Book Title: Apbhramsa Vyakarana Hindi
Author(s): H C Bhayani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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('बीच में '), गुज. वचलं, हिं. बीचला, गुज. वचगाळो 'अंतराल', गुज. बचमां, हिं.. बीच में और गुज. वचेट ( 'मँझला') में भी यह है ।
421 (1) कार्यसाधक समर्व पुरुष को संबोधित अन्योक्ति है ।
422 (2). घंघल के अर्थ के लिये दिया हुआ झकट- शब्द भी आगे चलकर संस्कृत में शामिल किया गया देशज शब्द ही है । झगड्- = धातु 'कलह करना' के अर्थ में है । उस पर से बनी संज्ञा का संस्कृत रूप यह झकट- = गुज. झगडो, हिं. झगड़ा | उदाहरण में बुरी दशा से हतोत्साह हुए हृदय को आश्वासन दिया गया है । संसार में सुख के साथ ही दुःख है । नदी के जैसे सुन्दर प्रदेश हैं वैसे सँकरे नाले के मोड़ भी हैं ।
( 4 ). सं. आत्मन: का अप्पणु हुआ और वह स्ववाचक सर्वनाम के रूप में प्रयुक्त होने लगा । अप्पणु का 'स्वयं' और 'आप' दोनों अर्थ हैं ।
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(6). *द्रेक्ख - और पेह - या पाह - 'देखना ' इनके संकर से * देह और उस पर से संज्ञा देहि बनी होगी ।
उदाहरण को भाषा प्राचीन है। नवी शताब्दी पहले के उद्धृत किया है, परंतु जैसे हेमचन्द्र में प्राचीन लक्षण सुरक्षित हैं
छन्द : मात्रा ! देखिये 350 ( 1 ) विषयक टिप्पणी ।
(7). लेखडड में अपभ्रंश ध्वनिप्रक्रिया के लिये असामान्य लगे वैसा -खसुरक्षित है, उसका ह या घ नहीं हुआ है । यह आधुनिक चलन है ।
स्वयंभू ने यह पद्य वैसे वहाँ नहीं है ।
(9). कोड्ड- पर से आये गुज. कोड ('उमंग') में अर्थ थोड़ा बदल गया है । 'कौतुक' के स्थान पर 'अभिलाषा' के अर्थ में उसका प्रयोग होता है ।
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( 10 ). अपभ्रंश के स्थान पर शुद्ध प्राकृत उदाहरण | छन्द अनुष्टुप | प्रत्येक चरण में आठ आठ वर्ण, पाँचवा लघु, छठा गुरु, सातवाँ प्रथम- तृतीय चरणों में गुरु, द्वितीय - चतुर्थ में लघु ।
(11). सं. 'रमण'- पर से *रमण्य और फिर रवण्ण- !
( 14 ). शरीर को कुटी का रूप दिया है । कुटी पर से कुडी, उसके कुदअंग को लघुतावाचक स्वार्थिक - उल्ल- लगने पर, स्त्रीलिंग का ई लगते कुडुल्ली । जुअंजुअ का मूल सं. युतंयुत- उस पर से गुज. जूजवुं ( ' भिन्न-भिन्न )'. बहिणु अः
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