Book Title: Apbhramsa Vyakarana Hindi
Author(s): H C Bhayani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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भमरा कडुयइ निंबडइ, दीहा के-वि विलंबु । घण-तरुवरु-छाया-बहुलु, फुल्लइ जाव कयंबु ॥ फुल्लइ जाव कयंबु, सुरहि-पाडल-सेवंतिई अवरे पडिखहि दिवस पांच चंपय-मालत्तिइ भमरु कि कडुयइ रइ करइ पुणु दइवउ सहावह जम्मणु मरणु बिदेस-गमणु किं कस्सु विहावइ ।
('प्राचीन गुजगती दुहा', भो. ज. सांडेसरा, ऊर्मिनवरचना, 1978, पृ. 286 और बाद के; पद्य क्रमांक 16).
3. द्विभगी के अंशरूप उदाहरण
बीकानेर के बड़े भण्डार से अंदाजन पन्द्रहवीं शताब्दी की मानी जाती एक सुभाषित-संग्रह की पोथी में से अपभ्रंश या प्राचीन गुजराती के कुछ सुभाषितों को भोगीलाल सांडेसराने 'ऊर्मिनवरचना' के 583-584 अंकों में (अक्तु. नवे, 1978, पृ. 285-290) प्रकाशित किया है । इनमें से पांच सुभाषित ऐसे हैं जो या तो परस्पर जुड़े हुये-युग्म रूप हैं या तो दो ईकाई के बने हैं जिन्हें यहाँ उद्धृत किया है । इन में से चार का छंद दोहा या सोरठा है । पांचवां जो कि दो-दो ईकाई का बना हुआ है उसका छंद 'प्राकृत पैंगल' के अनुसार कुंडलिया है यानि कि दोहा + वस्तुवदनक (- रोला) । प्रथम चार युग्मों को प्रश्नोत्तर के रूप में या उक्तिप्रत्युक्ति माना जा सकता हैं । पाँचवे में दोहे में निबद्ध अर्थ का रोला में विस्तार हुआ है और उल्लाला की प्रयुक्ति (दोहे के चौथे चरण का रोला के पहले चरण के प्रारंभ में पुनरावर्तन) के कारण वह भी उपर्युक्त चार को श्रेणी में आ सकता है ।
इनमें से तीन इस दृष्टि से रसप्रद है कि उनका केवल पहला पद्य हेमचन्द्राचार्य के अपभ्रंश व्याकरण में भी उदाहरण के रूप में मिलता है (335, 442-3 पाठभेद से, 387.2)। इससे सवाल यह पैदा होता है कि हेमचन्द्र को (या इसके आधारभूत स्रोत को) ये दोहे किस रूप में परिचित होंगे । यानि कि प्रश्नोत्तर के, उक्तिप्रत्युक्ति के या द्विभंगी छंद की पहली ईकाई के रूप में या स्वतंत्र मुक्तक के रूप में ? यदि अंतिम विकल्प का स्वीकार करें तो सुभाषितसंग्रह में जिस रूप में ये मिलते हैं उसे मूल रूप का विस्तार मानना पड़ेगा । किसी उत्तरकालीन कविने पुरोगामी रचना के विषय का अनुसंधान किया
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