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352 : 'शृगारप्रकाश' पृ. 1222 पर यह दोहा मिलता है | इस के साथ तुलनीय :
पासासंकी काओ णेच्छदि दिणं पि पहिअधरणीए । ओणंत-करअलोगलिअ-वलअ-मज्झ-ठिअं पिंड ॥
(सप्तशतक', 3/5) 'झुकती हथेली के कारण मरके हुए कंगन के बीच रहा पिंड पथिक-गृहिणी के देने के बावजुद, पाश की आशंका से कौआ (खाना) नहीं चाहता ।
काग उडावण धण चडी, आयां पीव भडक। आधी चूडी काग-गल, आधी गई तडक ।।
(राजस्थानी दोहा,' पृ. 238) 357/2. 'सरस्वतीकंठाभरण' 2/76 और 'शृगारप्रकाश', पृ. 238 पर यह मिलता है। 364 के माथ तुलनीय : विहलुद्धरण-सहावा हुवंति जइ के-वि सप्पुरिसा ॥
. ('सप्तशतक', 3/85 (2)) 'दुःखियों का उद्धार करने के स्वभाववाले तो कोई-कोई ही सत्पुरुष होते हैं। 365/1 के साथ तुलनीय :
नयणाई नूण जाईसराई वियसंति वल्लहं दटूटुं । कमला इव रवि-कर-वोहियाई मउलेति इयरम्मि ॥
('जुगाइजिणिंदचरिय', पृ. 28, पद्य 33) जाईसराई मन्ने इमाई नयणाई होति लोयस्स । विसंति पिए दिटठे अश्वो मउलंति वेसम्मि ।
(गाहारयणकोस', पद्य 52) जाईसराई.........लोअ-मज्झम्मि । पढम-दंसणे चिय सुगंति सत्तुं च मित्तं च ॥
('जिनदत्ताख्यान,' पृ. 47, पद्य 44) अइपसण्णु मुहु होइ सभासणु पडिवज्जइ । पुष्व-भवंतर-णेहु जण-दिट्ठिएँ जाणिजह ॥
('महापुराण', 9/5/13-14)
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