Book Title: Apbhramsa Vyakarana Hindi
Author(s): H C Bhayani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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व्यत्ययश्च । सीमा के बाहर भी । वृत्ति प्राकृतादि-भाषा-लक्षणानां व्यत्ययश्च भवति । यथा मागध्यां 'तिष्ठश्चिष्ठ-'
(४१२९८) इत्युक्तं तथा प्राकृत-पैशाची-औरसेनीष्वपि भवति । प्राकृत आदि भाषा के लक्षण सीमा के बाहर भी जाते हैं । जैसे कि मागधी में तिष्ठश्चिष्ट' (4/298) ऐमा कहा गया है वह प्राकृत, पैशाची
और शौरसेनी में भी होता है । उदा० (१) चिष्ठदि ।। तिष्ठति । खड़ा रहता है । वृत्ति अपभ्रंशे रेफस्याधो वा लुगुक्तो मागध्यामपि भवति ।।
अपभ्रंश में पिछे के रेफ का विकल्प में लोप कहा है वह भागधी में
भी होता है । उदा० (२) शद-माणुश-मंश-भालके कुंभ-शहश्र-वशाहे शंचिदे । शब्दार्थ शत-मानुष-स-भारकः कुंभ-सहस्र-वसायाः संचितः ।
सेंकड़ों मनुष्यो के मांस से लदा हुआ, चश्वी के सहस्त्र कुंभ के संचयवाला। वृत्ति इत्याद्यन्यदपि द्रष्टव्यम् । न केवलम् भाषा-लक्षणानां त्याद्यादेशानामपि
व्यत्ययो भवति । ये वर्तमाने काले प्रसिद्धास्ते भूतेऽपि भवन्ति । इत्यादि भी जाने | केवल भाषालक्षण ही नहीं, कालवाचक प्रत्यय के आदेश भी सीमा से बाहर जाते हैं । जो वर्तमानकाल में प्रसिद्ध हो,
वह भूतकाल में भी प्रयोग किया जाता है । उदा० (३) अह पेच्छइ रहु-तणओ । वृत्ति
'अथ प्रेक्षांचके रघु-तनयः' इत्यर्थः ।
'फिर रघु के वंशज ( = गम ने) देखा' ऐसा अर्थ है । उदा० (४) आभासइ रयणीअरे ।
'आबभाषे रजनीचरान्' इत्यर्थः । 'निशाचरों से कहा' ऐसा अर्थ है । भूते प्रसिद्धा वर्तमानेऽपि ।
(फिर) भूतकाल में प्रसिद्ध हो वह वर्तमान में भी (प्रयोग किया जाता है)। उदा० (५) सोहीअ एस वंटो । वृत्ति 'शृणोत्येष वण्ठः' इत्यर्थः ।
'वह आवारा सुनता है' ऐसा अर्थ है । 448
शेषं संस्कृतवत् सिद्धम् ।। शेष संस्कृत के अनुसार सिद्ध । शेष यदत्र प्राकृत-भाषासु अष्टमे नोक्त तत्सप्ताध्यायी-निबद्ध-संस्कृतवदेव मिद्धम् ।
वृत्ति
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