणो वि सुलहाइँ रूसिअधाई । एसा मअच्छि मअलंछणुज्नला गलइ छण-राइ ॥
__ (सप्तशतक,' 5/66)). 'हे सुतनु, अभी तो प्रसन्न हो, मान तो बाद में भी सरलता से किया जा सकता है । मृगाक्षी, यह चन्द्रोज्जवल उत्सवरात्री चली जा रही है' !
टीकाकार दे सुअणु के स्थान पर दे सुहअ 'सुभग' ऐसा पाठ बताता है । यह पाठांतर लेने पर पूर्वपद नायक को और उत्तरपद नायिका को दूती द्वारा संबोधन के रूप में लिया जायें। टीकाकार द्वारा निर्देशित पाठांतर लेने पर गाथा का पूर्वपद हेमचंद्र द्वारा दिये गये दोहे के पूर्वाध के करीब का होता है । 'वज्जालग्ग' की एक गाथा का उत्तर पद भी इसी भाव का है : माणेण मा नडिज्जसु माणंसिणि गलइ छण-राई ।
('वज्जालग', 351/2) 'मानिनी, मान से दुःखी मत हो । उत्सवरात्री चली जा रही है ।' 330/3 के साथ तुलनीय :
कस्य न भिंदइ हिययं अणंग-सर-घोरणि व निवडंती ।
बालाएँ वलिय-लोयण-फुरंत-मयणालसा दिट्ठी ॥ 'बाला की तीरछी आँखों में स्फुरित प्रेम के कारण अलस बनी हुई दृष्टि, अनंग की शरधारा की भाँति, पड़ते ही किसका हृदय न बेधे ?'
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