Book Title: Apbhramsa Vyakarana Hindi
Author(s): H C Bhayani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

Previous | Next

Page 210
________________ १४५ 401. अवरोप्पर में पहला अंश सं. अपर- में से आया हुआ है । जाहँ जोअंताह के विशिष्ट षष्ठी के प्रयोग के लिये देखिये भूमिका में 'व्याकरण की रूपरेखा' सूत्र 410 से 412 ध्वनिपरिवर्तन की कुछ विशेषतायें प्रस्तुत करते हैं । 410. प्राकृत में हस्व ए और ह्रस्व ओ का क्षेत्र सीमित था । संयुक्त व्यंजनों के पूर्ववर्ती ए, ओ नियमतः और शब्दांत स्थिति में क्वचित् ह्रस्व बोले जाते । अपभ्रंश में विस्तार हुआ है । अंत्य ए, ओ आभ्रंश में नियमतः और अनंत्य विशिष्ट परिस्थिति में ह्रस्व हैं । 411. उसी प्रकार अनुनासिक का प्रदेश भी विस्तृत हुआ है। अंत्य स्थान पर अनुस्वार नहीं परन्तु सानुनासिक स्वर का उच्चार होता है । 413. अवराइस के मूल में *अपराश- है। 414. यह गौर किया जाये कि चारों रूपों में रकार सुरक्षित रहता है । प्राइव, प्राइव पर से आया होगा । प्राइम्व का मूल प्राउ एम्त्र = सं. प्रायः एवम् हो । पग्गिम्ब शायद प्राग + एवम् पर से बना होगा । छन्द 21 मात्रा का रासा छन्द है । ग्यारह या बारह मात्रा पर यति और अन्त में तीन लघु होते हैं । छन्द सुरक्षित रखने के लिये अन्ने और ते उनके अंत्य स्वरों को हस्व और तं को तँ बोलना पडेगा । (2). भ्रतड़ी यह रकार बचा रूप है । सं. भ्रान्ति का भ्रति और स्वार्थिक -डप्रत्यय लगने पर भ्रतड़ी-. मणिअडा के लिये देखिये सूत्र 430. अज्जुवि पर से अज्ज-वि और फिर गुजराती में अजी होना चाहिये परन्तु अद्य खलु पर से अज्जुह-अज्जुहु (पाचीन हिन्दी अजहु) और गुज. हजु 'अभी' हुआ, उसके हकार के प्रभाव से गुज. हजी ('अभी भी') हुआ । (3). उदयसौभाग्यगणि, पीशेल, वैद्य आदि सर का अर्थ सरस 'सरोवर', 'शील' करते हैं । परन्तु संपेसिआ के साथ उसका सम्बन्ध नहीं ठहर पाता । अश्रुजल के कारण दृष्टि-शर की गति सीधी के स्थान पर वक्र दिखती है-या होती है ऐसा अर्थ ही स्वाभाविक लगता है । __(4). करेइ उसे कारेइ ऐसा प्रेरक अर्थ में लेना है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262