Book Title: Apbhramsa Vyakarana Hindi
Author(s): H C Bhayani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 224
________________ १५९ 352 : 'शृगारप्रकाश' पृ. 1222 पर यह दोहा मिलता है | इस के साथ तुलनीय : पासासंकी काओ णेच्छदि दिणं पि पहिअधरणीए । ओणंत-करअलोगलिअ-वलअ-मज्झ-ठिअं पिंड ॥ (सप्तशतक', 3/5) 'झुकती हथेली के कारण मरके हुए कंगन के बीच रहा पिंड पथिक-गृहिणी के देने के बावजुद, पाश की आशंका से कौआ (खाना) नहीं चाहता । काग उडावण धण चडी, आयां पीव भडक। आधी चूडी काग-गल, आधी गई तडक ।। (राजस्थानी दोहा,' पृ. 238) 357/2. 'सरस्वतीकंठाभरण' 2/76 और 'शृगारप्रकाश', पृ. 238 पर यह मिलता है। 364 के माथ तुलनीय : विहलुद्धरण-सहावा हुवंति जइ के-वि सप्पुरिसा ॥ . ('सप्तशतक', 3/85 (2)) 'दुःखियों का उद्धार करने के स्वभाववाले तो कोई-कोई ही सत्पुरुष होते हैं। 365/1 के साथ तुलनीय : नयणाई नूण जाईसराई वियसंति वल्लहं दटूटुं । कमला इव रवि-कर-वोहियाई मउलेति इयरम्मि ॥ ('जुगाइजिणिंदचरिय', पृ. 28, पद्य 33) जाईसराई मन्ने इमाई नयणाई होति लोयस्स । विसंति पिए दिटठे अश्वो मउलंति वेसम्मि । (गाहारयणकोस', पद्य 52) जाईसराई.........लोअ-मज्झम्मि । पढम-दंसणे चिय सुगंति सत्तुं च मित्तं च ॥ ('जिनदत्ताख्यान,' पृ. 47, पद्य 44) अइपसण्णु मुहु होइ सभासणु पडिवज्जइ । पुष्व-भवंतर-णेहु जण-दिट्ठिएँ जाणिजह ॥ ('महापुराण', 9/5/13-14) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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