Book Title: Apbhramsa Vyakarana Hindi
Author(s): H C Bhayani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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अनुवाद अशेष कषायसेना को जीत कर, जगत को अभयदान दे कर, महावत
लेकर और तत्त्व का ध्यान धर कर (साधु) शिवपद ( = मोक्ष) प्राप्त
करते हैं । वृत्ति पृथग्योग उत्तरार्थः ।
(प्रत्यय) अलग-अलग दिये हैं वे बाद के (सूत्र) के लिए । 441
तुम एवमणाणहमणहिं च ॥ 'तुम्' के 'एवम्', 'अण', 'अणहँ', 'अणहि” भी ।। वृत्ति अपभ्रंशे 'तुः' प्रत्ययस्य एवं', 'अण', 'अणह', 'अणहि" इत्येते
चत्वारः । चकारात् ‘एप्पि', 'एप्पिणु', 'एवि', 'एविणु' इत्येते । एवं चाष्टावादेशा भवन्ति । अपभ्रंश में, 'तुम्' प्रत्यय के ‘एवं', 'अण', 'अणहँ', 'अणहि' ऐसे चार और चकार से 'एप्पि', 'एप्पिणु', 'एवि', 'एविणु' ऐसे चार
इस प्रकार आठ आदेश होते हैं । उदा० (१) देवं दुकर निअय-धणु करण न तउ पडिहाइ ।
एवइ सुहु भुंजणहँ मणु पर भुजणहि न जाइ । शब्दार्थ देव-दातुम । दुक्कर-दुष्करम् । निअय-धणु-निज-धनम् । करण
कतुम् । नन । तउ-तपः । पडिहाइ-प्रतिभाति । एवइ-एवम् एव । सुहु-सुखम् । भुजणहँ-भोक्तुम् । मणु-मनः । पर-परम् । भुजगहि -
भोक्तुम् । न-न । जाइ-याति । छाया निज-धनम् दातुम् दुष्करम् । तपः कर्तुम् न प्रतिभाति । एवम् एव
सुख भोक्तुम् मनः, परम् भोक्तुम् न याति । अनुवाद अपने धन का दान करना कठिन है । तप करने की सूझती नहीं ।
वैसे ही सुख भोगने का मन है, परंतु भोगा नहीं जाता । उदा० (२) जेपि चएप्पिणु सयल धर लेविण तउ पालेवि ।
विणु संते तित्थेसरेण को सक्कइ भुवणे-वि ॥ शब्दार्थ जेप्पि-जेतुम । चएप्पिणु-त्यक्तुम् | सयल-सकलाम् । घर-घराम् ।
लेविणु-स्वीकृत्य । तउ-तपः । पालेवि-पालयितुम् । विणु-विना । संतेशान्तिना | तित्थेसरेण-तीर्थेश्वरेण | को-कः । सक्कइ-शनोति । भुवणेवि-(त्रि)भुवने अपि ।
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