Book Title: Apbhramsa Vyakarana Hindi
Author(s): H C Bhayani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

Previous | Next

Page 223
________________ कुलेसु गिरि-णइण निवसामि वरे अरण्ण-वासम्मि । न य खल-वयणस्स गेहं पविसामि पुणो भणइ रामो ॥ (वही, 15, 17) वस्था िवकलाई वित्थिन्न-सिलायलाई सयणीयं । असणं जत्थ फलाई तं रन्नं कह न रमणीयं ॥ ('नाणपंचमी-कहा,' 6/51) 'जहाँ वल्कल के वस्त्र, विस्तीर्ण सिलातल का बिस्तर और फलों का भोजन (सुलभ) है, उस अरण्य को रमणीय क्यों न (माना जाये) ?' 343/2 के साथ तुलनीय : जेण विणा ण जिविज्जइ अणुणिज्जइ सो कआवराहो वि । पत्ते वि णअरदाहे भण कस्त ण वल्लहो अग्गी ॥ ('सप्तशतक', 2/63) जिसके बिना जिया न जायें उसने यदि अपराध किया हो तो भी उसे मनाना होगा । नगर जल रहा हो तब भी अग्नि किसे प्रिय नहीं होगा ?' यही 'वज्जालग्ग' में 557 वीं गाथा के रूप में है। वहाँ जिविज्जड के स्थान पर वलिज्जइ (शरीर) ('पुष्ट न हों-अच्छा न हों') ऐसा पाठांतर है । 'प्राकृत पैंगल' में (मात्रावृत्त 55) भी यह गाथा उद्धृत हुई है। 350/2 के साथ तुलनीय : स्वकीयमुदरं भित्वा निर्गतौ च पयोधरौ । परकीयशरीरस्य भेदने का कृपालुता ।। ('सुभाषितरत्नभाडांगार', पृ. 256, श्लोक 264) 'स्तन अपना उदर भेद कर निकले हैं, (तो) दूसरों का शरीर बेधने में (३) क्या दयालु होंगे ! 351/1 के साथ तुलनीय : अन्ना पई नियच्छइ जह पिठिं रणमुहे न देसि तुमं । मा सहियणस्स पुरओ ओगुल्ठिं नाह काहिसिमो ॥ ('पउमचरिय', 56/15) 'दूसरी पति पर दबाव डालकर कहती है कि तुम संग्राम में मोरचे से पीठ मत फेरना । प्रिय, कहीं हमें सखियों के सामने नीचा नीचा न देखना पड़ें ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262