Book Title: Apbhramsa Vyakarana Hindi
Author(s): H C Bhayani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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कि व्याकरणकार द्वारा निर्धारित भाषा अथवा अर्थ की सीमा के बाहर भी भिन्नभिन्न प्राकृतों के लक्षण देखने को मिलते हैं । ये सब बाते उस बात की द्योतक हैं कि अपभ्रंश व्याकरण की पद्धति कुछ अंश में स्थूल या शिथिल है । व्याकरण का नियम अर्थात् कही हुई शर्तों और सीमाओं के भीतर समाविष्ट सभी घटनाओं पर लागु होता एक सामान्य विधान । सिद्धांत की दृष्टि से उस में अपवाद नहीं होते। अपवाद या तो अन्य किसी नियम का-भिन्न शर्तों और सोमाओं का सूचक होता है अथवा बह किसी बाह्य प्रभाव का परिणाम होता है । एक स्वर के स्थान पर किन शर्तो पर अन्य स्वर आता है या किन कारणों से एक के बदले दूसरे लिंग का प्रयोग होता है-इस की स्पष्टता के अभाव में ही ऊपर कहे एसे विधान करने पड़ते हैं । इस पर से यह न समझे कि अपभ्रंझ में थोड़ी बहुत अव्यवस्था या शिथिलता चल जाती । अव्यवस्था या शिथिलता किसी भी भाषा में न तो चलती है और न होती है। वास्तव में तो इन बातों में निरीक्षण या वर्गीकरण ही क्षतियुक्त होता है। इस पर से ये ही समझा जाये कि व्याकरणकार अमुक सामग्री का अपने वर्गीकरण में समावेश नहीं कर सका है और उसका विश्लेषण इतना अधूरा है ।
कई बार स्पष्टतः दिखाई देते अपवाद या तो भाषा की पहले को या बाद की भूमिका की अथवा तो दो या दो से अधिक बोलिओं की सामग्री के मिश्रण के कारण होते हैं । हेमचन्द्र ने अपभ्रंश के व्याकरण की रचना के लिये प्रयोग में ली हुई सामग्री भिन्न भिन्न समय की और भिन्न भिन्न प्रदेश की थी, अतः स्वाभाविक ही उसके प्रतिपादन में विकल्प और अपवाद आयेंगे ही ।
अपभ्रंश में दृष्टिगोचर शौरसेनी और महाराष्ट्री ग्राकृत का प्रभाव :
इसके अतिरिक्त वृत्ति में कहा गया है कि कई बार विशिष्ट रूप से अपभ्रंश के स्थान पर महाराष्ट्री या शौरसेनी का प्रयोग भी होता है । वास्तव में तो इसका भी इतना ही होता है कि अपभ्रंश भाषा में रचित रचनाओं में क्वचित् प्राकृत या शौरसेनी रूपों का भी प्रयोग हुआ है। और अपभ्रंश साहित्य देखने पर प्राकृत प्रभाव का मूल कारण क्या है वह भी समझ में आ जायेगा । अपभ्रंश में केवल पद्यसाहित्य ही है । अपभ्रंश काव्यों में अपभ्रंश के छंदों के अलावा कई बार विशिष्टरूप से प्राकृत माने जाते गाथा, शीर्षक, द्विपदी तथा अक्षरगणात्मक वृत्तों का भी प्रयोग हुआ है । ऐसे छंदों की भाषा प्राकृतबहुल होती है । इसके अतिरिक्त कई बार अपभ्रंश छंदों में छंदभंग से बचने के लिये प्राकृत रूप का प्रयोग होता था ! कई अपभ्रंश शब्दों का अंत्याक्षर लघु होता है, प्राकृत का गुरु । इसलिये जहाँ छंद.
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