Book Title: Apbhramsa Vyakarana Hindi
Author(s): H C Bhayani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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प्राप्त करने के लिये जो काव्य रचना करता था उसके उपयोग के लिये, उसकी शिक्षा के लिये काव्यशास्त्र और व्याकरण रचे जाते थे | नाटक में ऐसी रुदि बन गयी थी कि उसमें उच्च वर्ग के पात्र की भाषा संस्कृत होगी और अन्य की प्राकृत । रंगभूमि पर प्रस्तुत किये जाते, समाज के संस्कारवंचित वर्ग में से और भिन्न भिन्न प्रादेशिक विस्तारों से लिये गये पात्रों को कुछ वास्तविकता का पुट देने के लिये उनकी उक्तिओं में, लोक में ज्ञात उच्चारण और प्रयोग की दो चार लाक्षणिकता का आंशिक प्रयोग होता था । इसमें वास्तविक जीवन में प्रयुक्त बोलियों को यथातथ रूप में पात्र की उक्ति में प्रस्तुत करने का आशय नहीं था । आज आधुनिक युग में यथार्थवाद में रममाण लोग भी इस हद तक नहीं जाते, जाना संभव भी नहीं है । प्राकृत में संस्कृत से भिन्न ऐसे कुछ व्यापक लक्षण अलग से लेकर उसमें बोलीविशेष के अनुसार कुछ-कुछ परिवर्तन कर लिया जाता । भरत के नाट्यशास्त्र में ऐसी प्राकृत बोलियों में मागधी, आवंती, शौरसेनी आदि सात 'भाघाये' और शाबरी, आभीरी आदि अनेक 'विभाषाये” बतायी गयी हैं । साथ-साथ अमुक प्रदेश की उकारयुक्त बोली, अमुक प्रदेश की तकारयुक्त ऐसी प्रादेशिक विशेषता की सूची दी गयी है । किस पात्र की भाषा कैसी हो इस विषयक नाटयकार को जिन नियमों का ध्यान रखना है उसके संदर्भ में इस भाषा विषयक जानकारी का उल्लेख किया गया है । और इसी प्रयोजन से संस्कृत के उच्चारणादि में कैसे कैसे परिवर्तन किये जाये ताकि अभिनेता की संस्कृत भाषा प्रेक्षक जनता को प्राकृत बोली जैसी लगे इस के नियम उस समय के प्राकृत भ्याकरण में दिये जाते थे ।
भरत की परंपरा का अनुगमन करनेवाले पुरुषोत्तम, रामशर्मा, मार्कण्डेय आदि प्राच्य व्याकरणकार विस्तार से 'भाषाओं' और 'विभाषाओं' के लक्षण देते है । 'भाषाओं' के नाम मुख्य रूप से प्रदेशमूलक रथा 'विभाषाओं के जातिमूलक हैं इस पर से कुछ अध्ययनकर्ताओं ने यह मान लिया कि व्याकरणकारों ने उस प्रदेश तथा जाति की वास्तविक बोली का निरूपण किया है। परंतु उपर्युक्त चर्चा से स्पष्ट होगा कि मूलतः इन लोगों ने उस उस बोली के लोकदृष्टि से तुरंत ध्यान में आये ऐसे कुछ स्थूल, कामचलाउ लक्षण ही रंगभूमि के उपयोग हेतु बताये हैं। इतना ही नहीं आगे चलकर ये लक्षण रूढ और परंपरागत बनते गये सो कई बातों में उन्हें तत्कालीन वास्तविक स्थिति से कुछ लेना-देना भी नहीं रहा । पात्र-प्रकारों की सूचि बदलती गयी वैसे-वैसे बोलियों के नाम और लक्षण में भी कमोबेश परिवर्तन होते रहे, हाँ, प्रयोजन और निरूपण को दृष्टि वही की वही रही ।
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