Book Title: Apbhramsa Bharti 2001 13 14
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 10
________________ अगस्त्य, सुतीक्ष्ण ऋषियों से भेंटवार्ता, अहल्योद्धार, जयन्त-प्रकरण, शबरी, शूर्पनखा, मन्थरा, जटायु, सुमन्त्र, सम्पाती, ताड़का, खरदूषण तथा परशुराम प्रसंग, प्रभृति। इसके अतिरिक्त रावण तथा काकभुशुण्डि के चरित्र को भी प्रासंगिक कथाओं के अन्तर्गत लिया जा सकता है।' " करकंडचरिउ का कवि सौन्दर्य का सच्चा चित्रकार है। साथ ही, सौन्दर्य विधान में उसकी उर्वर कल्पना ने अनूठा योगदान दिया हैं। तभी तो अनेक भावात्मक प्रसंगों की उद्भावना करके कथा को रससिक्त कर दिया है। जहाँ उसने विविध बिम्बों की अवतरणा की है वहाँ वर्णन में भी उत्प्रेक्षा अलंकार के सहारे सुन्दर चित्र ही निर्मित कर दिये हैं। रूप-चित्रण और भावआकलन में उसकी कारयित्री - प्रतिभा ने सचमुच कमाल ही कर दिया है। उसकी लोकानुभूति और लोकजीवन के सूक्ष्म पर्यवेक्षण की क्षमता निराली है। इसी से वीतरागी संन्यासी होने पर भी उसने अपनी रसात्मकता का सहज परिचय दिया है और सौन्दर्य-विधान में कहीं अलंकारों के सहारे और कहीं कल्पना के द्वारा भव्य बिम्ब बनाये हैं जिनमें मधुरता है, सरसता है। सारांशतः उनका समूचा सौन्दर्य-विधान काव्य की रसानुभूति में सर्वत्र सफल है। उसके सौन्दर्य-बोध में अन्त:करण का योग है तथा उसके चित्रण में गहन आन्तरिकता एवं आध्यात्मिक वृत्ति का संचरण • हुआ है। उसमें कलात्मकता और भव्यता 'जसहर चरिउ' में कथा व उपदेश के माध्यम से निरूपित इन्द्रिय-संयम की और उन्मुक्त व अनावश्यक भोगों से बचने की प्रेरणा दी गई है। इसका लाइलाज बीमारियों से बचने, शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण योगदान । इससे भोगोपभोग-सामग्री के संचय की वृत्ति भी नियन्त्रित होती है तथा अन्य को भी उसकी प्राप्ति के सहज अवसर मिल जाते हैं। इन्द्रिय-संयम, अहिंसादि वृत्तियाँ मानव को स्वावलम्बी बनाती हैं। यह आत्मोत्थान की यात्रा के पथिक के लिए श्रेष्ठतम सम्बल है । " 66 'राउलवेल' में वर्णित विभिन्न नायिकाओं के वस्त्राभूषणों और शृंगार-प्रसाधनों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय आभूषणों को विशेष महत्त्व दिया जाता था । कवि ने नायिकाओं का वर्णन करते समय प्रयत्न किया है कि कुछ यथार्थ और चमत्कार लाने के लिए उस क्षेत्र विशेष की नायिका के वस्त्राभूषण - वर्णन में उस क्षेत्र की भाषा का प्रयोग हो । " " अपभ्रंश की प्रबन्धमूलक काव्याभिव्यक्ति में 'मंगलाचरण' एक सुपरिचित काव्यरूढ़ि है। मंगलाचारण एक यौगिक शब्द है । 'मंगल' और 'आचरण' से मिलकर इस शब्द का गठन होता है । 'मंगल' मंगलाचरण का पूर्व और अपूर्व रूप है। 'मंगल' शब्द का अर्थ है - पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, भद्र, क्षेम, कल्याण, शुभ और सौख्य । ये सभी शब्दार्थ 'मंगल' शब्द के पर्यायवाची हैं।' 'काव्य के प्रारम्भ में मंगलाचरण प्रथा और प्रचलन अपभ्रंश के प्रारम्भ से ही परिलक्षित है।” “अपभ्रंश के 'मंगलाचरण' प्रयोग की इसी परम्परा की अनुमोदना परवर्ती अपभ्रंश कविवर मुनि श्री कनकामर ने अपने करकंडचरिउ काव्य में भी की है।” “अपभ्रंश के "" (ix)

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