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________________ १६० 'मुख अति प्रसन्न हों, संभाषण करे: (यों ) पूर्वजन्म का स्नेह का लोगों की दृष्टि द्वारा पता चलता है ।' 366/1 का अनुकरण 'दोहा - पाहुड' 88 में मिलता है : सयल - वि को -वि तडफडइ सिद्धत्तणहु तणेण । चित्तएं निम्मलएण ॥ परि पावियइ सिद्धत्तणु 367/1 के साथ तुलनीय : जह सो न एइ गेहूं सो होही मज्झ पिओं ता दूइ अहोमुही तुमं जो तुज्झ न खंडए 'हे दूती, यदि वह घर नहीं आ रहा तो इस में तुम्हारा सिर क्यों झुक गया है ? तुम्हारा वचन ( तथा 'वदन' ) जो खण्डित न करे वही मेरा प्रिय हो सकता है । कीस । वयणं ॥ (' वज्जाला', 417) 567/3 = 'परमात्मा प्रकाश' 2/76 | ( पाठांतर 'बलि किउ माणुस - जन्मडा देक्खंत हूँ पर साद' ।) 367/4 के साथ तुलनीय : किं गतेन यदि सा न जीवति प्राणिति प्रियतमा तथापि किम् । इत्युदीक्ष्य नवमेघमालिकां न प्रयाति पथिकः स्वमन्दिरम् || ( भर्तृहरि : ''गारशतक, 67 ) 368 के साथ तुलनोय : मालइ - विरहे रे तरुण - मसल मा रुवसु निब्भरुक्कंठं | ('asarem', 241) ' हे तरुण भ्रमर, मालती - विरह में तुम ऊँची आवाज में भरपूर रो मत ।' 370/2 के उत्तरार्ध के साथ तुलनीय : सा तुज्झ वलहा, तं सि मज्झ, Jain Education International वेसो सि तीअ, तुज्झ अहं । ( ' सप्तशतक, ' 2 /26) 'वह है तुम्हे प्रिय, तुम हो मुझे, तुम हो उसके धिक्कार का पात्र, (तो) मैं तुम्हारे (धिकार का पात्र ) ।' 3/76 = 'कुमारपाल - प्रतिबोध', पृ. 257. ( पाठान्तर थोडा, इउ कायर चिंतंति, कइ उज्जोउ । 377/1. 'कुमारपाल - प्रतिबोध', पृ. 85 पर मिलता पद्य. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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