Book Title: Apbhramsa Vyakarana Hindi
Author(s): H C Bhayani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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399. हिन्दी और गुजराती में इस झुकाव के उदाहरण हैं सराप, श्राप (शाप), करोड़ (कोडि), गुज. सराण (सं. शाण)।
__(1). यहाँ पर हेमचन्द्र द्वारा उद्धृत उदाहरण जैनेतर-वैदिक परंपरा के अपभ्रंश साहित्य से लिये गये हैं । ऐसी और कोई कृति अभी तक मिली नहीं है । अत: वे महत्त्वपूर्ण हैं । उदाहरण 402, 438 (3), 442 (1, 2) भी इसी प्रकार के हैं। 'दिवे दिवे के लिये देखिये सूत्र 419.
(2). खंभ- का मूल वैदिक स्कम्भ-, 'टेकान' 'सहाग' है । स्तम्भ- में से थंभ- होता है । दिवे दिवे, खभ-, ठाम-, सम्बन्धक भूतकृदंत के प्पि, प्पिणु प्रत्यय तृतीया ब. व. का एहिं, प्रत्यय, गुणवाचक त्तण, पण प्रत्यय आदि ऐसी सामग्री है, जिसके मूल वैदिक समय में हैं और उससे मिलता-जुलता प्रशिष्ट संस्कृत में कछ नहीं है । ऐसी सामग्री के आधार पर अनुमान किया जाता है कि अपभ्रंश का कुछ अंश उसकी बुनियाद में स्थित लोकबोलीओं द्वारा वैदिक समय को लोकबोलियों से आया होगा ।
__400. व्यंजनांत सं. संपद- स्त्रीलिंग शब्द शाला जैसी आकारांत स्त्रीलिंग संज्ञाओं के प्रभाव से आकारांत बन कर प्राकृत में संपया बनते हैं : संपया का अपभ्रंश में संपय और फिर संपइ ।
401 से 409, 413 से 428 और 444 इन सूत्रों में इने-गिने शब्द. गुच्छ या शब्दों से जुड़े परिवर्तन या आदेश दिये हैं ।।
केम पर से किम और किध पर से किह बना है । सं. एवं पर से एम और उसके सादृश्य में केम आदि । अपभ्रंश में आगे चलकर नासिक्य व्यंजन के पहले के ए, ओ को ह्रस्व करने का चलन है । ह्रस्व ए, ओ कईबार इ, उ के रूप में भो लिखे जाते । इसीलिये केम, एम का के म, एम और किम, इम ।
किध आदि सं. कि- अंग (किम् आदि में है वह) और -थ प्रत्यय न सिद्ध *कि-थ जैसे रूप पर से है। प्राचीन अपभ्रंश में किध, उत्तरकालीन में किह ।
401. (1). समप्पउँ ये समप्प - ('समाप्त होना') का आज्ञार्थ उ. पु. ए.
(2). अन्नु-वि पर से अन्न-इ, अनह, गुज. अने, ने। किव> हि. क्यों।
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